"वुडरो विल्सन": अवतरणों में अंतर

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विल्सन इस सम्मेलन में शान्ति का दीप बनकर आया था। वह नहीं चाहता था कि पेरिस सम्मेलन 1815 के [[वियना कांग्रेस]] जैसे निहित स्वार्थों का गढ़ बन जाये। परन्तु वह अन्दाज नहीं लगा पाया था कि विजेता राष्ट्रों में स्वार्थ की गन्ध रहती है और यदि वह अन्य तथ्यों को ध्यान में रखता तो वह उस जाल या धोखे से बच जाता जिसमें वह स्वयं अपने आदर्शवाद के कारण बुरी तरह उलझ गया। उसके पवित्र उद्देश्य विजेता राष्ट्रों की सत्ता-पिपासा के आगे भस्मसात हो गये। विल्सन ने अपने विचारों को प्रसिद्ध 14 सूत्रों (Fourteen Points) के रूप में प्रस्तुत किया। उसके 14 सूत्रों में प्रथम सूत्र यही था कि शान्ति के समझौते सार्वजनिक रूप से किये जायेंगें, कोई गुप्त समझौता नहीं होगा। इन सिद्धान्तों की मित्रराष्ट्रों के राजनीतिज्ञों ने भी सराहना की थी। उनके पास युद्धोत्तर समस्याओं का समाधान करने के लिए उपरोक्त सिद्धान्तों के अतिरिक्त और क्या था ? और पराजित राष्ट्रों ने भी इन सिद्धान्तों के प्रति अपनी सहमति प्रकट की परन्तु आदर्शों एवं सिद्धान्तों की अन्ततः शक्ति-पूजक राष्ट्रों के सामने कुछ न चल सकी। इस सम्मेलन में भी राष्ट्रवादी विचारों, व्यक्तिगत स्वार्थों का बोलबाला रहा, जिनका वियना कांग्रेस (1815) में प्राधान्य रहा था। फ्रांस का क्लेमेंसी और इंग्लैण्ड का लॉयड दोनों ने ही विल्सन पर अपनी हठवादिता को थोपने में सफलता प्राप्त की। आर0बी0 मोबात ने ‘यूरोपियन डिप्लोमेसी’ में लिखा है कि ”क्लेमेंसो प्रातःकाल यह वाक्य दुहराया करता था- मैं राष्ट्रसंघ (League of Nations) की स्थापना का समर्थन करूंगा।“ किन्तु इटली के ओरलैण्डो से जब एक बार पूछा गया कि राष्ट्रसंघ के बारे में आपका क्या मत है तो उत्तर दिया था कि ”हम निःसन्देह राष्ट्रसंघ की स्थापना का स्वागत करेंगे किन्तु फ्यूम (Fiums) का प्रश्न तय किया जाना चाहिये।“ विल्सन सम्पूर्ण सम्मेलन में अकेला पड़ गया था। वियना कांग्रेस के पश्चात् यूरोप में इस प्रकार इतने विशाल पैमाने पर विश्व स्तर का कोई सम्मेलन नहीं हुआ था।
 
प्रिन्सटन में राजनीति-दर्शन का यह भूतपूर्व प्रोफेसर एक प्रतिभाशाली वक्ता तथा आदर्शवादी विचारक था। वह कठोर विश्वासों का व्यक्ति था जिसमें राजनीतिक दूरदर्शिता तो उच्च कोटि की थी, लेकिन इतनी कूटनीतिक योग्यता नहीं थी कि वह अन्य प्रतिनिधियों को पराजित राष्ट्रों के साथ उदार व्यवहार के लिए तैयार कर सके। स्टेन्नार्ड बेकर के शब्दों में ”जिस किसी ने भी उसको (विल्सन को) काम करते देखा, उसकी कभी हिम्मत नहीं हुई कि वह विल्सन के समक्ष अथवा उसकी पीठ पीछे निन्दा करने का साहस करता।“ विल्सन का यह विश्वास था कि राष्ट्रसंघ की स्थापना से ही मानव जाति की रक्षा हो सकती है, अतः वह इसे सब शान्ति-सन्धियों का अनिवार्य अंग बनाना चाहता था। किन्तु वह मानसिक दृष्टि से [[लॉयड जॉर्ज]] तथा [[क्लेमेंसो]] के समान कुशाग्र नहीं था और अपने पूर्व-निर्धारित विचारों पर विशेष रूप से भरोसा रखता था, अतः वह कूटनीति के क्षेत्र में और राजनीतिक सौदेबाजी के नौसिखिया सिद्ध हुआ। उसके आदर्शवाद और राष्ट्रसंघ की स्थापना के अत्यधिक उत्साह का दूसरे देशों ने पूरा लाभ उठाया। अन्य देश राष्ट्रसंघ के निर्माण की बात मान लें, इसके लिए विल्सन सब कुछ त्यागने के लिए तैयार था, यहां तक कि राष्ट्रसंघ के लिए वह अपने 14 सूत्रों के अनेक सिद्धान्तों की अवहेलना करने के लिए भी तैयार हो गया। पाल बर्डसल (P . Birdsall) के कथनानुसार वह क्षतिपूर्ति की समस्या के अतिरिक्त अन्य सभी प्रश्नों पर ब्रिटेन, फ्रांस और जापान से राष्ट्रसंघ के नाम पर प्रायः अपनी अधिकांश बातें मनवाने में सफल हुआ। चीनी जनता द्वारा बास हुआ शाण्टुङ्गशाण्टुंग का प्रदेश विल्सन के आत्म-निर्णय के सिद्धान्त के आधार पर चीन को मिलना चाहिये था, किन्तु विल्सन ने राष्ट्रसंघ की स्थापना के लिए अन्य महाशक्तियों का सहयोग प्राप्त करने की इच्छा से इसे जापान को देने का निर्णय किया। यह निर्णय स्वयंमेव विल्सन द्वारा अपने सिद्धान्तों पर कुठाराघात था। फिर भी, पेरिस-सम्मेलन में यदि पराजितों के साथ थोड़ी नरमी बरती गई तो वह विल्सन के कारण ही। इसमें कोई सन्देह नहीं था कि यदि विल्सन सम्मेलन में न होता तो लॉयड जॉर्ज और क्लेमेंसो न जाने क्या से क्या कर देते। विल्सन ही उनकी असीम आकांक्षाओं पर अंकुश लगाता रहा। यदि विल्सन न होता तो फ्रांस जर्मनी का नामोनिशान मिटाकर ही दम लेता।
 
विल्सन के दो उद्देश्य थे। प्रथम न्यायपूर्ण समझौता जिसके अनुसार आत्म-निर्णय के सिद्धान्त पर राष्ट्रों की सीमाओं का निर्धारण हो ताकि परस्पर शान्ति स्थापित हो सके। द्वितीय, राष्ट्रसंघ की स्थापना। पहले उद्देश्य में वह सफल नहीं हुआ क्योंकि जो शान्ति की गई वह थोपी हुई शान्ति थी न कि आत्म-निर्णय के आधार पर या समझौता-वार्ता की शान्ति। परन्तु उसे दूसरे उद्देश्य में सफलता प्राप्त हुई। राष्ट्रों के संघ का विचार मौलिक नहीं था और कई देशों में कई लोगों ने इस विचार को स्पष्ट करने में योगदान दिया था, किन्तु जिस राष्ट्रसंघ (League of Nations) की अन्तिम रूप से स्थापना की गई थी वह विल्सन की ही सृष्टि थी और उसके आदर्शों का मन्दिर था। कुछ विद्वानों का विचार है कि विल्सन ने स्वयं पेरिस में आकर एक भारी भूल की। यदि वह वाशिंगटन में रह कर ही अमेरिकन प्रतिनिधियों को आदेश देता रहता तो बहुत सम्भव था कि उसका प्रभाव अधिक व्यापक होता, पर विल्सन को सर्वाधिक चिन्ता राष्ट्रसंघ की थी और उसकी अभिलाषा थी कि विश्व संस्था के विधान का निर्माण वह स्वयं करे। वास्तव में यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि जहाँ सम्मेलन में उसकी उपस्थिति स्वयं सम्मेलन के लिए हितकर न रही, वहां अपने देश से दूर होकर वह अमेरिकी जनता से भी सम्पर्क स्थापित न रख सका जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि उसके द्वारा पोषित राष्ट्रसंघ को उसके स्वयं के देश ने ही अस्वीकार कर दिया। अमेरिकन सीनेट ने विल्सन के राष्ट्रसंघ की सदस्यता के प्रस्ताव को नहीं माना। 1918 में कांग्रेस के चुनावों में विल्सन विरोधी रिपब्लिकन दल को कांग्रेस के दोनों सदनों में बहुमत प्राप्त हो गया और सीनेट ने राष्ट्रसंघ के विधान एवं [[वर्साय की सन्धि]] को स्वीकार करने के मसविदे को रद्द कर दिया। यह मानवता के एक महान पैगम्बर का दुःखमय पराभव था।