"सद्दाम हुसैन": अवतरणों में अंतर

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वर्ष 1958 में इराक में ब्रिटिश समर्थित सरकार के खिलाफ विद्रोह भड़का और ब्रिगेडियर अब्दुल करीम कासिम ने राजशाही को हटाकर सत्ता अपने कब्जे में कर ली। सद्दाम तब बगदाद में पढ़ाई करता था। तभी उसने 1959 में अपने गैंग की मदद से कासिम की हत्या करने की असफल कोशिश की। वह देश से भाग कर मिस्त्र पहुंच गए। चार साल बाद यानी 1963 में कासिम के खिलाफ बाथ पार्टी में फिर बगावत हुई। बाथ पार्टी के कर्नल अब्दल सलाम मोहम्मद आरिफ गद्दी पर बैठे और सद्दाम घर लौट आए। इसी बीच सद्दाम ने साजिदा से शादी की जिससे उनके दो पुत्र और तीन पुत्रियां हुईं।
 
सद्दाम ज्यादा दिन चैन से नहीं रह पाए। एक बार फिर बाथ पार्टी में बगावत हुई और सद्दाम को नई हुकूमत ने जेल में डाल दिया। वह तब तक जेल की हवा खाते रहे जब तक कि 1968 में बाथ पार्टी के मेजर जनरल [[अहमद हसन अल बकर]] ने तख्ता पलट कर सत्ता नहीं हथिया ली। अल बकरवकर उनके चचेरे भाई भी लगते थे। वह अल बकर की [[रिवॉल्यूशनरी कमांड काउंसिल]] के प्रमुख सदस्य बन गए। सच बात तो यह भी है कि वही बकर की सत्ता के असली कर्त्ता-धर्त्ता थे। शुरुआत में वह बड़े उदार थे लेकिन धीरे-धीरे अपने असली रूप में आ गए। बकर बीमार थे और सत्ता की चाबुक का वही इस्तेमाल करते थे। उन्होंने सुन्नी जगत में अपनी अलग छवि बनाई और परदे के पीछे अपना एक अलग समूह तैयार करते रहे। 16 जुलाई 1979 को अल बकर को सत्ता से हटा कर वह स्वयं इराकी गद्दी पर बैठ गए। वह चाहते तो इस सत्ता परिवर्तन को स्वाभाविक हिंसारहित तख्तापलट का रूप दे सकते थे लेकिन उन्हें तो यह संदेश देना था कि अब सत्ता में सद्दाम आ गया है, इसलिए बगावती तेवर वाले सावधान हो जाएं। उन्होंने एक के बाद एक 66 देशद्रोहियों को मौत के घाट उतार दिया। अपने शासन के आरंभिक वर्षों में सद्दाम हुसैन अमेरिका के लाड़ले थे। उन्होंने ईरान से युद्ध मोल लिया और अमेरिका से मदद ली। रोनाल्ड रेगन ने उनकी मदद की। कैसा विद्रूप है कि हाल में जब रेगन की मृत्यु हुई तो वह उसी अमेरिकी सत्ता की जेल में मौत का इंतजार कर रहे थे।
 
सद्दाम हुसैन पर शियाओं के साथ भेदभाव करने का आरोप है। 1982 में एक बार दुजैल गांव में उनके ऊपर हमला हुआ था। जिसके जवाब में उन्होंने वहां 148 शियाओं की हत्या करवा दी। वही फैसला आज उनकी फांसी का कारण बना। इसी तरह कुर्दों के ऊपर भी उनके जुल्मों की कथाएं कम दर्दनाक नहीं हैं। हालांकि दस वर्ष तक वह लगातार ईरान से लड़ते रहे, जिससे उनकी छवि एक जुझारू लड़ाके की बनी लेकिन उनकी उलटी गिनती तब शुरू हुई जब उन्होंने 1990 में कुवैत पर कब्जा कर लिया। इससे वह अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठानों की नजरों में आ गए और जल्दी ही खाड़ी युद्ध शुरू हो गया। 42 दिन के युद्ध के बाद इराक अमेरिकी गठबंधन सेनाओं से पराजित तो हुआ पर सद्दाम हुसैन नहीं झुके। इसी वजह से बार-बार अमेरिका को लगता रहा कि वह फिर चुनौती बन सकते हैं। लिहाजा उनके खिलाफ 2003 में फिर युद्ध हुआ और उसके बाद की कहानी हमारे सामने है। वह एक तानाशाह तो थे लेकिन जिस तरह से उन्होंने खुद को अंतरराष्ट्रीय फलक पर पेश किया और अमेरिका के आगे नहीं झुके, उसने उहें वाकई अरब जगत का नायक बना दिया। देखना यह है कि उन्हें इतिहास किस तरह याद रखता है