"ज्ञानेश्वर": अवतरणों में अंतर
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संत ज्ञानेश्वर का जन्म सन १२७५ ईसवी में महाराष्ट्र के [[औरंगाबाद]] जिले में पैठण के पास [[गोदावरी]] नदी के किनारे आपेगाँव में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था। इनके पिता का नाम विट्ठल पंत एवं माता का नाम रुक्मिणी बाई था। इनके पिता उच्च कोटि के मुमुक्षु तथा भगवान् [[विट्ठलनाथ]] के अनन्य उपासक थे। [[विवाह]] के उपरांत उन्होंने [[संन्यास]]दीक्षा ग्रहण की थी, किंतु उन्हें अपने [[गुरु]]देव की आज्ञा से फिर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना पड़ा। इस अवस्था में उन्हें निवृत्तिनाथ, ज्ञानदेव तथा सोपान नामक तीन पुत्र एवं मुक्ताबाई नाम की एक कन्या हुई। संन्यास-दीक्षा-ग्रहण के उपरांत इन संतानों का जन्म होने के कारण इन्हें 'संन्यासी की संतान' यह अपमानजनक संबोधन निरंतर सहना पड़ता था। विट्ठल पंत को तो उस समय के ब्राह्मण समाज द्वारा दी गई आज्ञा के अनुसार देहत्याग तक करना पड़ा था।
पिता की छत्रछाया से वंचित से अनाथ भाई-बहन जनापवाद के कठोर आघात सहते हुए शुद्धिपत्र की प्राप्ति के लिये उस समय के सुप्रसिद्ध धर्मक्षेत्र [[पैठण|पैठन]] में जा पहुँचे। किम्वदंती प्रसिद्ध है : ज्ञानदेव ने यहाँ उनका उपहास उड़ा रहे ब्राह्मणों के समक्ष [[भैंसा|भैंसे]] के मुख से [[वेद|वेदोच्चारण]] कराया था। गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित इनके जीवन-परिचय के अनुसार - ".....1400 वर्ष के तपस्वी चांगदेव के स्वागत के लिए जाना था, उस समय ये दीवार बैठे थे, उसी दीवार को चला कर ले गये |" मराठी गीत में यह घटना यों गाई जाती रही है-
उक्त शुद्धिपत्र को लेकर ये चारों [[प्रवरा नदी]] के किनारे बसे नेवासे ग्राम में पहुँचे। ज्ञानदेव के ज्येष्ठ भ्राता निवृत्तिनाथ के [[नाथ संप्रदाय]] के गहनीनाथ से उपदेश मिला था। इन्होंने उस आध्यात्मिक धरोहर को ज्ञानदेव के द्वारा अपनी छोटी बहन मुक्ताबाई तक यथावत् पहुँचा दिया। इस प्रकार परमार्थमार्ग में कृतार्थ एवं सामाजिक दृष्टि से पुनीत ज्ञानदेव ने आबालवृद्धों को अध्यात्म का सरल परिचय प्राप्त कराने के उद्देश्य से [[श्रीमद्भगवद्गीता]] पर [[मराठी]] में टीका लिखी। इसी का नाम है '''भावार्थदीपिका''' अथवा '''[[ज्ञानेश्वरी]]'''। इस ग्रंथ की पूर्णता शक संवत १२१२ नेवासे गाँव के महालय देवी के मंदिर में हुई।
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