"उदारतावाद": अवतरणों में अंतर

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19वीं शताब्दी के तीन प्रमुख आंदोलन राष्ट्रीय स्वतंत्रता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा वर्ग-स्वतंत्रता के लिए हुए। राष्ट्रीयवादी, जो मंच पर पहले आए, विदेशी शासन से मुक्ति चाहते थे। उदारतावादी अपनी ही राष्ट्रीय सरकारों के हस्तक्षेप से मुक्ति चाहते थे। [[समाजवाद|समाजवादी]] कुछ देर बाद सक्रिय हुए। वे इस बात का आश्वासन चाहते थे कि शासन का संचालन संपत्तिशाली वर्ग के हितसाधान के लिए न हो। उदारतावादी आंदोलन के यही तीन प्रमुख सूत्र थे जिन्हें बहुधा भावनाओं एवं नीतियों की आकर्षक उलझनों में तोड़ मरोड़कर बट लिया जाता था। ये सभी सूत्र, प्रमुखत: महान फ्रांसीसी राज्यक्रांति (1789-94) की भावनाओं और रूसों जैसे महापुरुषों के विचारों की गलत सही व्याख्याओं से अनुप्राणित थे।
 
इस प्रकार, उदारतावाद, भिन्न प्रसंगों में भिन्न-भिन्न अर्थ रखता था। किंतु सर्वत्र एक धारणा समान थी, कि सामंतवादी व्यवस्था के अनिवार्य रूप समाज के अभिजात नेतृत्व संबंधी विचार उखाड़ फेंके जाएँ। नव अभिजात वर्ग-मध्य वर्ग-विकासशील औद्योगिक केंद्रों के मजदूर वर्ग के सहयोग से इस क्रांति को संपन्न करे। (मध्य वर्ग धनोपार्जन के निमित्त राजनीतिक तथा आर्थिक स्वतंत्रता चाहता था। इसी बीच औद्योगिक क्रांति की प्रगति ने ऐसे धनोपार्जन के लिए अभूतपूर्व अवसर प्रस्तुत कर दिए।) बाद में इसके सहयोगी मजदूर वर्ग, जो सामाजिक स्वतंत्रता तथा उत्पादित धन पर समाज का सामूहिक स्वत्व चाहते थे, अलग हो जाएँ। किंतु अभी उन्हें एक साथ रहना था। नि:संदेह उनके मूल विचार, कुछ अंश तक, एक दूसरे से प्रभावित थे, परस्पर निबद्ध।oनिबद्ध।
 
19वीं शताब्दी के समूचे पूर्वार्ध में [[यूरोप]] के उन्नत देशों के व्यापारी आर्थिक उदातरतावाद में विश्वास रखते थे जिसके अनुसार [[व्यापार]] में अनियंत्रित प्रतिस्पर्धा ही सर्वोत्तम एवं सबसे अधिक न्याययुक्त पद्धति मानी जाती थी। इसके सिद्धांतों का प्रतिपादन पहले [[ऐडम स्मिथ]] (1723-90) ने अपनी "राष्ट्रों का धन" (द वेल्थ ऑव नेशंस) नामक पुस्तक में, फिर फ्रांस में फिज़ियोक्रैटों एवं उनके अनुयायियों ने किया। व्यक्तिगत व्यापारियों तथा व्यक्तिगत राज्यों की इस अनियंत्रित प्रतिस्पर्धा का परिणाम, कुछ समय के लिए, अत्यधिक लाभकर ही हुआ, यद्यपि यह लाभ अविकसित विदेशों के स्वार्थ तथा स्वदेश कृषि को हानि पहुँचाकर हुआ।