"दारा शिकोह": अवतरणों में अंतर
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दारा को 1633 में [[युवराज]] बनाया गया और उसे उच्च मंसब प्रदान किया गया। 1645 में [[इलाहाबाद]], 1647 में [[लाहौर]] और 1649 में वह [[गुजरात]] का शासक बना। 1653 में [[कंधार]] में हुई पराजय से इसकी प्रतिष्ठा को धक्का पहुँचा। फिर भी शाहजहाँ इसे अपने उत्तराधिकारी के रूप में देखता था, जो दारा के अन्य भाइयों को स्वीकार नहीं था। शाहजहाँ के बीमार पड़ने पर [[औरंगजेब]] और [[मुराद]] ने दारा के 'धर्मद्रोही' होने का नारा लगाया। युद्ध हुआ। दारा दो बार, पहले [[आगरा|आगरे]] के निकट सामूगढ़ में (जून, 1658) फिर [[अजमेर]] के निकट देवराई में (मार्च, 1659), पराजित हुआ। अंत में 10 सितंबर 1659 को दिल्ली में औरंगजेब ने उसकी हत्या करवा दी। दारा का बड़ा पुत्र औरंगजेब की क्रूरता का भाजन बना और छोटा पुत्र [[ग्वालियर]] में कैद कर दिया गया।
[[सूफीवाद]] और [[तौहीद]] के जिज्ञासु दारा ने सभी [[हिन्दू]] और [[मुसलमान]] संतों से सदैव संपर्क रखा। ऐसे कई चित्र उपलब्ध हैं जिनमें दारा को हिंदू संन्यासियों और मुसलमान संतों के संपर्क में दिखाया गया है। वह प्रतिभाशाली लेखक भी था।
[[हिंदू दर्शन]] और [[पुराण]]शास्त्र से उसके सम्पर्क का परिचय उसकी अनेक कृतियों से मिलता है। उसके विचार ईश्वर का श्विक पक्ष, द्रव्य में आत्मा का अवतरण और निर्माण तथा संहार का चक्र जैसे सिद्धांतों के निकट परिलक्षित होते हैं। दारा का विश्वास था कि वेदांत और इस्लाम में सत्यान्वेषण के सबंध में शाब्दिक के अतिरिक्त और काई अंतर नहीं है। दारा कृत उपनिषदों का अनुवाद दो विश्वासपथों - इस्लाम और वेदांत - के एकीकरण में महत्वपूर्ण योगदान है।
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राजनीतिक परिस्थितियों वश दारा में [[नास्तिकवाद]] की ओर रुचि हुई, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। बाल्यकाल से ही उसमें अध्यात्म के प्रति लगाव था। यद्यपि कुछ कट्टर मुसलमान उसे धर्मद्रोही मानते थे, तथापि दारा ने इस्लाम की मुख्य भूमि को नहीं छोड़ा। उसे धर्मद्रोही करार दिए जाने का मुख्य कारण उसकी सर्व-धर्म-सम्मिश्रण की प्रवृत्ति थी जिससे इस्लाम की स्थिति के क्षीण होने का भय था।
2017 में दिल्ली की 'डलहौजी रोड' का नाम बदलकर
== सन्दर्भ ==
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