"संस्कृत के प्राचीन एवं मध्यकालीन शब्दकोश": अवतरणों में अंतर

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'''पुरुषोत्तमदेव''' (समय ११५९ ई० के पूर्व) — संस्कृत में पाँच कोंशों के निर्माता माने गए हैं — (१) त्रिकांडकोश, (२) हारावली, (३) वर्णदेशन, (३) एकाक्षरकोश और (५) द्विरूपकोश। 'अमरोकश' के टीकाकार 'सर्वानद' ने अपनी टीका में इनके चार कोशों के वचन उदधृत किए हैं जिससे इनका महत्वपूर्ण कोशकर्तृत्व प्रकट हैं। ये बौद्ध वैयाकरण थे। 'भाषावृत्ति' इवकी प्रसिद्ध रचना है। इन्होंने 'वाचस्पति' के 'शब्दार्णव' 'व्याडि' की 'उत्पलिनी' 'विक्रमादित्य' के 'संसारवर्त' को अपना आधार घोषित किया है। 'आफ्रेक्त ग्रंथसूची में नौ अन्य (ब्याकरण और कोश के) ग्रंथों का पुरूषोत्तमदेव के नाम से संकेत मिलता है। इनका त्रिकांडकोश'— नाम से ही 'अमरकोश' का परिशिष्ट प्रतीत होता है। फलतः वहाँ अप्राप्त शब्दों का इसमें संकलन है। ('अमरकोश' से पूर्व का भी एक 'त्रिकांडकोश' बताया जाता है पर उससे इसका संबंध नहीं जान पडता।) इसमें अनेक छंद हैं और इसकी टीका भी हुई है। हारावली में पर्याय शब्दों और नानार्थ शब्दों के दो विभाग गै। श्लोकसंख्या २७० है। पर्यायवाची विभाग का तीन अध्यायों—(१) एकश्लोकात्मक (२) अर्धश्लोकात्मक तथा (३) पादात्मक—में उपविभाजन हुआ है। नानार्थ विभाग में भी—(१) अर्धश्लोक, (२) पादश्लोक और एक शब्द में दिए गए हैं। इसमें प्रायः विरलप्रयोग और अप्रसिद्ध शब्द हैं जबकि त्रिकांडकोश में प्रसिद्ध शब्द। ग्रंथकार की उक्ति के अनुसार १२ वर्षा में बड़े श्रम के साथ इसकी रचना की गई है। (१२ मास में एक पाठ के अनुसार)। वर्णदेशना अपने ढंग का एक विचित्र और गद्यात्मक कोश है। देशभेद, रूढिभेद और भाषाभेद से ख, क्ष या ह, ड अथवा ह, घ, में होनेवाली भ्रांति का अनेक ग्रंथों के आधार पर निराकरण ही इसका उद्देश्य जान पड़ता है—
:'अंत्र'"अंत्र" हि प्रयोगे बहुदश्वानां श्रुतिसाधारणमात्रेण गृहणातां खुरक्षुरप्रादौ खकराक्षकारयौः सिंहाशिंघानकादौ हकारघकारयौ..... तथः गौडा दिलिपि साधारण्याद् हिण्डीगुडोकेशादौ हकार—डकारयोः भ्रांतय उपजायन्तो। अतस्ताद्विवेचनाय क्वाचिद्धातुपरायणे धातुवृत्ति- पूजादिषु प्रव्यक्तलेखनेन प्रसिद्धी देशेन धातुप्रत्ययोणादिव्याख्यालेखनेन क्वचिदाप्तवंचनेन श्लेषादिदर्शनेन वर्णदेशनेमानभ्यते। (इंडिया आफितआफिस केटेलाग, पृ० २९४)।
 
'महाक्षपणक', 'महीधर' और 'वररुचि' के बनाए 'एकाक्षर' कोशों का समान 'पुरुषोत्तमदेव' ने भी एकाक्षर कोश बनाया जिसमें एक एक अक्षर के शब्द के अर्थ वर्णित हैं। द्विरूपकोश भी ७५ श्लोकों का लघुकोश है। नैषधकार 'श्रीहष' ने भी एक द्विरूपकोश लिखा था।
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* (२२) विश्वकवि का विश्वनिघंटु है।
 
* (२३) १७८६ और १८३३ के बीच बनारस में संस्कृत- पर्यायवाची श्ब्दों की एक 'ग्लासरी' 'एथेनियन' ने अपने एक ब्राह्मण मित्तमित्र द्बारा अपने निर्देशन में बनवाई थी। इसमें मूल शब्द सप्तमी विभक्ति के थे और पर्याय—कर्तापर्याय, कर्ता कारक (प्रथमा) के, परंतु संभवतः इसमें बहुत सा अंश आधारहीनता अथवा दिषपूर्ण विनियोग के कारण संदिग्ध रहा। 'बोथलिंक' का संक्षिप्त शब्दकोश भी 'ग्यलनास' के अनेक उद्धरणों से युक्त है।
 
इनके अलाव क्षेमेंद्र[[क्षेमेन्द्र]] का लोकप्रकाश, महीप की अनेकार्थमाला का हरिचरणसेन की पर्यामुक्तावली, वेणीप्रसाद का पंचनत्वप्रकाश, अने- कार्थनिलकअनेकार्थनिलक, राघव खांड़ेकर का केशावतंस, 'महाक्षपणक की अनेकार्थ- ध्वनिमंजरीअनेकार्थध्वनिमंजरी आदि साधारण शब्दकोश उपलब्ध है। [[भट्टमल्ल]] की आख्यातचीन्द्रिकआख्यातचन्द्रिका (क्रियाकोश), हर्ष का लिंगानुशाषनलिंगानुशासन, अनिरुद्ध का शब्दभेदप्रकाश और शिवदत्त वेद्यवैद्य का शिवकोश (वैद्यक), गणितार्थ नाममाला, नक्षत्नकोशनक्षत्रकोश आदि विशिष्ट कोश है। लौकिक न्याय की सूक्तियाँसूक्तियों के भी अनेक संग्रह है।हैं। इनमें भुवनेश की लैकिकन्यायसाहसीलौकिकन्यायसाहस्री के अलाबाअलावा लौकिक न्यायसंग्रह, लौकिक न्याय मुक्तावलीन्यायमुक्तावली, लौकिकन्यायकोश आदि है।हैं। दार्शनिक विषयों के भी कोश— जिन्हें हम 'परिभाषिक' कहते है—हैं— पांडुलिपि की सूचियों में पाए जाते है।
 
== इन्हें भी देखें ==