"अष्टाध्यायी": अवतरणों में अंतर

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'''अष्टाध्यायी''' (अष्टाध्यायी = आठ अध्यायों वाली) महर्षि [[पाणिनि]] द्वारा रचित [[संस्कृत]] [[व्याकरण]] का एक अत्यंत प्राचीन ग्रंथ (५०० ई पू) है। इसमें आठ अध्याय हैं; प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं; प्रत्येक पाद में 38 से 220 तक [[सूत्र]] हैं। इस प्रकार अष्टाध्यायी में आठ अध्याय, बत्तीस पाद और सब मिलाकर लगभग 3155 [[सूत्र]] हैं। अष्टाध्यायी पर महामुनि [[कात्यायन]] का विस्तृत वार्तिक ग्रन्थ है और सूत्र तथा वार्तिकों पर भगवान [[पतञ्जलिपतंजलि]] का विशद विवरणात्मक ग्रन्थ [[महाभाष्य]] है। संक्षेप में सूत्र, वार्तिक एवं महाभाष्य तीनों सम्मिलित रूप में ''''पाणिनीय व्याकरण'''' कहलाता है और सूत्रकार पाणिनी, वार्तिककार कात्यायन एवं भाष्यकार पतञ्जलिपतंजलि - तीनों व्याकरण के ''''त्रिमुनि'''' कहलाते हैं।
 
अष्टाध्यायी [[वेदांग|छह वेदांगों]] में मुख्य माना जाता है। अष्टाध्यायी में 3155 [[सूत्र]] और आरंभ में वर्णसमाम्नाय के 14 [[प्रत्याहार]] सूत्र हैं। अष्टाध्यायी का परिमाण एक सहस्र [[अनुष्टुप श्लोक]] के बराबर है। [[महाभाष्य]] में अष्टाध्यायी को "सर्ववेद-परिषद्-शास्त्र" कहा गया है। अर्थात् अष्टाध्यायी का संबंध किसी [[वेद]]विशेष तक सीमित न होकर सभी वैदिक संहिताओं से था और सभी के प्रातिशरूय अभिमतों का पाणिनि ने समादर किया था। अष्टाध्यायी में अनेक पूर्वाचार्यों के मतों और सूत्रों का संनिवेश किया गया। उनमें से शाकटायन, शाकल्य, अभिशाली, गार्ग्य, गालव, भारद्वाज, कश्यप, शौनक, स्फोटायन, चाक्रवर्मण का उल्लेख पाणिनि ने किया है।
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== परिचय ==
[[पाणिनि]] ने [[संस्कृत]] भाषा के तत्कालीन स्वरूप को परिष्कृत एवं नियमित करने के उद्देश्य से भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों यथा ध्वनि-विभाग (अक्षरसमाम्नाय), नाम (सञ्ज्ञासंज्ञा, सर्वनाम, विशेषण), पद, क्रिया, वाक्य, लिङ्गलिंग इत्यादि तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों का समावेश अष्टाध्यायी के 32 पादों में, जो आठ अध्यायों में समान रूप से विभक्त हैं, किया है। <br />
[[व्याकरण]] के इस महनीय ग्रन्थ में पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग 4000 सूत्रों में किया है, जो आठ अध्यायों में संख्या की दृष्टि से असमान रूप से विभाजित हैं। तत्कालीन समाज में लेखन सामग्री की दुष्प्राप्यता को ध्यान में रखकर पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है। पुनः, विवेचन को अतिशय संक्षिप्त बनाने हेतु पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से प्राप्त उपकरणों के साथ-साथ स्वयं भी अनेक उपकरणों का प्रयोग किया है जिनमे '''शिवसूत्र''' या [[माहेश्वर सूत्र]] सबसे महत्वपूर्ण हैं। प्रसिद्ध है कि महर्षि पाणिनि ने इन सूत्रों को देवाधिदेव शिव से प्राप्त किया था।
 
:'''नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।नवपंचवारम्।'''
:'''उद्धर्त्तुकामो सनकादिसिद्धादिनेतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्॥'''
 
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पाणिनि ने अष्टाध्यायी में प्रकरणों तथा तद्सम्बन्धित सूत्रों का विभाजन वैज्ञानिक रीति से किया है। पाणिनि ने अष्टाध्यायी को दो भागों में बाँटा है: प्रथम अध्याय से लेकर आठवें अध्याय के प्रथम पाद तक को '''सपादसप्ताध्यायी''' एवं शेष तीन पादों को '''त्रिपादी''' कहा जाता है। पाणिनि ने '''पूर्वत्राऽसिद्धम् (8-2-1)''' सूत्र बनाकर निर्देश दिया है कि सपादसप्ताध्यायी में विवेचित नियमों (सूत्रों) की तुलना में त्रिपादी में वर्णित नियम असिद्ध हैं। अर्थात्, यदि दोनो भागों में वर्णित नियमों के मध्य यदि कभी विरोध हो जाए तो पूर्व भाग का नियम ही मान्य होगा। इसी तरह, सपादसप्ताध्यायी के अन्तर्गत आने वाले सूत्रों (नियमों) में भी विरोध दृष्टिगोचर होने पर क्रमानुसार परवर्ती (बाद में आने वाले) सूत्र का प्राधान्य रहेगा – '''विप्रतिषेधे परं कार्यम्।''' इन सिद्धान्तों को स्थापित करने के बाद, पाणिनि ने सर्वप्रथम संज्ञा पदों को परिभाषित किया है और बाद में उन संज्ञा पदों पर आधारित विषय का विवेचन।
 
'''संक्षिप्तता''' बनाए रखने के लिए पाणिनि ने अनेक उपाय किए हैं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है – विशिष्ट '''संज्ञाओं''' (Technical Terms) का निर्माण। व्याकरण के नियमों को बताने में भाषा के जिन शब्दों / अक्षरों समूहों की बारम्बार आवश्यकता पड़ती थी, उन्हें पाणिनि ने एकत्र कर विभिन्न विशिष्ट नाम दे दिया जो संज्ञाओं के रूप में अष्टाध्यायी में आवश्यकतानुसार विभिन्न प्रसंगों में प्रयुक्त किए गए हैं। नियमों को बताने के पहले ही पाणिनि वैसी संज्ञाओं को परिभाषित कर देते हैं, यथा – माहेश्वर सूत्र – ''''''प्रत्याहार, इत्, टि, नदी, घु, पद, धातु, प्रत्यय, अङ्गअंग, निष्ठा इत्यादि।''' इनमें से कुछ को पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से उधार लिया है। लेकिन अधिकांश स्वयं उनके द्वारा बनाए गए हैं। इन संज्ञाओं का विवरण आगे दिया गया है।
 
व्याकरण के कुछ अवयवों यथा धातु, प्रत्यय, उपसर्ग के विवेचन मे, पाणिनि को अनेक नियमों (सूत्र) की आवश्यकता पड़ी। ऐसे नियमों के निर्माण के पहले, प्रारंभ में ही पाणिनि उन सम्बन्धित अवयवों का उल्लेख कर बता देते हैं कि आगे एक निश्चित सूत्र तक इन अवयवों का अधिकार रहेगा। इन अवयवों को वे पूर्व में ही संज्ञा रूप में परिभाषित कर चुके हैं। दूसरे शब्दों में पाणिनि प्रकरण विशेष का निर्वचन उस प्रकरण की मूलभूत संज्ञा – यथा धातु, प्रत्यय इत्यादि – के '''अधिकार''' (Coverage) में करते हैं जिससे उन्हे प्रत्येक सूत्र में सम्बन्धित संज्ञा को बार–बार दुहराना नहीं पड़ता है। संक्षिप्तता लाने में यह उपकरण बहुत सहायक है।
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शब्दों/पदों के निर्वचन के लिए, प्रकृति के आधार पर पाणिनि ने छः प्रकार के सूत्रों की रचना की है:
 
:'''सञ्ज्ञासंज्ञा च परिभाषा च विधिर्नियम एव च।'''
:'''अतिदेशोऽधिकारश्च षड्विधम् सूत्रं मतम् ॥'''
 
*(१) ''' सञ्ज्ञासंज्ञा सूत्र :'''
:नामकरणं सञ्ज्ञासंज्ञा - तकनीकी शब्दों का नामकरण।
 
*(२) '''परिभाषा सूत्र :'''
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* (क) [[वाक्य]] को भाषा की मूल इकाई मानना,
* (ख) [[ध्वनि]]-उत्पादन-प्रक्रिया का वर्णन एवं ध्वनियों का वर्गीकरण,
* (ग) सुबन्त एवं तिङ्न्ततिंन्त के रूप में सरल और सटीक पद-विभाग,
* (घ) [[व्युत्पत्ति]] - प्रकृति और [[प्रत्यय]] के आधार पर शब्दों का विवेचन।
 
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== अष्टाध्यायी के बाद ==
अष्टाध्यायी के साथ आरंभ से ही अर्थों की व्याख्यापूरक कोई वृत्ति भी थी जिसके कारण अष्टाध्यायी का एक नाम, जैसा पतंजलि ने लिखा है, वृत्तिसूत्र भी था। और भी, माथुरीवृत्ति, पुण्यवृत्ति आदि वृत्तियाँ थीं जिनकी परंपरा में वर्तमान [[काशिकावृत्ति]] है। अष्टाध्यायी की रचना के लगभग दो शताब्दी के भीतर [[कात्यायन]] ने सूत्रों की बहुमुखी समीक्षा करते हुए लगभग चार सहस्र [[वार्तिक|वार्तिकों]] की रचना की जो सूत्रशैली में ही हैं। वार्तिकसूत्र और कुछ वृत्तिसूत्रों को लेकर [[पतंजलि]] ने [[महाभाष्य]] का निर्माण किया जो पाणिनीय सूत्रों पर अर्थ, उदाहरण और प्रक्रिया की दृष्टि से सर्वोपरि ग्रंथ है। "अथ शब्दानुशासनम्"- यह माहाभाष्य का प्रथम वाक्य है। [[पाणिनि]], [[कात्यायन]] और [[पतञ्जलिपतंजलि]] - ये तीन व्याकरणशास्त्र के प्रमुख आचार्य हैं जिन्हें 'मुनित्रय' कहा जाता है। पाणिनि के सूत्रों के आधार पर [[भट्टोजिदीक्षित]] ने [[सिद्धान्तकौमुदी]] की रचना की, और उनके शिष्य [[वरदराज]] ने सिद्धान्तकौमुदी के आधार पर [[लघुसिद्धान्तकौमुदी]] की रचना की।
 
== पाणिनीय व्याकरण की महत्ता पर विद्वानों के विचार ==
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* [http://books.google.co.in/books?id=t2f1hneiV08C&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false Sanskrit Computational Linguistics: First and Second International Symposia] (By Gérard Huet, Amba Kulkarni, Peter S)
* [http://books.google.co.in/books?id=iSDakY97XckC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false Aṣṭādhyāyī of Pāṇini By Pāṇini] (translated by Sumitra Mangesh Katre)
* [http://books.google.co.in/books?id=T-evs_ZqvkMC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false लघुसिद्धान्तकौमुदी ; तिङ्गन्ततिंगन्त प्रकरण] (गूगल पुस्तक ; डॉ के के आनन्द)
* [https://sites.google.com/site/vedicfundas/thought-provoking-articles/philosophy-in-ashtaadhyaayi अष्टाध्यायी में दर्शन]
* [http://narayan-prasad.blogspot.in/2010/08/9.html अष्टाध्यायी कण्ठस्थ कैसे करें?] (नारायण प्रसाद)
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[[श्रेणी:संस्कृत|अष्टाध्यायी]]
[[श्रेणी:व्याकरण|अष्टाध्यायी]]
[[श्रेणी:पञ्चाङ्गपंचांग व्याकरण]]
 
[[en:Pāṇini#Ashtadhyayi]]