"डॉ॰ नगेन्द्र": अवतरणों में अंतर
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'''डॉ॰ नगेन्द्र''' (जन्म: 9 मार्च 1915
अपनी सूझ-बूझ तथा पकड़ के कारण वे गहराई में पैठकर केवल विश्लेषण ही नहीं करते, बल्कि नयी उद्भावनाओं से अपने विवेचन को विचारोत्तेजक भी बना देते थे। उलझन उनमें कहीं नहीं थी। 'साधारणीकरण' सम्बन्धी उनकी उद्भावनाओं से लोग असहमत भले ही रहे हों, पर उसके कारण लोगों को उस सम्बन्ध में नये ढंग से विचार अवश्य करना पड़ा है। 'भारतीय काव्य-शास्त्र' (1955ई.) की विद्वत्तापूर्ण भूमिका प्रस्तुत करके उन्होंने हिन्दी में एक बड़े अभाव की पूर्ति की। उन्होंने 'पाश्चात्य काव्यशास्त्र : सिद्धांत और वाद' नामक आलोचनात्मक कृति में अपनी सूक्ष्म विवेचन-क्षमता का परिचय भी दिया। [[अरस्तू]] के [[काव्यशास्त्र]] की भूमिका-अंश उनका सूक्ष्म पकड़, बारीक विश्लेषण और अध्यवसाय का परिचायक है। बीच-बीच में भारतीय काव्य-शास्त्र से तुलना करके उन्होंने उसे और भी उपयोगी बना दिया है। उन्होंने हिंदी [[मिथक]] को भी परिभाषित किया है।<ref>{{cite web |url= http://taptilok.com/pages/details.php?detail_sl_no=295&cat_sl_no=8|title= साहित्य विचार|accessmonthday=[[20 जुलाई]]|accessyear=[[2007]]|format= पीएचपी|publisher= ताप्तिलोक|language=}}</ref>
== जन्म और शिक्षा ==
उनका जन्म
== कार्यक्षेत्र ==
उनका साहित्यिक जीवन कवि के रूप में आरंभ होता है। सन 1937 ई. में उनका पहला काव्य संग्रह 'वनबाला' प्रकाशित हुआ। इसमें विद्यार्थीकाल की गीति-कविताएँ संग्रहीत हैं। एम.ए. करने के बाद वे दस वर्ष तक दिल्ली के कामर्स कॉलेज में अंग्रेज़ी के अध्यापक रहे। पाँच वर्ष तक 'आल इंडिया रेडियो' में भी कार्य किया। बाद में वे [[दिल्ली विश्वविद्यालय]] के हिंदी विभाग में अध्यक्ष पद से निवृत्त होकर
27 अक्टूबर 1999 को नई दिल्ली में उनका निधन हुआ।
== समालोचना ==
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