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=== Description ===
बहुमुखी प्रतिभा के धनी, वेद-वेदान्‍तों, पुराणेतिहास, न्‍याय, दर्शन, वैशेषिक, पिङ्गल-शास्त्र, ज्‍योतिष, निरुक्तादि के प्रकाण्‍ड पण्डित एवं बहुभाषाविद् स्‍वनामधन्‍य पण्डित मदन शर्मा ‘सुधाकर’ कविरत्‍न का जन्‍म राजस्‍थान प्रान्‍त की वीरप्रसविनी और सारस्‍वत्‍याराधकों की पुण्‍य भूमि शेखावाटी अञ्चल के सीकर नगर में विक्रम सम्‍वत् १९८३ में भाद्रपद कृष्‍ण पक्ष-तृतीया बुधवार (२५ अगस्‍त, ईस्‍वी सन् १९२६, समय सायं ०७:५८, मीनलग्‍नोदये) को भगवान् भुवन भास्‍कर के दैदीप्‍यमान आलोक-तुल्‍य प्रतिष्ठित डोकवाल कुल में पं० कजोडमल शर्माजी के ज्‍येष्ठ पुत्र के रूप में हुआ था। आपकी माता का नाम श्रीमती भागीरथी देवी था। आपके दो अनुज पं० रत्‍नलाल शर्मा-ज्‍योतिषाचार्य और श्री बजरंग शर्मा हुए। आपका गौरवर्ण, उन्नत भाल और सुगठित देहयष्टि मार्गचरों को अनायास ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेती थी। आपका सुमनोहर व्‍यक्तित्‍व, उस पर गहन पाण्डित्‍य की निरभ्र धार, स्‍वर्णखचित हीरकावलियों का अद्भुत संगम था।
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आपने सम्‍वत् २००२ में काव्‍यतीर्थ की परीक्षा, सम्‍वत् २०१२ में हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन-प्रयाग से साहित्‍यरत्‍न परीक्षा और बाद में वाराणसी से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की। आपने लगभग १२ वर्षों तक संस्‍कृताध्‍यापक के रूप में कार्य किया। सन् १९५८ में आपने वेदवीथिपथिक पं० मोतीलाल शास्त्री, मानवाश्रम, दुर्गापुरा के साथ वैदिक विज्ञान सम्‍बन्‍धी महत्‍वपूर्ण कार्यों को सम्‍पादित किया। श्री शास्त्री जी के सम्‍बन्‍ध में आपने लिखा है – ‘वेदवीथिषु यस्‍यासीत् सर्वतोदिक् विक्रम:। मोतीलाल सुधीवर्यो गुरुर्मे गीष्‍यति। य आसीत् शिष्‍यतल्लज:’।
 
शोध एवम् अनुसन्‍धान के प्रति विशेष रुचि होने के कारण राजस्‍थान प्राच्‍य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में रहकर आपने अगिनत प्राचीन ग्रन्‍थों का सम्‍पादन और भूमिका-लेखन, गूढ तथा जटिल पुरातन लिपियों के पठन-पाठन, अनेकानेक प्राचीन साहित्‍यकारों की जीवनी-लेखन आदि आदि महत् कार्य किये। प्रतिष्ठान में तीन-चार वर्षों तक कार्य करने के उपरान्‍त सन् १९६३ के आरम्‍भ में (भारत-चीन युद्धोपरान्‍त उत्‍पन्‍न परिस्थितियों के कारण) आपने अपना त्‍यागपत्र प्रस्‍तुत कर दिया और दिल्‍ली (हकीकत नगर, किंग्‍सवे कैम्‍प) आ गए। तत्‍समय दिल्‍ली में एक केन्‍द्रीय संस्‍कृत विद्यापीठ की स्‍थापना की गई थी, जो कालान्‍तर में श्रीलालबहादुर शास्त्री केन्‍द्रीय विद्यापीठ के नाम से विश्रुत हुआ। अखिल भारतीय संस्‍कृत साहित्‍य सम्‍मेलन के तत्‍कालीन महामन्त्री डॉ० मण्‍डन मिश्र जी ने, जो बाल्‍यकाल में आपके सहपाठी भी रहे थे, आपको विद्यापीठ में कार्य करने हेतु आमन्त्रित किया। विद्यापीठ में तत्‍समय नियत समय पर वेतन नहीं मिलता था और सहकर्मी भी आपकी विद्वत्ता से प्रच्छन्न ईर्ष्‍याभाव रखते थे, इन सबसे आहत होकर आपने विद्यापीठ का कार्य भी छोड़ दिया।
:Humphrey Bogart is the greatest actor that ever lived.{{Citation needed|date={{CURRENTMONTHNAME}} {{CURRENTYEAR}}}}
 
कश्चिद् समयान्‍तरे (सन् १९६३-६४ में) धर्मपरायण, विद्यानुरागी, लक्ष्‍मीपुत्र श्रीजुगल किशोर बिडलाजी ने आपका परिचय दिगम्‍बर जैनमुनि १०८ श्रीदेशभूषणजी महाराज से करवाया, जो उस समय दिल्‍ली स्थित लाल मन्दिर, चाँदनी चौक में अवस्‍थान (सम्भवत: चातुर्मास) कर रहे थे। मुनिश्री जी आपके गहन पाण्डित्‍य पर मुग्‍ध हो गए और आपसे जैन धर्म पर कार्य करने का आग्रह किया। इस पर आपने कुछ समय श्रीदेशभूषणजी महाराज के साथ और तदुपरान्‍त वर्ष १९६४ के उत्तरार्ध से (वर्ष १९६५-६६ की कुछ कालावधि को छोड़कर) अपनी इहलीला यात्रा संवरण (१९७०) तक दिगम्‍बर जैन मुनि श्री विद्यानन्‍दजी महाराज (इन्‍हें मुनिपद की दीक्षा और ‘विद्यानन्‍द’ नाम श्रीदेशभूषणजी महाराज ने दिया था, इससे पहले इनका नाम श्री’पार्श्वकीर्ति’ था) के साथ यत्र तत्र [दिल्‍ली, जयपुर (मोहनबाड़ी), श्रीमहावीरजी (दिल्‍लीवालों की धर्मशाला), हिण्‍डौन, फ़िरोजाबाद (जैन नगर में सेठ छदामीलाल जैन के अतिथि भवन में), वर्ष १९६७ में पुन: दिल्‍ली (दरियागंज में शाकाहार होटल के सामने श्री राधेश्‍याम जैन के भवन में तदुपरान्‍त समन्‍तभद्र महाविद्यालय और उसके सामने अनाथाश्रम में रहे), मेरठ (जैन पँचायती धर्मशाला, रेलवे रोड, मेरठ में १९६८ तक रहे), सहारनपुर आदि नगरों में] रहकर मुनिश्री जी के द्वारा प्रतिदिन प्रात:काल दिये जाने वाले व्‍याख्‍यानों को तैयार करने के साथ-साथ जैन-धर्म पर अनेक मौलिक पुस्‍तकों (‘सोने का पिंजरा’, ‘विश्वधर्म की रूपरेखा’, ‘श्रीमहावीरभक्ति गंगा’, ‘पिच्‍छी-कमण्‍डलु’ इत्‍यादि) तथा जैनधर्म के प्राचीन ग्रन्‍थों-शास्त्रों (यथा- सङ्गीतसमयसारादि ग्रन्‍था:) पर टीका-लेखन, अनुवादादि और अन्‍य गहन अन्‍वेषणात्‍मक लेखन कार्य के साथ-साथ अनेकानेक गेय भक्ति भजनों (‘दिगम्‍बर देव आये हैं’, ‘चन्‍दन मेरे गाँव की माटी’, ‘चन्‍द्रप्रभु के दर्शन करने सोनागिरि जाऊँगी’, ‘जय जय आदिजिन, तुम हो तारन तरन’, ‘दु:ख भी मानव की सम्‍पत्ति है’ आदि आदि) की भी रचना की। वर्ष १९६९-७० में ‘तीर्थंकर महावीर’ नामक पुस्‍तक में संशोधन एवं परिवर्धन कार्य किया।
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वर्ष १९६५ में भारत-पाकिस्‍तान युद्धोपरान्‍त मुनिश्री विद्यानन्‍दजी महाराज से मतभेद चलते आप फ़िरोजाबाद से जयपुर चले आये थे। यहाँ चौड़ा रास्‍ता के पास ‘पल्‍लीवालों की गली’ में कुछ समय किराये पर और बाद में ‘गोपालजी का रास्‍ता’ के निकट अवस्थित ‘बानवालों की धर्मशाला’ में रहे और यहीं रहते हुए आपने सेठ धामाणीजी (पूरा नाम स्‍मरण नहीं है) के सहयोग से श्रीगोविन्‍ददेवजी के मन्दिर-प्रांगण में प्रात:काल १८ दिवस तक श्रीमद्भगवद्गीता पर अद्भुत, अभूतपूर्व प्रवचन दिया था, जिसे श्रवण करने हजारों धर्मपरायण नर-नारी दूर-दूर से आते थे। आपके प्रवचन को सुनकर विद्वानों का सहज कथन था – ऐसा मर्मज्ञ विद्वान् पहले कभी नहीं सुना, ‘अपूर्वोऽयं पण्डित:, ना श्रुता पुरा।’
 
जयपुर में ही आपने वर्ष १९६५-६६ में तेरापंथी जैन मुनि परम तपस्‍वी श्रीचन्‍दनमलजी महाराज और युगपुरुष अणुव्रतशास्‍ता आचार्य श्रीतुलसीगणीजी महाराज के सान्न‍िध्‍य में जैनधर्म पर कार्य करते हुए मुनि श्रीचन्‍दनमलजी महाराज की कृति ‘अध्‍यात्‍म पदावलि’ का सम्‍पादन एवं भूमिका-लेखन का कार्य किया।
मेरठ में रहते हुए वर्ष १९६८ के उत्तरार्ध में आप स्‍थानकवासी श्वेताम्‍बर जैन मुनि प्रात: स्‍मरणीय श्रीफूलचन्‍दजी महाराज और तदनुज श्रीशान्तिस्‍वरूपजी महाराज, जैन नगर, मेरठ के सम्‍पर्क में आये। श्रीशान्तिस्‍वरूपजी महाराज के विषय में आपने एक स्‍थान पर लिखा है– “भूपो वैराग्‍यभूमेरमृतभरितवाग्‍वीचिमान् रत्नकूप:, सन्निष्ठोऽसद्दविष्ठस्‍तुषकणकपरिच्‍छेदने चारु शूर्प:। स्‍तूप: पीयूषलेखोल्लिखित इव मधुच्‍छन्‍दसामप्‍य पूप:, साक्षात् शान्तिस्‍वरूप: शमदमनियमैरेव ‘शान्तिस्‍वरूप:’॥” (३१ जनवरी, १९६९)
 
आचार्य देशभूषणजी महाराज के प्रति आपने लिखा है– “यो रात्रिन्दिवमेनसां क्षयकर: सन्‍मार्गगामी स्‍वयं/ भूयो दर्शयते प्रभाप्रवचनैर्वैराग्‍यवीथीरत्नम्/ नाम्नार्थेन च देशभूषण इति ख्‍यातो निबद्धेन्द्रिय-/ ग्रामोदास्‍तसमस्‍तकिल्विषचय: श्व: श्रेयसायास्‍तु न:/ स्‍पृष्ट्वा स्‍पर्शमणिं सुवर्णपदवीं लौहोऽधियात्‍यञ्जसा/ निम्‍बश्चन्‍दनपादपान्तिकगतस्‍तद् गन्‍धवान् जायते/ आचार्योत्तम! देशभूषणमने! तापैरलङ्क्लिश्‍यताम्।...” इन्‍हीं पदों का आप द्वारा किया गया हिन्‍दी रूपान्‍तरण देखिए– “अहोरात्र पापों का क्षेता सन्‍मार्गों का यायावर/ व्‍याख्‍यानों के प्रभाजाल से वैराग्‍यों का दर्शकवर/ यथानाम गुणयुक्त देशभूषण, इन्द्रियविजयी/ परम पुण्‍य पावन चरित्र, आचार्य रहें हमको सुखकर/ पारसमणि को छूकर लोहा भी सुवर्ण हो जाता है/ चन्‍दन पादप की संगति से निम्‍ब गन्‍ध पा जाता है/ श्रीआचार्य देशभूषण मुनिराज! आपके चरणों में/ सांसारिक तापों से क्लेशित विश्‍व शान्ति को पाता है।”
आप द्वारा विरचित ‘श्रीमतां देशभूषणाभिख्‍यानां मुनिप्रवराणां जीवनवृत्तनिरूपणम्’– “अस्‍त्‍यस्मिन् भारते वर्षे दक्षिणस्‍यां समृद्धिमान्/ कर्णाटक इति ख्‍यात: प्रदेशों जन-सङ्कुल:/ मण्‍डले ‘बेलगांवा’ख्‍ये ग्राम: कौथलनामभृत्/ श्रावक: सत्‍यगौडाह्वस्‍तत्राभूद् ग्रामणीर्गुणी/ धनवान् ऋद्धिमान् पुण्‍य-सदाचारपरायण:/ अक्कावतीति तस्‍याभूद् भार्या पतिहिते रता/ शीलव्रतपरा साध्‍वी संयमाचार-रक्षिणी/ विकक्रमार्कस्‍योनविंशे त्रिषष्‍ट्युत्तरगे शुभे/ वर्षे तयोर्हि दम्‍पत्‍यो: प्रादुर्भूत: सुलक्षण:/ बालको बालगौडाख्‍य: द्वितीयेन्‍दु कलाधर:/ वर्द्धमान: स पित्रोश्च परेषां चित्तहारक:/ विशालमधुरालोललोचनान्‍त-निरीक्षितै:/ जननी स्‍वर्जगामास्‍य तृतीये मासि जन्‍मन:/ पिता च नवमे वर्षे परलोकातिथी ह्यभूत्/ कथंचित् करुणावत्‍या मातामह्याथपालित:/ बाल्‍ये भूरि परिश्रम्‍याधीतविद्यो विचक्षण:/ कर्णाटक्‍यां महाराष्ट्रदेशीयायां च मेध्‍या/ प्राप्तवान् षोडशे वर्षे भाषायां बहुपाटवम्/ विवाह-विषयव्‍याधिविकारेषु पराङ्मुख:/ अविप्लुतब्रह्मचर्य आस्‍ते स्‍वाध्‍यायतत्‍पर:/ ‘जयकीर्ति’रिति ख्‍यात आत्‍मरामो जितेन्द्रिय:/ कौथलाख्‍ये गिरावासवीत्तदा कश्चिन्‍मुनीश्वर:/ एकोनविंशवर्षीयो बालोऽबालपराक्रम:/ ब्रह्मचर्यं गृहीत्‍वाऽस्‍य द्वितीये हायने तत:/ जग्राह मुनिदीक्षां च विधिना मुनिनाऽमुना/ दीक्षितो बालगौडोऽयं दिगम्‍बरमुनिव्रते/ ‘देशभूषण’संज्ञोऽथ देश-भूषणतां गत:/ निर्ग्रन्‍थो वीतरागो दिग्‍वासा वीतपरिग्रह:/ पञ्चेन्द्रियजयी नित्‍यं षड्गुणेष्‍ववधानयुक्/ एक भुक्तिर्द्विलोकेज्‍यस्त्रिरत्नपरिनिष्ठित:/ चतुर्गुप्तिधर: पञ्चमहाव्रतसमाहित:/ षट्सुशास्त्रेषु निष्‍णात: सप्तव्‍यसनवर्जित:/ अष्टदिग्‍देशव्रतयुक् नवधाभक्तिमान् जिने/ भूमौ स्‍वपिति, न स्नाति, केशान् लुञ्चति निस्‍पृह:/ दिग्‍वासा विचरत्‍युर्व्‍यां न रदान् क्षालयत्‍यपि/ एकभुग् दोषरहितोऽष्टाविंशति गुणोत्तम:/ बाह्यान्‍तरतपोभिश्चादित्‍यसंख्‍यै: समाहत:/ दुर्जयै: क्रोधकामादिकषायै: परिवर्जित:/ रागद्वेषविमुक्तात्‍मा मित्रे शत्रौ समोऽव्‍यथ:/ वन्‍दारौ निन्‍दके तुल्‍यदर्शीक्षोभपराड्मुख:/ ध्‍यानानुयोगस्‍वाध्‍यायसामायिकपरायण:/ मितभाषी प्रसन्नात्‍मा शान्‍तरूप: सुखाम्‍बुधि:/ क्षुल्लकैलकसाधूनां दीक्षाऽमिक्षाप्रदायक:/ शौचसंयमवृत्त्यर्थं धत्ते पिच्छिकमण्‍डलू/ चतुर्दिक्षु परिभ्रम्‍य पद्भ्‍यां नग्नोऽथ नग्नपात्/ सहस्रक्रोशपर्यन्‍तां मेदिनीं गाहतेऽनिशम्/ पाययन् भवतापौघतप्तानामर्तिनाशिनीम्/ चतुर्विंशति संख्‍यातजिनागमसुधां सदा/ मोहनिद्राप्रसुप्तानां जागर्याव्रत-दीक्षित:/ मारमारीपरीतानां वैराग्‍यामृत-दायक:/ स्‍याद्वादधर्मनिष्ठानां व्रतिनां परमो गुरु:/ मिथ्‍यात्‍वविषवल्लीनां छेत्तां परशुसन्निभ:/ आत्‍मानन्‍दतरड्गि‍ण्‍यां नित्‍यस्नायी विनिर्मल:/ जिनेन्‍द्रशासनस्‍यैक: शास्‍ता शस्‍तव्रतोदय:/ अहिंसारतिरद्वेष्टा कल्‍याणैकनिकेतन:/ साक्षात् शिवस्‍वरूपस्‍थो मारमारणकारणात्/ धर्मवृक्ष: सहस्राणां पापधर्मेण ताम्‍यताम्/ अवगाह चिकीर्षूणां शान्ति-तोया सरस्‍वती/ पवित्रसेतुबन्‍धोऽयं परं पारं तितीर्षताम्/ सिद्धय: पादमूलेऽस्‍य निधयोऽपीड्गिते स्थिता:/ क्षितवान् निर्ममो भूत्‍वा कर्मणां बन्‍धकार्मणम्/ दुष्‍करं किल लोकेऽस्मिन् व्‍यालपारीन्‍द्रसूदनम्/ सुदुष्‍करमिदं भूयो मन्‍मथस्‍य प्रमाथनम्/ इदं खड्गस्‍य धारायां धावनं वीरकर्मणाम्/ इदं क्रुद्धस्‍य कृष्‍णाहे: फणामणिसु घर्षणम्/ इदं ज्‍वालामुखक्षीरलेहनं जिह्वयाऽनया/ इदं विद्युच्चलद्दामग्रहणं वह्नि सन्निभम्/ इदं वा काकूटस्‍य चुलुकीकरणं परम्/ सम्‍मेदशिखरं शोलापुरं चाप्‍यमरावतीम्/ मैसूरं हैदराबादं भारां पाटलिपुत्रकम्/ कालिक्षेत्रं वड्गभुवं मिन्‍दूरपुरमागराम्/ देहलीं मेरठं काशीमयोध्‍यां जयपत्तनम्/ भोपालं याप्‍यहम्‍मदाबादं ग्‍वालियरं तथा/ कानपूर्नागपूरर्मोहमयी: सूरतपत्तनम्/ अन्‍यान्‍यपि पुरग्रामनगराणि जनायनम्/ गाहमानोऽनिशं पद्भ्‍यां सद्धर्मर्द्धिसमीहया/ ज्ञानचारित्रसम्‍यक्त्‍वोपदेशपटुरव्‍यथ:/ प्रतिबोधकरो नित्‍यं पुनर्विस्‍मृतधर्मणाम्/ क्षयोपशमकृन्नूनमनेकभवकर्मणाम्/ मद्यमांसमधुत्‍यागव्रतैर्विमलयन् जनान्/ विश्वकल्‍याणसद्भावपरिप्लावितमानस:/ अहिंसाधर्मरक्षायै स्‍याद्वादस्‍याभिगुप्तये/ विचरत्‍येव सर्वत्रावितुं जैनीं परम्‍पराम्/ सावधान: स्‍वचारित्रे संघचारित्रवीक्षणे/ आचार्यपदवीधृक्त्‍वात् सर्वेषां शीलरक्षणे/ प्रमाद्यति न हि स्‍तोकं गुप्तं नाद्रियते कृतम्/ दिगम्‍बरमुनेरस्‍य नास्ति गोपायितं क्वचित्/ कन्नड़ामरवाग्ग्रन्‍थानूदनेऽनुदिनं रत:/ आगमान् कुरुते नित्‍यं लोकपाठ्यान् ऋजून् अयम्/ श्रावका आद्रियन्‍तेऽस्‍य भाषितं विनयान्विता:/ अजैनाश्चैव जैनाश्च लोचनद्वितयी मुने:/ स्‍वयं राष्ट्रपति: श्रीमान् राधाकृष्‍णमहाशय:/ ढेबर:, पद्मजा, साहू:, विरलान्‍वयसत्तम:/ सर्वधर्मरति: श्रेष्ठै: गुणैर्मण्डितविग्रह:/ विश्वविश्रुतसत्‍कीर्ति: किशोरो युगलाह्वय:/ अन्‍ये नृपतय: केचित् परे कोटि धनेश्वरा:/ इतरे कृतविद्याश्च विद्वांस: श्रीमुनीश्वरम्/ उपासितुं यथावेलमुपसर्पन्ति प्रायश:/ सम्‍मर्दबहुले चास्‍य शुभावस्‍थानमन्दिरे/ काठिन्‍येन चिरेणाथ प्रविशन्ति महाजना:/ प्रसीदति यदा यस्मिन्नेष मूलगुणादरी/ तस्‍य शोका भयं पापां विशीर्यन्‍ते विनाचिरम्/ सम्‍पत्तिमान् भवेत् सद्य: कुशली बि‍बुधो भवेत्/ पुत्रपौत्रधनाढ्य: स निर्वृतिं प्राप्नुयात् क्षणे/ ऐहिकामुष्मिकान् विन्‍द्रत् सौभाग्‍यनिकरानसौ/ जिनेन्‍द्रपदभक्तिं च लभेत विमलाशय:/ ब्रह्मचर्यप्रभावत्‍वादेष सुदृढविग्रह:/ तत्‍वानुशासनध्‍यानात् क्षपिताशेष कल्‍मष: / अग्नितप्तहिरण्‍यस्‍य विशुद्धौ कस्‍य संशय:/ अशेषमलनिमुक्तस्‍फटिकाश्‍म-समुज्जवल:/ वन्‍दनीयोऽसि विश्वेषां ज्ञानचारित्रनिर्मल:/ सर्ववन्‍द्य: सदा साधुरष्टाविशगुणोत्तम:/ किन्‍तु दिग्‍वाससो यस्‍य न लवोऽपि गुणाग्रह:/ ...” अपिच,
‘श्री १०८ आचार्य-रत्न श्रीदेशभूषणमुनीश्वराणां स्‍तवनम्’– “वन्‍दामहे त्रिमणि सम्‍यगुदारदृष्टि-/ चञ्चद्गभस्तिचयचारिममञ्जुलास्‍यम्।/ श्रीदेशभूषणमुनीश्वरमर्क-तापं/ भव्‍यात्‍म-कञ्ज-वननोदन-केलि-चुञ्चुम्॥१/ चारित्र-दुर्गपथ-प्रस्थिति-पर्वताटं/ ज्ञानप्रकाशविमलीकृतहृत्‍कपाटम्।/ श्रीदेशभूषणगुरुं नमतानिशं हे!/ भव्‍या! जना:! स्‍वदितुमुत्तमवाक्किलाटम्॥२/ य: पापतापपरिपीडितमानवानां/ नित्‍यं समुन्‍दनकरो हिममातरिश्वा।/ पुण्‍यौघवारिनिधिगाहनकामुकानां/ सद्धर्मशोभनतरीव गुरुर्वरीयान्॥ ३/ दिग्‍वासस: प्रतिदिशं पदचारिणोऽथ/ भूशायिन: करपुटाशिन एकवारम्।/ तीक्ष्‍साासिधावनमिदं ननु युष्‍मदीयं/ आचार्यरत्न! चरितं चरतां हि गम्‍यम्॥ ४/ हित्‍वा परिग्रहप्रलोभनमानमाया/ जित्‍वा जगज्जयिमनोभवशौर्यतन्त्रम्।/ श्रीदेशभूषण! मुनीश्वर! घातिकर्म-/ व्‍यूहं भवान् विजयते परितोऽपि भङ्क्त्वा॥५/ सौम्‍य: प्रसन्नवदन: स्मितचारुभाषी/ दिव्‍यैर्गुणै: परिवृत: सम-सुस्‍वाभाव:/ सम्‍यक्त्वबोधविकलस्त्रिषु धर्मनेता/ श्रीदेशभूषण! भुनिप्रवर: प्रणम्‍य:॥ ६/ ध्‍यानानुयोगनिरत: सममित्र-शत्रु:/ सामायिकेऽध्‍ययनकर्मणि सावधान:।/ संघेन वेदगणितेन च सर्वलोकै-/ स्‍तोष्टूयमानचरणो मुनिराड् वरेण्‍य:॥ ७/ कल्‍याणकृत् शिवतनुर्जिनशासनस्‍य/ रक्षाव्रती परमवाक् भवभव्‍यगोप्ता।/ ‘श्रीदेशभूषण’ इति प्रथित: पृथिव्‍यां/ आचार्यरत्नमणिरेष सुखप्रदोऽव्‍यात्॥ ८/ दिङ्नाग: खलु वासनासरिदुदञ्चत् कामपङ्के रुहे/ सद्धर्माब्‍जकुमुद्वतीसुललित: शोभातडागोऽद्भुत:।/ नीरागो भवबन्‍धकारिकरणेषूद्भूतरागो जिने/ कल्‍याणाय स देशभूषणमहाभागोऽस्‍तु भव्‍यात्‍मनाम्॥९/ मिथ्‍यादृष्टिविलुम्‍पनैकनिपुणा यद्दिव्‍यवागंशव:/ सम्‍यग्ज्ञानचरित्रचारिमचणा: पादाब्‍जयो: पांसव:।/ व्‍यूढो येन जिनेन्‍द्रशासनलसत् सद्धर्म-नित्‍योत्‍सव/ आचार्यो भुवि देशभूषणमुनिर्भव्‍यान् समव्‍यात् स व:॥१०/ योऽन्‍धं सन्‍तमसं क्षिणोति जगतामादित्‍यतेजोऽन्वित:/ पीयूषेण गिरां चिरं स्नपयति प्रालेयभनु: पर:।/ अत्‍यर्थं कृपया दुरन्‍तविषयान् योऽपावृणीते नृणा-/ माचार्य: स हि देशभूषणमुनि: श्रेय: प्रदिश्‍यात् सताम्॥११...” (दिल्ली, दिनाङ्का: २९ अगस्‍त, १९६३)।
 
आप द्वारा रचित ‘श्रीविद्यानन्‍दमुनिस्‍तवनम्’ (आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज ने ऐलक श्री पार्श्‍वकीर्तिजी को दिगम्‍बर जैन मुनिपद की दीक्षा एवं ‘विद्यानन्‍द’ नाम दिया गया था)– “यश्‍चारित्रशिखामणिर्दिनमणीरागान्‍धपर्याटिनां/ स्‍याद्वादैकसृणिर्मदप्रतिनदन्नागाभप्रत्‍यर्थिनाम्।/ भव्‍यानां घुसृणी भवन्ति तिलकैर्यस्‍यांघ्रिसत्‍पांसवो/ ‘विद्यानन्‍द’मुनि: पुनीतवचनै: श्रेयांसि दिश्‍यात् स व:॥१/ योऽहिंसावृषधोरणी-विचकिलं पुण्‍योल्लसत् पुष्‍करं/ योऽनेकान्‍तसुराध्वगाहकुशलोऽखिन्नव्रत: पत्रिराट्।/ यो जन्‍मात्‍ययचक्रधिक्कृतभुव: पारेवनं गाहते/ ‘विद्यानन्‍द’मुनि: स निर्दहतु न: कल्‍माषराशिक्षपाम्॥२/ व्‍याधिर्विग्रहमावृणोति विकरोत्‍याधि: पुनर्मानसं/ सर्वत्‍यागपरायणस्‍य घटते नोपाधिवार्तापि च।/ इत्‍येवं स्‍वसमाधिसिद्धहृदयो वैरायते योऽन्‍वहं/ आधिव्‍याधिभिराधुनोतु दुरितं सानन्‍दविद्यो मुनि:॥३/ निर्दोषं कठिनं दिगम्‍बरमिदं चारित्रवेषं दधद्/ आत्‍मानं तुषमाषभेदविधिना यो वेत्ति देहात्‍पृथक्।/ सर्वारम्‍भ विवर्जितोऽपि कुरुते लोकस्‍य सच्छिक्षणं/ ‘विद्यानन्‍द’मुनि: स नि:स्‍पृहमणि: क्षोमाय कल्‍पेतन:॥४/ अष्टाविंशतिमूलसद्गुणगणैर्नक्षत्रमालाऽधिकं/ कण्‍ठे मौक्तिकमेव धारयति यो वैराग्‍यसद्भूषणम्।/ पाणौ भिक्षत आमृतं विरचयन् वाग्भिर्नवं निर्झरं/ ‘विद्यानन्‍द’मुनिर्दिगम्‍बरवनी-सत्‍वाग्रणी राजताम्॥५...”
 
प्रात: स्‍मरणीय ब्रह्मर्षि श्रीहरिहरानन्‍द ‘करपात्रि’जी महाराज के प्रति उद्गार व्‍यक्त करते हुए आपने लिखा है– “नित्‍यं यस्‍य नखच्‍दवि चरणया: श्रद्धानमन्‍मौलयो/ मन्‍यन्‍ते दशदिक्षुदीधितिकृतो दीपाङ्कुरान्नि‍र्मलान्।/ तं सारस्‍वतधामधन्‍यधिषणं भौमैकवाचस्‍पतिम्/ मान्‍यं श्रीकरपात्रिणं गुरुवरं वात्‍सल्‍यसिन्‍धुं नुम:॥ / अज्ञानान्‍धकनाशनैकनिपुणं साक्षाद् द्वितीयं शिवम्/ विष्‍णु नित्‍यसुदर्शनं श्रुतिमुखं यं सर्ववेदं विधिम्।/ जिष्‍णुं वादिजनौघजिष्‍णुमपरं ब्रह्मर्षिवर्यम् मुनिम्/ मान्‍यं श्रीकरपात्रिणं गुरुवरं वात्‍सल्‍यसिन्‍धुं नुम:॥/ वेल्लद्वारिदकान्ति चापि यमुनानीरं प्रभूताध्‍वरोद्-/ गच्‍छद्धूमचयेन येन गुणितं विश्वस्‍य सत्‍काम्‍यया।/ वीताघं कलिकालपक्षदहनं ज्ञानश्रियोर्जस्विनम्/ मान्‍यं श्रीकरपात्रिणं गुरुवरं वात्‍सल्‍यसिन्‍धुं नुम:॥/ ब्रह्मोद्येदन निराकुलेन तपसा स्‍वाध्‍यायसन्‍ध्‍याव्रतै-/ र्नित्‍यं सिद्घ्‍यति यस्‍य वश्‍यजगतस्‍तीव्रं नखाग्रं तप:।/ सत्‍कुर्वन् विदुषश्च य: क्षितितले धाराधिराजोऽपरो/ मान्‍यं श्रीकरपात्रिणं गुरुवरं वात्‍सल्‍यसिन्‍धुं नुम:॥”
 
जगद्गुरु शारदामठाधिपति श्रीअभिनवसच्चिदानन्‍द जी के प्रति आपने लिखा है– “श्रीरेतान् स्‍वजतं परिष्‍वजति वाक् पीयूषपूगाक्षरा/ अत्‍यर्थं कवय: स्‍तुवन्ति महिमा मेरूच्‍छ्रयं लङ्घते।/ भिक्षन्‍तेऽपि च भालपट्टलिखितं तेषां नरेन्‍द्रा: सदा-/ नम्रा ये जगता गुरोस्‍तव पदद्वन्‍द्वैकलालाटिका:॥/ वर्धन्‍तां दश दिक्षु दीधितिकृत: पादाङ्गुलीगर्भजा:/ सच्‍छनस्‍तव विद्रुमच्‍छविमुषो दीपाङ्कुरा निर्मला:।/ चित्‍वा यैर्विरजश्चिदामृतपथं यान्‍त्‍यध्‍वनीना: सुखं/ दान्‍तो दीर्घभवाटवीविचरणद्रा घीयसीं शृङ्खलाम्॥/ नन्‍दा-मानस-सिन्‍धु-हेम-बदरी-केदारनाथादिकान्/ दर्शं दर्शमुपैषि हर्षमधिकं तन्नाम्नि नैसर्गिकम्।/ तीर्था दैवतमन्दिराणि च यदि प्राप्तप्रतिष्ठा इहा/ धत्‍वं त्‍वं तनुषे श्रमेण सततं धर्मैकरक्षाव्रती॥/ स्‍वाध्‍यायेन निराकुलेन तपसा ब्रह्मोद्यसन्‍ध्‍याव्रतै:-/ मीनीषिे दुरितानि देव! तनुषे तीव्रं नखाग्रैस्‍तप:।/ विश्वस्मिन् विचरंश्च वैदिकजयध्‍वानं प्रतायाधिकं/ जल्‍पाकान् जिरिणोषि जीवयसि च श्रौती: प्रजा: सन्‍ततम्॥ यत्तेदर्शनमाप्‍यलाभि पदयो: किञ्जल्‍कसारं रज:/ तेपे तत् कठिनं तपो ननु मया जन्‍मान्‍तरे जातुचित्।/ तन्‍वन् धर्मकथापुराणनिगमान् धिन्‍वंश्च वेदां बुधा/ राम्‍भोभि: गुरुदेव! जीवय चिरं सौभाग्‍यराशिं नृणाम्॥” (‘श्रीअभिनवसच्चिदानन्‍दतीर्थस्‍वामीविजयतेतराम्’ इति आद्याक्षरगुम्‍फ: श्लोकेषु निवेशित: सुधियां मुदे मया। दिनाङ्का: ०६ नवम्‍बर, १९६३)
 
जयपुर प्रवास के समय मुनि श्रीचन्‍दनमलजी के प्रति आप द्वारा लिखा गया विनयगीत– “मुनिवर! त्‍व पदयो: प्रणमामि!/ नामं नामं निजं मस्‍तकं मानवजन्‍म-पुनामि॥/ त्‍वं भवाम्‍बुनिधितितीर्षावतां प्लव: कोऽपि विश्वस्‍य:।/ गुप्तिसमितिव्रतत्रयोदशीनां कृतसम्‍यग् वरिवस्‍य:।/ भवभ्रंशपटुपदपांसुं ते नाथ! शिरसि लिम्‍पामि॥१/ तनुरन्‍या पृथगात्‍मा पुंसां द्विदलशल्‍कमिव सत्‍यम्।/ एकं मनुते मूढे मर्त्‍यो हा! कीदृग् वैमत्‍यम्।/ भेदज्ञानकुठारं लब्‍ध्वा भवशालं छिन्‍दामि॥२/ सुधामाधुरीमधरीकुरुते परिणतिपुणया गीस्‍ते।/ आध्‍यात्मिकसन्‍मार्गदर्शने तपस: परावधिस्‍ते।/ रत्नदीपकलिकामिव तामहमधिहृदयं न्‍यस्‍यामि॥३/ असिधारेव दुर्गम: पन्‍था दशधर्मावच्छ‍िन्न:।/ त्‍वया हेलयैवात्‍मसाधनाव्रजिष्‍णुनाऽसौ विन्न:/ परिमिततरवागञ्जलिना ते यश: कियद् गृह्णामि॥४/ रत्नत्रितयसमाहित! भवत: पदयोर्मणय: कीर्णा:।/ चतुर-शीति-भवविभ्रम-नृपतेर्मुकुटावलिर्विशीर्णा।/ ‘सुधाकरो’ऽप्‍यहमत्र शाश्वतीं सुधां मुने! मृग्‍यामिङ्का॥५” (जयपुरे, दिनाङ्का: २७ नवम्‍बर, १९६५)। अपि च, श्रीचन्‍दनमाहात्‍म्‍यम्– “स्‍पृष्ट: स्‍पर्शमणि: करोति कनकं लोहम्‍पुन: कामधुक्/ कल्पद्रुश्च निषेवितेन जगतीत्‍याभाणकं श्रूयते।/ त्‍वं दूरादपि लोकित: प्रवचनेष्‍वद्धापि सम्‍भावितो/ यच्‍छ्रेय: श्रियमाजुहोषि जगतां तच्चन्‍दनात्‍यद्भुतम्॥१/ एके सन्ति नभोलिहालयवरैराढ्यत्‍वभाजो/ चैके त्र्यम्‍बकमित्ररिक्थसजुष: सम्‍मानकोटिस्‍पृश:।/ किन्‍त्‍वेतत्तव चित्रणीयमतितन् माहात्‍म्‍यमास्‍ते ध्रुवं/ यत् कौपीनभृताप्‍यवापि जगतां मौलौ पदं चन्‍दन!॥२/ पद्भ्‍यामेव विगाहते ननु गृहं लोकोऽपि हेमाद्रितं/ पाणिभ्‍यां च तृणीकरोति बहुशो लक्ष्‍मीं श्रमोपार्जिताम्।/ पाटीरं स करोति भाललिखितं सम्‍मानभाजां गुरुं/ तत् किं चन्‍दन! तावकं न प्रसरत्‍सौरभ्‍यलभ्‍यं यश:॥३/ नारङ्गाम्रगुवाकलाङ्गलितृणवृक्षा: कियन्‍तो न ये/ लोकेभ्‍यो ददते फलानि समये स्‍वादूनि पक्वानि च।/ सौरभ्‍येण गुणेन पार्श्वविटपिष्‍वामूलचूलं विश-/ न्नात्‍मौपम्‍यधियैक एव भुवने लोकम्‍पृणश्चन्‍दन:॥४” (जयपुरे, दिनाङ्का: २७ नवम्‍बर, १९६५)।
 
श्रीमतामष्टोत्तरसहस्रश्रीविभूषितविभूतिपादानां विश्वशरण्‍यानां लोकगुरुणां श्रीमज्गोवर्धनपीठशङ्कराचार्याणां श्रीनिरञ्जनदेवपादानां चरणयोरिदम्– “यस्‍याम्‍भोजदलामलच्‍छविमुषौ पादौ प्रशस्‍तौ नृणां/ चे तो भूमिषु कुङ्कुमाङ्कि‍तमही-सौन्‍दर्यसामाजिकौ।/ श्रीगोवर्धनपीठपाय गुरवे विश्वस्‍य तस्‍मै शतं-/ नम्रा: सन्नतयो भवन्‍तु सततं श्रेय: प्रबोधाय न:॥/ योऽयंस्‍तत्र भवान् सुवैदिकसुधाकासारसौगन्धिकाम्/ दीव्‍यच्‍छीतनभोमणि: कुवलयप्रोल्लासने पण्डित:।/ दिग्भ: सूर्य इवोत्‍सुकैर्जनगणैरभ्‍यर्थित: सादरं/ प्रव्‍यक्तश्रुतिसारकोटिकिरणभ्राजिष्‍णुवाग् वर्तते॥/ धर्म: सञ्चरतीव पुण्‍यमटतीवेन्‍दु: पृथिव्‍यास्‍तलं/ साक्षात् संस्‍पृशतीव तिग्‍मकिरणां ज्‍यामञ्चतीव स्‍वयम्।/ शीलं सर्पति प्राणितीवशुचिता भूयस्‍तप: प्रीयतं/ देवस्‍यास्‍य निरञ्जनस्‍य चरणच्‍छायासु रात्रिन्दिवम्॥/ मूकस्‍त्‍वं रमणीविलासविषयव्‍याहारवाग् विस्‍तरे-/ जात्‍यन्‍ध: परदोषदर्शनविधौ पङ्गुर्वृशोलङ्घने।/ वाग्‍मी किन्‍तु भृशं श्रुतान्वितकथालापेषु नेत्री गुण-/ ग्राहे लोकमनोवशंवदविधौ देवाद्वितीयो ध्रुवम्॥/ नास्तिक्‍यं मृतिमापपापनिवहो देहं जहौ जिह्नता/ जीर्णा कर्णपराम्‍परास्‍ववसिता दुर्दिष्टदु:स्‍था स्थिति:/ त्‍वां दृष्ट्वा जगतां गुरो! ननु नृणां याता दिवं दुर्गति:/ कल्‍याणं च सहस्रपत्रविलसत् सौभाग्‍यधन्‍यं बभौ ॥/ पीयूषं स्‍वदितं सिता निगलिता द्राक्षा नु साक्षात्‍कृता/ गीर्णं देवधुनीपुनीतसलिलं दुग्‍धा भृशं कामधुक्।/ आचार्यस्‍य विभाव्‍यकर्णयुगलासन्‍दीभवद् भाषितं/ क्षीराम्‍भोधिनिमन्‍थनोत्‍थमखिलं जग्‍धं विदग्‍धं सुखम्॥/ आसक्तिर्गृहमेधिनामुपचितिर्भूर्य: परिग्राहिणाम्/ संसर्गो जनसंसदश्च धनिनां लिप्‍साविलेपोऽवर:।/ द्वन्‍द्वं योगवियोगयोर्युगपदेवोत्‍सादितं साधना/ मार्गे सञ्चरता त्‍वया भवगुरो! कल्‍याणसंकल्पिना॥” (दिनाङ्का: ०१ मार्च, १९६६)
राजकुमारी अमृत कुंवर के पाणिग्रहणोत्‍सव पर आपने लिखा था– “नित्‍यं खादतमोदतामि रयितं यस्‍या: कलं शैशवं/ जानीते न पदं निधातुमथवा या देहलीग्रावणि।/ खिद्येन्‍मा कर इत्‍यवेत्‍य न मया दत्तं हियस्‍ते श्रम:/ तस्‍या: पाणिसरोजपीडनमिदं भाग्‍यायजज्ञेतराम्॥१/ जाते, मा श्वसितं विधेहि तनया न्‍यासं परेषां सदा/ तस्‍मात् प्राप्नुहि शीलनीतिविनयाचारै: शुभाशंसनम्।/ नित्‍यं प्रातरुदीष्‍णु बालदिनकृद्वामाङ्गना श्रीजुषम्/ सौभाग्‍यं तव जायतां सुरपते: पत्न्‍यापि लोकोत्तरम्॥२/ यस्‍या आलपितुं पुरा पदनखै: क्षोणी विशन्‍त्‍या इस/ व्रीडामन्‍थरवाचिकानि कथमप्‍याविर्भवन्ति क्षणम्।/ जामातु: करवारिजे निगडिता सेयं हि किञ्जल्किनी/ मन्‍ये, सद्गुणसौरभेण जगत: कान्‍तार मामोदयेत्॥३” (सीकरे, दिनाङ्का: २२ जनवरी, १९५१)
 
श्रीजुगलकिशोरजी बिरला की उदारता से आप अत्‍यन्‍त प्रभावित थे। उनके प्रति आपने लिखा है– “विश्वस्मिन्नधुना सनातन तपोवृत्त्यैकबद्धादरो/ रक्षस्‍यार्यजनान् नियोज्‍य नियतं पुण्‍यस्‍य दूरध्‍वनि/ लाक्षारञ्जि‍तचारुकञ्जचरणा कापि प्रकृत्‍यारूणा/ मङ्गल्‍या जननी पुनातु युगलत्‍वत्‍कामवाङ्मानसा/ श्रीवैकुण्‍ठपदाम्‍बुजन्‍मयुगलीमाकन्‍दपीयूषिकाम्/ युक्तोय: पिबतिश्वरार्पितमनोवाक्कायविश्वेन्द्रिय:/ गङ्गाभ्‍य: परिपू‍तकीर्तिधवलो यो राजहंसोऽपर:/ लक्ष्‍मीवान् विरलावटङ्कललितो जीयात् सहस्रंसमा:।” श्रीजुलकिशोर बिरलाजी की माता पूज्‍य श्रीमती जोगेश्वरीजी बिरला के निधन से आप अत्‍यन्‍त व्‍यथित हुए और श्रद्धासुमनाञ्जलि अर्पित करते हुए आपने लिखा था– “नित्‍यं शम्‍भुजटाटवीगलदपां पूरे सुखं स्नायिनी/ नित्‍यं श्रीभगवत्‍पदार्चनरता पुण्‍यौघविस्‍तारिणी/ नित्‍यं दीनजनानुकम्पिहृदया साक्षाद् विपत्तारिणी/ याता सा त्रिदिवालयं भगवती ‘जोगेश्वरी’ पालिनी/ यस्‍या द्वारमुपेत्‍य कोऽपि न कदाचिद् रिक्तपाणिर्गतो/ नाभूत् कोऽपि समीहिता व्‍यवसिते विद्वान् सम्मानिता:/ निर्वस्त्रा वसनानि, भोजनसुखं तीव्राशनायार्दिता:/ छत्रं कम्‍बलमासनं न शतशो यत्राधिजग्‍मुर्नरा:/ ‘रानीमां’ अवलम्‍बनं सुविदिषां, धात्री विनाथार्थनाम्/ अन्नक्षेत्रमुखेन सत्‍यमभवत् मातान्नपूर्णा नृणाम्/ मातस्‍त्‍वां विरहय्य कोविदकुलं रोदिष्‍यते यच्चिरं/ मंस्‍यते बहवो हि दीनमनुजा नूनं विनाथा इव/ यत्‍सत्‍यं जननीमृताद्य भवती या पालयित्रीनृणां/ प्रायोऽपत्‍यकुलेषु प्रीतिललिता अन्‍यजनन्‍यो यत:/ नाभूत् श्रीबलदेवदासविरलातुल्‍यो दयालुर्नृणाम्/ ‘रानीमां’ सदृशी श्रुता न हि पुरा मातन्नपूर्णा परा/ नो दृष्टो विरलान्‍ववायविरलो दाक्षिण्‍यभूक्ष्‍यापति:/ आकल्‍पं स्थिरयस्‍तु कल्‍पलतिकालीलं यश: श्रीमताम्/ सन्ति स्‍वीयतनूद्भवावनपरा: किं नो जनन्‍यो गृहे-/ ष्‍वेकैवत्‍वमभू: पर: शतसहस्त्राणां नृणाम्बिका/ यावज्जीवनमेव या प्रतिकलं स्नेहप्रपूरानिव/ सद्दानाञ्जलि धारया करुणया प्रावाहयत् प्रत्‍यहम्।...”
 
श्रीमान् राजेन्‍द्रप्रसादजी राष्ट्रपति महोदय के प्रति आपने लिखा है– “यं वीक्ष्‍यैव सदाशयत्‍वसरलत्‍वौदार्य गाम्‍भीर्यसत्-/ वृत्तित्‍वौ कविबन्‍धनास्‍फुरदिव प्रत्‍यक्षमात्‍मछवि:। राजेन्‍द्र: सजगाम हन्‍त! मुषिता: कालेन सर्वेवयम्/ आद्योराष्ट्रपति: विशिष्‍यं चरमो गांधीयुगीनो जनो॥” श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार (कल्‍याण-गोरखपुर) के प्रति अपनी भावनाएँ व्‍यक्त करते हुए एक स्‍थान पर आपने लिखा है– “सिंचन् यज्ञिय जीवनेन सततं कल्‍याणकल्‍पद्रुमं, चिन्‍वन् न च्‍युतचक्रपाणिचरणार्चारु चिन्‍तामणिम्। सत्‍साहित्‍य सुरापगाच्‍छसलिलं स्‍वैरं सलीलं पिबन्, जीया: श्रीहनुमत्‍प्रसाद, सकृतिन्! पोद्दारवंशागुणी:।” ‘कादम्बिनी’ मासिक हिन्‍दी पत्रिका के सम्‍पादक श्री रामानन्‍द दोषीजी के हिन्‍दी-भाषा के प्रति समर्पण को हुए आपने लिखा था– “ऐकात्‍म्‍यं विसरीसरीतुलगतां निर्वास्‍य युद्धस्‍पृहां, सिद्धा: सन्‍तु मनोरथ विजयिनी हिन्‍दीचिरञ्जिवतु। सिंचन्‍ती भुवि जीवनं सहृदयानामस्‍य सन्‍ती पदे, आकल्‍पं कवि नूतनाम्‍बुदम्‍भी कादम्‍बी वर्षतु।” श्रीमान् वियोगी हरिजी के प्रति आपने लिखा है– “काव्‍यश्रीललिताक्षर: सुमनसां नामापहारी/ नित्‍यं य: सुमना: मनाक् सुमनसां मानापहारीमहान्। ...” अन्‍यत्र और भी– “रहे वियोगी हरि, पत्नी मिली चञ्चला/ हुई ‘त्‍वदीयं वस्‍तु’ – वाक्‍य की कुछ सार्थकता।...”
 
मेरठ प्रवास के समय जब मुनि श्रीविद्यानन्‍दजी महाराज से एक वार पुन: मतभेद हो गया था और अहर्नि‍श लेखन कार्य में डूबे रहने के कारण आप रुग्‍ण हो गये थे, उस समय श्रीमान् डा. उमाशंकरजी त्रिवेदी (एक्‍स-रे विशेषज्ञ, खैरनगर, मेरठ) ने आपकी अतीव सहायता की थी। डा. त्रिवेदीजी के प्रति अपनी कृतज्ञता व्‍यक्त करते हुए आपने लिखा था– “चित्ते चारुतर: कृतौ वरतर: वाचासु मिष्टाधर:, सच्चरित्रो सरोऽवतीर्णसुमन: सम्मोदकृत् पुष्‍कर:। नानारोगनिवारणे पटुतर: सत्‍कीर्तिभूद् डाक्‍टर:, भूयान् मङ्गलमञ्जुजीवनधर: श्रीमानुमाशङ्कर:।”
 
आपकी आर्थिक विपन्नावस्‍था अनेक स्‍वनामधन्‍य मूर्धन्‍य लोकविश्रुत साहित्‍यकारों, गांधीवादियों और अपरिग्रही मुनियों के लिए सँजीवनी सिद्ध हुई, जो अत्‍यल्‍प धन देकर ‘लेखनी आपकी नाम हमारा’ का दुकूल समय-समय पर ओढ़ते रहे और अपनी यशच्चन्द्रिका को विस्‍तारित करते रहे। आपकी व्‍यथा ‘मुसकान कहाँ से लाऊँ मैं’ नामक शीर्षक से लिखी गई कविता की निम्नलिखित पङ्क्त‍ियों में भी व्‍यक्त हो रही है–
इस शूल भरे जीवन पथ में/ हँसने के मेरे भाग कहाँ
आँसू से पंकिल धरती पर/ रोदन भर से अनुराग रहा
सबकी देहली चूमी, सबके/ इंगित पर पुतली नाच किया
अश्‍क़ों की शबनम में मंढकर/ सबके आगे दृग काँच किया
युग रीझ सके जिस स्‍वर गति पर/ वह गान कहाँ से लाऊँ मैं
अधरों की फटी बिवाई पर/ मुसकान कहाँ से लाऊँ मैं
 
सरस्‍वती और लक्ष्‍मी का क्रीडा-कौतुक श्रमिक और पूँजीपति के सम्‍बन्‍ध से इतर नहीं है, यह तो भुक्तभोगी ही जान सकता है। समय और परिस्थितियाँ क्‍या कुछ नहीं करवाती? आप लेखन-कार्य में इतने लीन हो जाते थे कि आपको रात्रि-दिवस, पान-भोजन, शयन-गमन का भी कोई भान नहीं रहता था। आपने अपनी इस अवस्‍था का वर्णन करते हुए एक स्‍थान पर लिखा है–
श्रान्‍त लेखनी को जब-जब छोड़ा निद्रा मुकुलित होकर
जगा दिया इन सुभग पदों ने, नवोन्‍मेष को दे ठोकर
निद्रा कहाँ, कहाँ गमनाशन, पान-विनोदों के अवसर
नवोन्‍मेष का अव्‍याहत क्रम, नूतन सर्ग ललित विस्‍तर
एक एक कर अदृश्‍य होते, पूर्व-मध्‍याह्न-सायाह्न समय
घिरते घोर तिमिर में खो-खो जाते अवसर के मणि-प्रचय
 
गहन अर्थाभाव से ग्रस्‍त होते हुए भी अविचलित भाव से माँ भारती की अहर्नि‍श आराधना में रत रहे इस महान् साहित्‍याराधक का उत्तर प्रदेश राज्‍य के मेरठ नगर में मात्र ४४ वर्ष की अल्‍पायु में १२ जुलाई, सन् १९७० ईस्‍वी को अपने पीछे पत्नी श्रीमती मायावती शर्मा एवं पुत्रों (श्री बालकृष्‍ण शर्मा, श्री सुरेश कुमार शर्मा और श्री राजेश कुमार शर्मा) तथा साहित्‍य रूपी विपुल अक्षत सम्‍पदा को छोड़कर परलोकगमन हो गया।
 
आप द्वारा विरचित संस्‍कृत भाषा और हिन्‍दी भाषात्‍मक साहित्यिक रचनाओं का वर्गीकरण अग्रलिखितानुसार किया जा सकता है–
संस्‍कृत भाषात्‍मक रचनाएँ (अप्रकाशित)
(अ) महाकाव्‍य:
१. रत्नोदयं महाकाव्‍यम्
२. उत्तरनैषधं महाकाव्‍यम्
३. श्रीतुलसीयशस्तिलकं महाकाव्‍यम्
४. श्रीरामभक्तिकल्लोलिनी महाकाव्‍यम्
५. श्रीशिवराजविजय महाकाव्‍यम्
६. द्रौपदी महाकाव्‍यम्
७. कविकुलसंवर्द्धनं महाकाव्‍यम्
(आ) नाटक:
१. दूतमाधवम् (वर्ष १९९५ में राजस्‍थान संस्‍कृत अकादमी, जयपुर द्वारा प्रकाशित)
२. पिनाकभञ्जनम्
३. आचार्य पर्शुराम:
४. सुदाम्नश्चरित्रम्
५. जानकी परिणय:
६. कर्णप्राभृतम्
(इ) शतक काव्‍य:
१. श्रीरमावैकुण्‍ठस्‍तुतिशतकम्
२. श्रीअम्‍बाशतकम्
३. श्रीचण्‍डीशतकम् (वर्ष २०१६ में राजस्‍थान संस्‍कृत अकादमी, जयपुर द्वारा प्रकाशित)
४. श्रीशम्‍भुशतकम् (वर्ष २०१६ में राजस्‍थान संस्‍कृत अकादमी, जयपुर द्वारा प्रकाशित)
५. श्रीसरस्‍वतीशतकम्
६. ऋतुप्रबन्‍धशतकम्
७. सूक्तिशतकम्
(ई) स्‍तोत्र:
१. श्री वाणीपुष्‍पाञ्जलि:
२. श्रीसरस्‍वतीस्‍तोत्रम्
३. श्रीवागीश्वरी महास्‍तोत्रम् (वर्ष २०१६ में राजस्‍थान संस्‍कृत अकादमी, जयपुर द्वारा प्रकाशित)
४. श्रीवाग्विभूतिपञ्चाशिका
५. श्रीजिनेश्वरस्‍तोत्रम्
६. अहिंसा पञ्चदशी
(उ) प्रकीर्ण ग्रन्‍थ:
१. सती किरण कौतुकम् (खण्‍ड काव्‍य)
२. अथ प्रकीर्णश्लोकावलि:
३. अनुष्टुप् प्रस्‍तारोदाहरणानि
४. कोयं विधि:¬? (समस्‍यापूर्तय:)
५. राजस्‍थानस्‍य कतिचन तीर्था: मन्दिराणि च
६. अमरपदसूक्तिसुधाकर: (अमरकोषस्‍थपदावलिमाश्रित्‍य प्रणीत: सूक्तिसन्‍दर्भमहाकोष:) रचना वर्ष १९६६
(ऊ) दूतकाव्‍य:
१. श्रीहनुमद्दूतम्
(ऋ) सुभाषित काव्‍य:
१. सुभाषितानि
२. सुधासूक्तिसन्‍दोह:
३. सुभाषितसुधासप्तशती
४. सूक्ति सुधाकर:
(ॠ) व्‍याकरण शास्त्र:
१. महाभाष्‍य शब्‍दावलि:
हिन्‍दी भाषात्‍मक रचनाएँ (अप्रकाशित)
(अ) महाकाव्‍य:
१. देवव्रत-गांगेय-भीष्‍म महाकाव्‍य
२. जानकीहरण महाकाव्‍य (वैदेही महाकाव्‍य)
३. वैदर्भी महाकाव्‍य
(आ) खण्‍ड काव्‍य:
१. आचार्य चाणक्‍य (खण्‍ड काव्‍य)
२. लौटे जसवन्‍त विजय खोकर (खण्‍ड काव्‍य)
३. प्रभावती का मान (खण्‍ड काव्‍य)
४. आम्‍भीक की दुरभिसन्धि (खण्‍ड काव्‍य)
(इ) प्रकीर्ण:
१. श्रीमद्भगवद्गीता : एक परिशीलन
२. तुलसीदास (समीक्षा-सार)
३. कबीर (समीक्षा-सार)
४. सूरदास (समीक्षा-सार)
५. निबन्‍ध सागर (विभिन्न विषयों पर लिखे गए निबन्‍धों का संग्रह)
६. युगान्‍त अमर कवीश्वर है (कविता संग्रह)
(ई) शब्‍दकोष:
१. शब्‍द सागर
 
हिन्‍दी भाषात्‍मक रचनाएँ (प्रकाशित)
१. शान्ति की शपथ (भारत गणराज्‍य के प्रथम प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू जी को उनके ६७वें जन्‍मदिवस पर भेंट किया गया कविता-संग्रह)
२. आचार्य देशभूषणजी महाराज स्‍तुति-पदावलि
३. ‘अध्‍यात्‍मपदावलि’ (तेरापंथी जैन मुनि श्रीचन्‍दनमलजी महाराज द्वारा विरचित रचना का सम्‍पादन एवं भूमिका लेखन, जयपुर में सम्‍पन्न)
४. विवाह का उत्तरदायित्‍व (लघु पुस्तिका)
५. इन्‍द्रधनुष (बाल कविताएँ, सन् १९६९ में भारत भारती प्रकाशन, मेरठ द्वारा प्रकाशित तथा श्रीमती शकुन्‍तला सिरोठिया पुरस्‍कार, इलाहाबाद द्वारा पुरस्‍कृत – मरणोपरान्‍त)
 
उपर्युल्लिखित ज्ञात कृतित्‍व के अतिरिक्त आप द्वारा विभिन्न विधाओं पर असंख्‍य सारगर्भित लेख, गीत, कविताएँ, शताधिक संस्‍कृत-हिन्‍दी ग्रन्‍थों की भूमिकाएँ, लोक-विश्रुत और लोक-विस्‍मृत (ज्ञाताज्ञात) अनेक साहित्‍यकारों का जीवन-परिचय और उनका कृतित्‍व इत्‍यादि लिखे गए हैं, जिनमें से अनेक रचनाएँ आपके जीवनकाल में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं यथा: ‘संस्‍कृत रत्नाकर’ (कुछ कालावधि तक इसका सम्‍पादन-कार्य भी किया), ‘प्रजा बन्‍धु’ (सीकर से प्रकाशित साप्‍ताहिक पत्रिका का सम्‍पादन कार्य भी किया), ‘सरस्‍वती’, ‘भारती’, ‘कादम्बिनी’, ‘सरिता’, ‘नवनीत’, ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्‍दुस्‍तान’, ‘दैनिक हिन्‍दुस्‍तान’, ‘नवभारत टाइम्‍स’ आदि में प्रकाशित होती रही हैं। आपके अनेक संस्‍कृत गीत आपकी ही वाणी में आकाशवाणी, जयपुर से भी प्रसारित हुए हैं।
 
लेखन-कार्य के प्रति अपने अनन्‍य अप्रतिम समर्पण-भाव को भाव को व्‍यक्त करते हुए आपने एक स्‍थान पर लिखा है– “मैंने अपने ऐहिक आकस्मिक तप से काव्‍य गङ्गा को प्रसन्न किया है। उसका अविरल प्रवाही स्रोत मेरे मानस में उतर गया है, उतर रहा है, जिस प्रकार शिव के मस्‍तक पर भागीरथी। मैं धन्‍य हो गया हूँ, इस भव में और भवान्‍तरों में। आशा करता हूँ, निकट भविष्‍य में ‘वैदर्भी महाकाव्‍य’ प्रकाशित करवा दूंगा। तब, संस्‍कृत के तथा हिन्‍दी के गद्य को सँवारूंगा। माँ दुर्गा मुझे शक्ति दे कि मैं चिन्‍तन की धारा को आसमुद्र ले जा सकूँ, जिसमें गहराईयाँ हैं और नारायण का पदस्‍पर्श भी।” अपिच, “डूबे हुए बोलते नहीं, मैं बोल रहा हूँ। इससे लगता है अभी पूरा डूबा नहीं। पर, डूबने की ओर हूँ। अभी तो डूबने का कौतूहल है न, थोड़े गहरे में जाकर ऊपर आ जाता हूँ और घाट पर खड़े हुओं को सूचना देता हूँ कि पानी अभी और गहरा है। देखूं, पूरी गहराई तक डूबकर, वहॉं कितने हीरे हैं, कितने मोती। चमक तो अभी चौंधिया दे रही है। उसीके उजाले में उसीको पाने के लिए डूबा जा रहा हूँ। इस डूबने का आनन्‍द कोई डूबकर देखे।”
 
सांसारिक बाधाऍं आपको जीवन-पर्यन्‍त व्‍यथित करती रहीं। आर्थिक विपन्नता, यश की लालसा में सुहृद् बनकर पग-पग पर ठगने वाले वकरूपी वञ्चकों से बारम्‍बार आघात पाकर भी आपका रचना-धर्म, रचना-कर्म एकान्‍त साधना के रूप में अनवरत चलता रहा। अनेकानेक लब्‍ध प्रतिष्ठित साहित्‍यकारों और लोक-वन्दितों ने आपकी लेखनी पर अपना प्रकाश (कीर्ति) स्‍तम्‍भ खड़ा किया, किन्‍तु परिवार के साथ जीवनयापनार्थ आर्थिक विवशतावश आप यह सब सदैव मौन सहते रहे। आपकी वेदना के स्‍वर आपके काव्‍य में भी यत्र-तत्र अनायास ही प्रस्‍फुटित हो उठे हैं। यथा: “अद्यावधि त्‍वां मनसा स्‍मरन्‍त:/ किन्त्वद्य वाचा परिकल्‍पयाम:/ क्व सत्‍यलोप: कविभारतीषु-/ क्षुधातृषार्ता जननीं स्‍मरन्ति/ नैवावधत्तं यदि हा! त्‍वयापि/ कीर्तिं-धनं-भूमिमथो निवास-/ स्‍थानानि पुत्राय पिता प्रदत्ते/ अहं तु मन्‍ये, यमधाम गच्‍छन्/ मात्रं घनीभूतशुचां प्रदाता/ न भूमिरावासगृहं न वित्तं/ लक्ष्‍मीविहीनस्‍य कुतोऽत्र कीर्ति:/ इतीव सर्वत्र पराजितात्‍मा/ कदाचिदेषां स्‍मृति विस्‍मृत: स्‍याम्/ दष्टो भुजङ्गेन महाविषेण/ कथं चिदुल्लङ्घ्ययमस्‍य वेलाम्/ प्रत्‍यागत: पञ्चवर्षकालात्/ ग्रस्‍त: प्रमेहेण तथा क्षयेण।” अन्‍यत्रापि–
समासन्ना सन्‍ध्‍या कवलमपि बन्‍ध्‍यायितमहो
विपाक: क्रूराणां फलति न तु पाकं रसवती
तवैवच्‍छायायां प्रतिकलमुपागम्‍य वसतां
दुरारोहावाप्ति: फलविषयिका हन्‍त! विषमा
क्षुधार्ता वेपन्‍ते सरलशिशवो, रुग्‍णगृहिणी
मुहुर्भेषज्‍यार्थ मम प्रतिगतं पश्‍यति चिरात्
कृतेऽकृत्‍ये दृष्टिं परिभृत विवेकां विदघ्‍नो-
ऽष्‍वहो! मे दौर्भाग्‍यं द्रढयति कुतो जीवनरस:
 
सत्‍यमेतद्, सरस्‍वत्‍याराधकों ने सर्वदा अभावग्रस्‍त रहते हुए भी अपने सारस्‍वत्‍याराधना का त्‍याग नहीं किया और संसार को अपनी अजस्र लेखनी से पीयूषपान कराते रहे। भले ही उन्‍होंने ‘स्‍वान्‍त: सुखाय’ लिखा हो, किन्‍तु लोक और लोकमानस ने भी छककर उस अमृत-निर्झरी का पान किया है। गोस्‍वामी तुलसीदासजी पर्णकुटी में रहते हुए ‘रामचरितमानस’ की रचना में देह की सुधबुध खोकर ‘राममय’ हो गये, किन्‍तु उनकी रची ‘रामायण’ को बॉंचने वाले भव्‍य अट्टालिकाओं में रहकर ‘रागमय’ हो ‘चिर-तारुण्‍य’ की साधना कर रहे हैं।
 
=== Usage ===