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शून्य का आविष्कार किसने और कब किया यह आज तक अंधकार के गर्त में छुपा हुआ है, परंतु सम्पूर्ण [[विश्व]] में यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि शून्य का आविष्कार [[भारत]] में ही हुआ। ऐसी भी कथाएँ प्रचलित हैं कि पहली बार शून्य का आविष्कार [[बाबिल]] में हुआ और दूसरी बार माया सभ्यता के लोगों ने इसका आविष्कार किया पर दोनो ही बार के आविष्कार [[संख्या प्रणाली]] को प्रभावित करने में असमर्थ रहे तथा [[विश्व]] के लोगों ने इन्हें भुला दिया। फिर [[भारत]] में [[हिन्दू|हिंदुओं]] ने तीसरी बार शून्य का आविष्कार किया। हिंदुओं ने शून्य के विषय में कैसे जाना यह आज भी अनुत्तरित प्रश्न है। अधिकतम विद्वानों का मत है कि पांचवीं [[शताब्दी]] के मध्य में शून्य का आविष्कार किया गया। [[सर्वनन्दि]] नामक दिगम्बर [[जैन धर्म|जैन]] मुनि द्वारा मूल रूप से [[प्रकृत]] में रचित '''[[लोकविभाग]]''' नामक ग्रंथ में शून्य का उल्लेख सबसे पहले मिलता है। इस ग्रंथ में [[दशमलव पद्धति|दशमलव संख्या पद्धति]] का भी उल्लेख है।
 
सन् 498 में भारतीय [[गणितज्ञ]] एवं [[खगोलशास्त्र|खगोलवेत्ता]] [[आर्यभट्ट]] ने [[आर्यभटीय]] ([ सङ्ख्यास्थाननिरूपणम्संख्यास्थाननिरूपणम् ]) में कहा है-
 
: ''एकं च दश च शतं च सहस्रं तु अयुतनियुते तथा प्रयुतम्प्रयुतम्।
: ''कोट्यर्बुदं च वृन्दं स्थानात्स्थानं दशगुणं स्यात् ॥ २ ॥
 
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