मणि कोई हीरा नहीं है ।
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→‎कथा: आज के जातिसूचक यादव शब्द को हटा दिया गया है जो कि राजा सत्राजित और शतधन्वा के नाम में लगाया थ
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== कथा ==
 
एक बार [[जरासन्ध]] के भय से [[श्रीकृष्ण]] समुद्र के मध्य नगरी बसाकर रहने लगे। इसी नगरी का नाम आजकल द्वारिकापुरी है। [[द्वारिकापुरी]] में निवास करने वाले सत्राजित यादव ने सूर्यनारायण की आराधना की। तब भगवान सूर्य ने उसे नित्य आठ भार सोना देने वाली स्यमन्तक नामक मणि अपने गले से उतारकर दे दी।
 
मणि पाकर सत्राजित यादव जब समाज में गया तो श्रीकृष्ण ने उस मणि को प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की। सत्राजित ने वह मणि श्रीकृष्ण को न देकर अपने भाई प्रसेनजित को दे दी। एक दिन प्रसेनजित घोड़े पर चढ़कर शिकार के लिए गया। वहाँ एक शेर ने उसे मार डाला और मणि ले ली। रीछों का राजा जामवन्त उस सिंह को मारकर मणि लेकर गुफा में चला गया।
 
जब प्रसेनजित कई दिनों तक शिकार से न लौटा तो सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ। उसने सोचा, श्रीकृष्ण ने ही मणि प्राप्त करने के लिए उसका वध कर दिया होगा। अतः बिना किसी प्रकार की जानकारी जुटाए उसने प्रचार कर दिया कि श्रीकृष्ण ने प्रसेनजित को मारकर स्यमन्तक मणि छीन ली है। इस लोक-निन्दा के निवारण के लिए श्रीकृष्ण बहुत से लोगों के साथ प्रसेनजित को ढूंढने वन में गए। वहाँ पर प्रसेनजित को शेर द्वारा मार डालना और शेर को रीछ द्वारा मारने के चिह्न उन्हें मिल गए। रीछ के पैरों की खोज करते-करते वे जामवन्त की गुफा पर पहुँचे और गुफा के भीतर चले गए। वहाँ उन्होंने देखा कि [[जामवन्त]] की पुत्री उस मणि से खेल रही है। श्रीकृष्ण को देखते ही जामवन्त युद्ध के लिए तैयार हो गया।
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युद्ध छिड़ गया। गुफा के बाहर श्रीकृष्ण के साथियों ने उनकी सात दिन तक प्रतीक्षा की। फिर वे लोग उन्हें मर गया जानकर पश्चाताप करते हुए द्वारिकापुरी लौट गए। इधर इक्कीस दिन तक लगातार युद्ध करने पर भी जामवन्त श्रीकृष्ण को पराजित न कर सका। तब उसने सोचा, कहीं यह वह अवतार तो नहीं जिसके लिए मुझे रामचंद्रजी का वरदान मिला था। यह पुष्टि होने पर उसने अपनी कन्या का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और मणि दहेज में दे दी। श्रीकृष्ण जब मणि लेकर वापस आए तो सत्राजित अपने किए पर बहुत लज्जित हुआ। इस लज्जा से मुक्त होने के लिए उसने भी अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया।
 
कुछ समय के बाद श्रीकृष्ण किसी काम से [[इंद्रप्रस्थ]] चले गए। तब अक्रूर तथा ऋतु वर्मा की राय से शतधन्वा यादव ने सत्राजित को मारकर मणि अपने कब्जे में ले ली। सत्राजित की मौत का समाचार जब श्रीकृष्ण को मिला तोवे तत्काल द्वारिका पहुँचे। वे शतधन्वा को मारकर मणि छीनने को तैयार हो गए। इस कार्य में सहायता के लिए बलराम भी तैयार थे। यह जानकर शतधन्वा ने मणि अक्रूर को दे दी और स्वयं भाग निकला। श्रीकृष्ण ने उसका पीछा करके उसे मार तो डाला, पर मणि उन्हें नहीं मिल पाई।
 
बलरामजी भी वहाँ पहुँचे। श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि मणि इसके पास नहीं है। बलरामजी को विश्वास न हुआ। वे अप्रसन्न होकर विदर्भ चले गए। श्रीकृष्ण के द्वारिका लौटने पर लोगों ने उनका भारी अपमान किया। तत्काल यह समाचार फैल गया कि स्यमन्तक मणि के लोभ में श्रीकृष्ण ने अपने भाई को भी त्याग दिया। श्रीकृष्ण इस अकारण प्राप्त अपमान के शोक में डूबे थे कि सहसा वहाँ नारदजी आ गए। उन्होंने श्रीकृष्णजी को बताया- आपने [[भाद्रपद]] शुक्ल चतुर्थी के चंद्रमा का दर्शन किया था। इसी कारण आपको इस तरह लांछित होना पड़ा है।