"जैसलमेर दुर्ग": अवतरणों में अंतर

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== शैली ==
जैसलमेर दुर्ग मुस्लिम शैली विशेषतः मुगल स्थापत्य से पृथक है। यहाँ मुगलकालीन किलों की तङ्कतंक-भङ्कभंक, बाग-बगीचे, नहरें-फव्वारें आदि का पूर्ण अभाव है, चित्तौ के दुर्ग की भांति यहां महल, मंदिर, प्रशासकों व जन-साधारण हेतु मकान बने हुए हैं, जो आज भी जन-साधारण के निवास स्थल है।
 
== स्थापत्य ==
जैसलमेर दुर्ग पीले पत्थरों के विशाल खण्डों से निर्मित है। पूरे दुर्ग में कहीं भी चूना या गारे का इस्तेमाल नहीं किया गया है। मात्र पत्थर पर पत्थर जमाकर फंसाकर या खांचा देकर रखा हुआ है। दुर्ग की पहाङ्ीपहांी की तलहटी में चारों ओर १५ से २० फीट ऊँचा घाघरानुमा परकोट खिचा हुआ है, इसके बाद २०० फीट की ऊँचाई पर एक परकोट है, जो १० से १५६ फीट ऊँचा है। इस परकोट में गोल बुर्ज व तोप व बंदूक चलाने हेतु कंगूरों के मध्य बेलनाकार विशाल पत्थर रखा है। गोल व बेलनाकार पत्थरों का प्रयोग निचली दीवार से चढ़कर ऊपर आने वाले शत्रुओं के ऊपर लुढ़का कर उन्हें हताहत करने में बडें ही कारीगर होते थे, युद्ध उपरांत उन्हें पुनः अपने स्थान पर लाकर रख दिया जाता था। इस कोट के ५ से १० फीट ऊँची पूर्व दीवार के अनुरुप ही अन्य दीवार है। इस दीवार में ९९ बुर्ज बने है। इन बुर्जो को काफी बाद में महारावल भीम और मोहनदास ने बनवाया था। बुर्ज के खुले ऊपरी भाग में तोप तथा बंदुक चलाने हेतु विशाल कंगूरे बने हैं। बुर्ज के नीचे कमरे बने हैं, जो युद्ध के समय में सैनिकों का अस्थाई आवास तथा अस्र-शस्रों के भंडारण के काम आते थे।
 
इन कमरों के बाहर की ओर झूलते हुए छज्जे बने हैं, इनका उपयोग युद्ध-काल में शत्रु की गतिविधियों को छिपकर देखने तथा निगरानी रखने के काम आते थे। इन ९९ बुर्जो का निर्माण कार्य रावल जैसल के समय में आरंभ किया गया था, इसके उत्तराधिकारियों द्वारा सतत् रुपेण जारी रखते हुए शालीवाहन (११९० से १२०० ई.) जैत सिंह (१५०० से १५२७ ई.) भीम (१५७७ से १६१३ ई.) मनोहर दास (१६२७ से १६५० ई.) के समय पूरा किया गया। इस प्रकार हमें दुर्ग के निर्माण में कई शताब्दियों के निर्माण कार्य की शैली दृष्टिगोचर होती है।
 
== द्वार ==
दुर्ग के मुख्य द्वारा का नाम अखैपोला है, जो महारवल अखैसिंह (१७२२ से १७६२ ई.) द्वारा निर्मित कराया गया था। यह दुर्ग के पूर्व में स्थित मुख्य द्वार के बाहर बहुत बङा दालान छोङ्करछोंकर बनाया गया है। इसके कारण दुर्ग के मुख्य द्वार पर यकायक हमला नहीं किया जा सकता था। दुर्ग के दूसरे मुख्य द्वार का पुनः निर्माण कार्य रावल भीम द्वारा कराया गया था। इसके अतिरिक्त इस दरवाजे के आगे स्थित बैरीशाल बुर्ज है, इसे इस प्रकार बनाया गया है कि दुर्ग का मुख्य द्वारा इसकी ओट में आ गया व दरवाजे के सामने का स्थान इतना संकरा हो गया कि यकायक बहुत बङ्ीबंी संख्या में शत्रुदल इसमें प्रवेश नहीं कर सकता था व न ही हाथियो की सहायता से दुर्ग के द्वार को तोङा जा सकता था। इसके अलावा भीम ने सात अन्य बुर्ज भी दुर्ग में निर्मित कराए थे। इन समस्त निर्माण कार्यो में रावल भीम ने उस समय ५० लाख रुपया खर्च किया था। अपने द्वारा सामरिक दृष्टि से दुर्ग की व्यवस्था के संबंध में रावल भीम का कथन था कि दूसरा आवे तो मैदान में बैठा जबाव दे सकता है और दिल्ली का धनी आवे तो कैसा ही गढ़ हो रह नहीं सकता।
 
दुर्ग के तीसरे दरवाजे के गणेश पोल व चौथे दरवाजे को रंगपोल के नाम से जाना जाता है। सभी दरवाजे रावल भीम द्वारा पुनः निर्मित है। सूरज पोल की तरु बढ़ने पर हमें रणछो मंदिर मिलता है, जिसका निर्माण १७६१ ई. में महारावल अखैसिंह की माता द्वारा करावाया गया था। सूरज-पोल द्वारा का निर्माण महारावल भीम के द्वारा करवाया गया है। इस दरवाजे के मेहराबनुमा तोरण के ऊपर में सूर्य की आकृति बनी हुई है।