"नासदीय सूक्त": अवतरणों में अंतर
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पंक्ति 11:
:'''न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।'''<br />
:'''अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥२॥'''<br />
'''अन्वय'''-तर्हि मृत्युः नासीत् न अमृतम्, रात्र्याः अह्नः प्रकेतः नासीत् तत् अनीत अवातम, स्वधया एकम् ह तस्मात् अन्यत्
'''अर्थ'' – उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत = मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्री और दिन का ज्ञान भी नहीं था उस समय वह ब्रह्म तत्व ही केवल प्राण युक्त, क्रिया से शून्य और माया के साथ जुड़ा हुआ एक रूप में विद्यमान था, उस माया सहित ब्रह्म से कुछ भी नहीं था और उस से परे भी कुछ नहीं था। <br /><br />
:'''तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।''' <br />
पंक्ति 25:
'''अन्वय'''-एषाम् रश्मिःविततः तिरश्चीन अधःस्वित् आसीत्, उपरिस्वित् आसीत्रेतोधाः आसन् महिमानःआसन् स्वधाअवस्तात प्रयति पुरस्तात्।<br />
'''अर्थ'''-पूर्वोक्त मन्त्रों में नासदासीत् कामस्तदग्रे मनसारेतः में अविद्या, काम-
:'''को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।'''<br />
पंक्ति 33:
:'''इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।'''<br />
:'''यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो
'''अन्वय'''- इयं विसृष्टिः यतः आबभूव यदि वा दधे यदि वा न। अस्य यः अध्यक्ष परमे व्यामन् अंग सा वेद यदि न वेद। <br />
'''अर्थ''' – यह विविध प्रकार की सृष्टि जिस प्रकार के उपादान और निमित्त कारण से उत्पन्न हुयी इस का मुख्या कारण है ईश्वर के द्वारा इसे धारण करना। इसके अतिरिक्त अन्य कोई धारण नहीं कर सकता। इस सृष्टि का जो स्वामी ईश्वर है, अपने प्रकाश या आनंद स्वरुप में प्रतिष्ठित है। हे प्रिय श्रोताओं ! वह आनंद स्वरुप परमात्मा ही इस विषय को जानता है उस के अतिरिक्त (इस सृष्टि उत्पत्ति तत्व को) कोई नहीं जानता है।
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