"माहेश्वर सूत्र": अवतरणों में अंतर
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'''माहेश्वर सूत्र''' ([[संस्कृत]]: '''{{lang|sa|शिवसूत्राणि}}''' या '''महेश्वर सूत्राणि''') को [[संस्कृत व्याकरण]] का आधार माना जाता है। [[पाणिनि]] ने [[संस्कृत भाषा]] के तत्कालीन स्वरूप को परिष्कृत एवं नियमित करने के उद्देश्य से भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों यथा ध्वनि-विभाग (अक्षरसमाम्नाय), नाम (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण), पद, आख्यात, क्रिया, उपसर्ग, अव्यय, वाक्य,
[[व्याकरण]] के इस महनीय ग्रन्थ मे पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग ४००० [[सूत्र|सूत्रों]] में किया है , जो आठ अध्यायों में (संख्या की दृष्टि से असमान रूप से) विभाजित हैं। तत्कालीन समाज मे लेखन सामग्री की दुष्प्राप्यता को ध्यान में रखते हुए पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए [[सूत्र]] शैली की सहायता ली है। पुनः, विवेचन को अतिशय संक्षिप्त बनाने हेतु पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से प्राप्त उपकरणों के साथ-साथ स्वयं भी अनेक उपकरणों का प्रयोग किया है जिनमे '''शिवसूत्र''' या '''माहेश्वर सूत्र''' सबसे महत्वपूर्ण हैं।
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माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति भगवान [[नटराज]] (शिव) के द्वारा किये गये [[ताण्डव]] नृत्य से मानी गयी है।
:'''नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां
:'''उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ॥'''
अर्थात:-
"नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने [[सनकादि ऋषि]]यों की सिद्धि और कामना का उद्धार (पूर्ति) के लिये
डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से [[व्याकरण]] का प्रकाट्य हुआ। इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है। प्रसिद्धि है कि महर्षि पाणिनि ने इन सूत्रों को देवाधिदेव [[शंकर|शिव]] के आशीर्वाद से प्राप्त किया जो कि पाणिनीय [[संस्कृत व्याकरण]] का आधार बना।
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१. ''' अइउण्।'''<br />
२. ''' ॠॡक्।'''<br />
३. '''
४. ''' ऐऔच्।''' <br />
५. ''' हयवरट्।'''<br />
६. ''' लण्।'''<br />
७. ''' ञमङणनम्।'''<br />
८. '''
९. ''' घढधष्।'''<br />
१०. ''' जबगडदश्।''' <br />
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उपर्युक्त्त १४ सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार से संयोजित किया गया है। फलतः, '''पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों (अक्षरों) को माहेश्वर सूत्रों से [[प्रत्याहार]] बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं। माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं।''' प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे दर्शाया गया है।
इन १४ सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है। प्रथम ४ सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष १० सूत्र
=== प्रत्याहार ===
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'''[[प्रत्याहार]] का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन।''' अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।
'''आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१):''' (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं
उदाहरण: '''अच्''' = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है। यह अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है। अतः,
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: '''हल्''' = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।
उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण (ण् क्
==इन्हें भी देखें==
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