"हरित क्रांति (भारत)": अवतरणों में अंतर

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उपलब्धियाँ
 
हरित क्रान्ति के फलस्वरूप देश के कृषि क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई। कृषि आगतों में हुए गुणात्मक सुधार के फलस्वरूप देश में कृषि उत्पादन बढ़ा है। खाद्यान्नों मेमें आत्मनिर्भरता आई है। व्यवसायिक कृषि को बढ़ावा मिला है। कृषकों के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ है। कृषि आधिक्य में वृद्धि हुई है। हरित क्रान्ति के फलस्वरूप गेहूँ, गन्ना, मक्का तथा बाजरा आदि फ़सलों के प्रति हेक्टेअर उत्पादन एवं कुल उत्पादकता में काफ़ी वृद्धि हुई है। हरित क्रान्ति की उपलब्धियों को कृषि में तकनीकि एवं संस्थागत परिवर्तन एवं उत्पादन में हुए सुधार के रूप में निम्नवत देखा जा सकता है-
(अ) कृषि में तकनीकि एवं संस्थागत सुधार
रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग
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उत्पादन तथा उत्पादकता में वृद्धि
 
हरित क्रान्ति अथवा भारतीय कृषि में लागू की गई नई विकास विधि का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि देश में फ़सलों के क्षेत्रफल में वृद्धि, कृषि उत्पादन तथा उत्पादकता में वृद्धि हो गई। विशेषकर गेहूँ, बाजरा, धान, मक्का तथा ज्वार के उत्पादन में आशातीत वृद्धि हुई। जिसके परिणाम स्वरूप खाद्यान्नों में भारत आत्मनिर्भर-सा हो गया। 1951-1952 में देश में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन 5.09 करोड़ टन था, जो क्रमशः बढ़कर 2008-2009 में बढ़कर 23.38 करोड़ टन हो गया। इसी तरह प्रति हेक्टेअर उत्पादकता में भी पर्याप्त सुधार हुआ है। वर्ष 1950-1951 में खाद्यान्नों का उत्पादन 522 किग्रा प्रति हेक्टेअर था, जो बढ़कर 2008-2009 में 1,893 किग्रा प्रति हेक्टेअर हो गया। हाँ, भारत मेमें खाद्यान्न उत्पादनों में कुछ उच्चावचन भी हुआ है, जो बुरे मौसम आदि के कारण रहा जो यह सिद्ध करता है कि देश में कृषि उत्पादन अभी भी मौसम पर निर्भर करता है।
कृषि के परम्परागत स्वरूप में परिवर्तन
 
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अग्रगामी तथा प्रतिगामी संबंधों में मजबूती
 
नवीन प्रौद्योगिकी तथा कृषि के आधुनीकरण ने कृषि तथा उद्योग के परस्पर सम्बन्ध को और भी मजबूत बना दिया है। पारम्परिक रूप में यद्यपि कृषि और उद्योग का अग्रगामी सम्बन्ध पहले से ही प्रगाढ़ था, क्योंकि कृषि क्षेत्र द्वारा उद्योगों को अनेक आगत उपलब्ध कराये जाते हैं। परन्तु इन दोनों में प्रतिगामी सम्बन्ध बहुत ही कमज़ोर था, क्योंकि उद्योग निर्मित वस्तुओं का कृषि में बहुत ही कम उपयोग होता था। परन्तु कृषि के आधुनीकरण के फलस्वरूप अब कृषि में उद्योग निर्मित आगतों, जैसे- कृषि यन्त्र एवं रासायनिक उर्वरक आदि, की मांग मेमें भारी वृद्धि हुई है, जिससे कृषि का प्रतिगामी सम्बन्ध भी सुदृढ़ हुआ है। अन्य शब्दों में कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्र के सम्बन्धों मेमें अधिक मजबूती आई है।
 
इस तरह स्पष्ट है कि हरित क्रान्ति के फलस्वरूप देश में कृषि आगतों एवं उत्पादन में पर्याप्त सुधार हुआ है। इसके फलस्वरूप कृषक, सरकार तथा जनता सभी में यह विश्वास जाग्रत हो गया है कि भारत कृषि पदार्थों के उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर ही नहीं हो सकता, बल्कि निर्यात भी कर सकता है।
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कमियाँ तथा समस्याएँ
 
देश में हरित क्रान्ति के फलस्वरूप कुछ फ़सलों के उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई है, खाद्यान्नो के आयात मेमें कमी आई है, कृषि के परम्परागत स्वरूप मेमें परिवर्तन आया है, फिर भी इस कार्यक्रम में कुछ कमियाँ परिलक्षित होती हैं। हरित क्रान्ति की प्रमुख कमियों एवं समंस्याओं को निम्न रूप मेमें प्रंस्तुत किया जा सकता है-
 
प्रभाव - हरित क्रान्ति का प्रभाव कुछ विशेष फ़सलों तक ही सीमित रहा, जैसे- गेहूँ, ज्वार, बाजरा। अन्य फ़सलो पर इसका कोई प्रभाव नहीनहीं पड़ा है। यहाँ तक कि चावल भी इससे बहुत ही कम प्रभावित हुआ है। व्यापारिक फ़सलें भी इससे अप्रभावित ही हैं।
 
पूंजीवादी कृषि को बढ़ावा - अधिक उपजाऊ किस्म के बीज एक पूंजी-गहन कार्यक्रम हैं, जिसमें उर्वरकों, सिंचाई, कृषि यन्त्रों आदि आगतों पर भारी मात्रा मेमें निवेश करना पड़ता है। भारी निवेश करना छोटे तथा मध्यम श्रेणी के किसानों की क्षमता से बाहर हैं। इस तरह, हरित क्रान्ति से लाभ उन्हीं किसानों को हो रहा है, जिनके पास निजी पम्पिंग सेट, ट्रैक्टर, नलकूप तथा अन्य कृषि यन्त्र हैं। यह सुविधा देश के बड़े किसानों को ही उपलब्ध है। सामान्य किसान इन सुविधाओं से वंचित हैं।
 
संस्थागत सुधारों की आवश्यकता पर बल नहीं - नई विकास विधि मेमें संस्थागत सुधारों की आवश्यकता की सर्वथा अवहेलना की गयी है। संस्थागत परिवर्तनो के अन्तर्गत सबसे महत्वपूर्ण घटक भू-धारण की व्यवस्था है। इसकी सहायता से ही तकनीकी परिवर्तन द्वारा अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। देश में भूमि सुधार कार्यक्रम सफल नहीनहीं रहे हैं तथा लाखों कृषकों को आज भी भू-धारण की निश्चितता नहीं प्रदान की जा सकी है।
श्रम-विस्थापन की समस्या - हरित क्रान्ति के अन्तर्गत प्रयुक्त कृषि यन्त्रीकरण के फलस्वरूप श्रम-विस्थापन को बढ़ावा मिला है। ग्रामीण जनसंख्या का रोज़गार की तलाश मेमें शहरों की ओर पलायन करने का यह भी एक कारण है।
 
आय की बढ़ती असमानता - कृषि में तकनीकी परिवर्तनों का ग्रामीण क्षेत्रों में आय-वितरण पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। डॉ॰ वी. के. आर. वी. राव के अनुसार, "यह बात अब सर्वविदित है कि तथाकथित हरित क्रान्ति, जिसने देश मे खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ाने मे सहायता दी है, के साथ ग्रामीण आय मे असमानता बढ़ी है, बहुत से छोटे किसानों को अपने काश्तकारी अधिकार छोड़ने पड़े हैं और ग्रामीण क्षेत्रों मे सामाजिक और आर्थिक तनाव बढ़े हैं।"
 
आवश्यक सुविधाओं का अभाव - हरित क्रान्ति की सफलता के लिए आवश्यक सुविधाओं यथा- सिंचाई व्यवस्था, कृषि साख, आर्थिक जोत तथा सस्ते आगतों आदि के अभाव मेमें कृषि-विकास के क्षेत्र मेमें वांछित सफलता नहीं प्राप्त हो पा रही है।
 
क्षेत्रीय असन्तुलन - हरित क्रान्ति का प्रभाव पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु आदि राज्यों तक ही सीमित है। इसका प्रभाव सम्पूर्ण देश पर ना फैल पाने के कारण देश का सन्तुलित रूप से विकास नहीं हो पाया। इस तरह, हरित क्रान्ति सीमित रूप से ही सफल रही है।
 
हरित क्रान्ति की सफलता के लिये सुझाव
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हरित क्रान्ति का अन्य फसलों तक फैलाव - हरित क्रान्ति की सफलता के लिये यह आवश्यक है कि इसका विस्तार चावल तथा अन्य फसलों की खेती तक किया जाये। चावल के साथ दालें, कपास, गन्ना, तिलहन, जूट आदि व्यापारिक फसलों के सम्बंध में भी उत्पादन वृद्धि संतोषजनक नहीं रही है। अतः इन फसलों को भी हरित क्रान्ति के प्रभाव क्षेत्र में शामिल किया जाना चाहिए।
 
छोटे खेत और छोटे किसानों को सम्बद्ध करना - छोटे खेतों तथा छोटे किसानों को भी हरित क्रान्ति से सम्बद्ध करना चाहिए। इसके लिये आवश्यक है कि- (अ) भूमि सुधार कार्यक्रमों को शीघ्रता और प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए, (ब) छोटे-छोटे किसानों को उन्नत बीज, खाद आदि आवश्यक चीजों को ख़रीदने के लिये उदार शर्तों एवं दरों पर साख सुविधाएँ उपलब्ध करायी जानी चाहिए, (स) साधारण कृषि उपकरणों की ख़रीद के सम्बन्ध मेमें दी गयी सुविधाओं के अतिरिक्त बड़ी-बड़ी फार्म मशीनरी यथा-ट्रैक्टर, हार्वेस्टर आदि को सरकार की ओर से किराए पर दिया जाना चाहिए, (द) बहुत छोटी-छोटी जोतों वाले किसानों को सहकारी खेती को अपनाने के लिये प्रेरित किया जाना चाहिए।
 
समन्वित फार्म नीति - हरित क्रान्ति की सफलता के लिये समन्वित फार्म नीति अपनायी जानी चाहिए, ताकि फार्म तकनीकि व आगतों के मूल्यों के सम्बन्ध में एक उचित नीति अपनाई जा सके तथा कृषकों को उन्न्तशील बीज, खाद, कीटनाशक तथा कृषि यन्त्र एवं उपकरण उचित मूल्य पर समय पर उपलब्ध हो सकें। इसके अतिरिक्त सरकार को समस्त कृषि उपजों की बिक्री का प्रबन्ध किया जाना चाहिए तथा उचित मूल्य पर कृषि उत्पादों को ख़रीदने की गारन्टी भी देनी चाहिए।
 
नयी राष्ट्रीय कृषि नीति
 
केन्द्र सरकार ने 'नयी राष्ट्रीय कृषि नीति' की घोषणा 28 जुलाई 2000 को की थी। इस नीति में सरकार ने 2020 तक कृषि के क्षेत्र में प्रतिवर्ष 4 प्रतिशत वृद्धि का लक्ष्य रखा है। नयी कृषि नीति का वर्णन 'इन्द्रधनुष क्रान्ति' के रूप में किया गया है, जिसमें सभी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से देश के कृषि क्षेत्र में विभिन्न क्रान्तियों जैसे- 'हरित क्रान्ति' (खाद्यान्न उत्पादन), 'श्वेत क्रांति' (दुग्ध उत्पादन), 'पीली क्रांति' (तिलहन उत्पादन), 'नीली क्रांति' (मत्स्य उत्पादन), 'लाल क्रांति' (मांस/टमाटर उत्पादन), 'सुनहरी क्रांति' (सेब उत्पादन), 'भूरी क्रांति' (उर्वरक उत्पादन), 'ब्राउन क्रांति' (गैर परम्परागत ऊर्जा स्रोत), 'रजत क्रांति' (अण्डे/मुर्गी) एवं 'खाद्यान्न श्रंखला क्रंति' (खाद्यान्न/सब्जी/फलों को सड़ने से बचाना) को एक साथ लेकर चलना होगा, इसी को 'इन्द्रधनुषी क्रान्ति' कहा गया है।
 
== हरित क्रांन्ति के चरण ==
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== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://www.bbc.co.uk/hindi/news/020817_gmcrops_as.shtml क्या हरित क्रांति असफल रही?] (बीबीसी की हिन्दी सेवा)
 
 
[[श्रेणी:संसाधन भूगोल]]