"जैन दर्शन": अवतरणों में अंतर

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जीव और कर्मो का यह सम्बन्ध अनादि काल से नीर-क्षीरवत् जुड़ा हुआ है। जब जीव इन कर्मो से अपनी आत्मा को सम्पूर्ण रूप से कर्मो से मुक्त कर देता हे तो वह स्वयं भगवान बन जाता है। लेकिन इसके लिए उसे सम्यक पुरुषार्थ करना पड़ता है। यह जैन धर्म की मौलिक मान्यता है।
 
[[सत्य]] का अनुसंधान करने वाले 'जैन' शब्द की व्युत्पत्ति ‘जिन’ से मानी गई है, जिसका अर्थ होता है- विजेता अर्थात् वह व्यक्ति जिसने इच्छाओं (कामनाओं) एवं मन पर विजय प्राप्त करके हमेशा के लिए संसार के आवागमन से मुक्ति प्राप्त कर ली है। इन्हीं जिनो के उपदेशों को मानने वाले जैन तथा उनके साम्प्रदायिक सिद्धान्त जैन दर्शन के रूप में प्रख्यात हुए। ऐतिहासिक दृष्टि से नास्तिक दर्शनों में जैन सम्प्रदाय का प्रथम स्थान है। जैन दर्शन ‘आर्हत‘अर्हत दर्शन’ के नाम से भी जाना जाता है। इनकेजैन सम्प्रदायधर्म मेंंमें चौबीस [[तीर्थंकर]] (महापुरूष, जैनों के ईश्वर) हुए जिनमें प्रथम [[ऋषभदेव]] तथा अन्तिम [[महावीर]] (वर्धमान) हुए। इनके कुछ तीर्थकरों के नाम [[ऋग्वेद]] में भी मिलते हैं, जिससे इनकी प्राचीनता प्रमाणित होती है। संक्षेप में इनके सिद्धान्त इस प्रकार हैं-
 
==द्रव्य==
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[[File:द्रव्य.jpeg|thumb|छ: द्रव्यों का वर्गीकरण]]
द्रव्य वह है, जिसमें गुण और पर्याय हो-'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्'। गुण स्वरूप धर्म है और पर्याय आगन्तुक धर्म। इन धर्मों के दो भेद हैं- (क) भावात्मक (ख) अभावात्मक। स्वरूपधर्मों के बिना द्रव्य का अस्तित्त्व सम्भव नहीं। यह जगत् द्रव्यों से बना है। द्रव्य सत् हैं; क्योंकि उसमें सत्ता के तीनों लक्षण उत्पत्ति, व्यय (क्षय) और नित्यता मौजूद है। द्रव्य के दो रूप हैं- अस्तिकाय और अनस्तिकाय। अनस्तिकाय के अमूर्त होने से इसमें केवल काल की ही गणना होती है, जबकि अस्तिकाय में दो प्रकार के द्रव्य हैं- (क) जीव तथा (ख) अजीव। चेतन द्रव्य जीव अथवा आत्मा है। सांसारिक दशा में यही आत्मा जीव कहलाती है। जीव में प्राण तथा शारीरिक, मानसिक और ऐन्द्रिक शक्ति है, जिसमें कार्य के प्रभाव से औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदायिक तथा पारिमाणिक- ये पाँच भाव प्राण से संयुक्त, रहते हैं। द्रव्य के रूप बदलने पर यही ‘भावदशापन्न प्राण’ पुद्गल (डंजजमत) कहलाता है। इस प्रकार पुद्गल युक्त जीव ही संसारी कहा जाता है।
 
जैन दर्शनानुसार जीव नित्य एवं स्वयंप्रकाश है। '[[अविद्या]]' के कारण वह बन्धन में बँधता है। इस प्रकार जीव के दो भेद हैं- संसारी एवं मुक्त। संसारी के पुनः दो भेद स्थावर और जंगम हैं, जिनमें जंगम-पृथ्वीकाय, अपकाय, वायुकाय तथा तेजकाय वाले हैं। अस्तिकाय द्रव्य का दूसरा तत्त्व ‘अजीव’ है, जिसके पाँच भेद हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल।