"शुकनासोपदेश": अवतरणों में अंतर

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[[लक्ष्मी]] के बारे में शुकनासोपदेश का एक अंश देखिये-
 
: ''आलोकयतु तावत् कल्याणाभिनिवेशी लक्ष्मीमेव प्रथमम्। इयं हि सुभटखड्गमण्डलोत्पलवनविभ्रमभ्रमरी लक्ष्मीः क्षीरसागरात्पारिजातपल्लवेम्यो रागम्, इन्दुशकलादेकान्तवक्रताम्, उच्चैः श्रवसश्चञ्चलताम्श्रवसश्चंचलताम्, कालकूटान्मोहनशक्तिं मदिराया मदम्, कौस्तुभमणेर्नैष्ठुर्यम्, इत्येतानि सहवासपरिचयवशात् विरहविनोदचिह्नानि गृहीत्वैवोद्गता। न ह्येवंविधमपरिचितमिह जगति किञ्चिदस्तिकिंचिदस्ति यथेयमनार्या। लब्धापि खलु दुःखेन परिपाल्यते। दृढगुणपाशसन्दाननिस्पन्दीकृता अपि नश्यति। उद्दामदर्पभटसहस्नोल्लासितासिलतापञ्जरविधृताउद्दामदर्पभटसहस्नोल्लासितासिलतापंजरविधृता अप्यपक्रामति। मदजलदुर्दिदनान्धकारगजघटितघनघटापरिपालिता अपि प्रपलायते। न परिचयं रक्षति। नाभिजनमीक्षते। न रूपमालोकयते। न कुलक्रममनुवर्तते। न शीलं पश्यति। न वैदग्ध्यं गणयति। न श्रुतमाकर्णयति। न धर्ममनुरुध्यते। न त्यागमाद्रियते। न विशेषज्ञतां विचारयति। नाचारं पालयति। न सत्यमनुबुध्यते। न लक्षणं प्रमाणीकरोति। गन्धर्वनगरलेखा इव पश्यत एव नश्यति।
 
: (''...हे प्रजा का कल्याण चाहने वाले (राजकुमार), पहले लक्ष्मी (की प्रकृति) को ही देखें। यह लक्ष्मी योद्धाओं एवं शस्त्रों के समूह रूपी कमल पर भ्रमण करने वाली मधुमखी है। वह क्षीरसागर से निकली है (और अपने साथ निकलने वाले अन्य वस्तुओं के गुण उसने धर लिये हैं।) उसने [[पारिजात]] वृक्ष के पल्लवों से लाल रंग (आनन्द के लिये आकर्षण का गुण) ले लिया, [[चन्द्रमा]] की कला उसकी एकान्तवक्रता ले ली, [[उच्चैःश्रवा]] से उसकी चंचलता ग्रहण कर लिया, [[कालकूट]] से मोहने की शक्ति और मदिरा ([[वारुणी]]) से उसका मद ले लिया, [[कौस्तुभ मणि]] से उसकी कठोरता (निठुरता) ले ली। इस प्रकार की दूसरी अपरिचित वस्तु संसार में और कोई नहीं है जैसी यह अनार्या है। यह पाकर भी दुःख से बचाई जाती है। सन्धिविग्रहादि दृढ़ बन्धनों से बाँधकर निश्चल की गई भी यह पलायन कर जाती है। उत्कट अभिमानी योद्धाओं की उठाई गई हजारों तलवारों के समूहरूपी पिंजड़े में बन्दी करके रखी गई भी (यह अनार्या लक्ष्मी) गायब होती जाती है। मदजल की निरन्तर होने वाली वर्षा के कारण दुर्दिन जैसा अन्धकार बना देने वाली हाथियों की घनी घटाओं से घिरी हुई भी भाग जाती है। (यह दुष्टा लक्ष्मी) जान पहिचान की रक्षा नहीं करती, उत्तम कुल का भी ध्यान नहीं रखती, सुन्दरता को नहीं देखती, कुलक्रम का अनुगमन नहीं करती, शील को नहीं देखती, पाण्डित्य को नहीं गिनती, शास्त्रों के (ज्ञान) को नहीं सुनती, धर्म का अनुरोध नहीं करती, त्याग का आदर नहीं करती, विशेषज्ञता को नहीं विचारती, आचरण का पालन नहीं करती, सत्य को नहीं जानती, सामुद्रिक शास्त्रानुसार छत्रचामरादि चिह्नों को भी प्रमाणित नहीं करती है। गन्धर्व नगरलेखा की भाँति देखते-देखते यह नष्ट हो जाती है। )