"श्रीकृष्णभट्ट कविकलानिधि": अवतरणों में अंतर

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== श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि का जयपुर आगमन ==
 
(देवर्षि) भट्टजी का परिवार रींवा नरेश, (महाराजा अजीत सिंह (1755/1809), जिन्हें 'बांधव-नरेश' भी कहा जाता है, की छत्रछाया में कुछ वर्ष रहा और वहां से [[बूंदी]] [[राजस्थान]] इस कारण आ बसा कि बूंदी के राजा भी वैदुष्य के गुणग्राहक थे। जब बूंदी राजपरिवार का सम्बन्ध रींवा में हुआ तो वहां के कुछ राज पंडितों को जागीरें दे कर उन्होंने बूंदी में ला बसाया। बूंदी के राजा बुधसिंह, जो सवाई जयसिंह के बहनोई थे, के शासन में श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि बूंदी राज्य के राजपंडित थे। "वह वेद, पुराण, दर्शन, व्याकरण, संगीत आदि शास्त्रों के मान्य विद्वान तो थे ही, [[संस्कृत]], [[प्राकृत]] और [[ब्रजभाषा]] के एक अप्रतिम वक्ता और कवि भी थे- (बूंदी में) सवाई जयसिंह इनसे इतने प्रभावित हुए कि उनसे किसी भी कीमत पर [[आमेर]] आ जाने का अनुरोध किया। श्रीकृष्ण भट्ट ने आमेर में राजपंडित हो कर आ कर बसने का यह आमंत्रण अपने संरक्षक राजा बुधसिंह की स्वीकृति पा कर ही स्वीकार किया, उससे पूर्व नहीं। अनेक ऐतिहासिक काव्यों में यह उल्लेख मिलता है- "बून्दीपति बुधसिंह सौं ल्याए मुख सौं याचि।"<ref>Tripathi, Radhavallabh; Shastri, Devarshi Kalanath; Pandey, Ramakant, eds. (2010). मञ्जुनाथग्रन्थावलिःमंजुनाथग्रन्थावलिः (मञ्जुनाथोपाह्वभट्टश्रीमथुरानाथशास्त्रिणांमंजुनाथोपाह्वभट्टश्रीमथुरानाथशास्त्रिणां काव्यरचनानां सङ्ग्रहःसंग्रहः) [The works of Mañjunātha (Anthology of poetic works of Bhaṭṭaśrī Mathurānātha Śāstri, known by the pen-name of Mañjunātha)] (in Sanskrit). New Delhi, India: Rashtriya Sanskrit Sansthan. ISBN 978-81-86111-32-1. Retrieved February 26, 2013.</ref>[http://www.sanskrit.nic.in/DigitalBook/J/Jaipurvaibhavam.pdf]
 
देवर्षि श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि के वंशजों में अनेक अद्वितीय विद्वान, [[कवि]], [[तांत्रिक]], [[संगीतज्ञ]] आदि हुए हैं, जिन्होंने अपनी प्रतिभा से [[जयपुर]] की प्रतिष्ठा पूरे भारतवर्ष में फैलाई। उनकी इस विद्वद्वंश परंपरा में द्वारकानाथ भट्ट, जगदीश भट्ट, वासुदेव भट्ट, मण्डन भट्ट, [[देवर्षि रमानाथ शास्त्री]], [[भट्ट मथुरानाथ शास्त्री]], देवर्षि [[कलानाथ शास्त्री]] जैसे विद्वानों ने अपने रचनात्मक वैशिष्ट्य एवं विपुल साहित्य सर्जन से [[संस्कृत]] जगत को आलोकित किया है।<ref>'उत्तर भारतीय आन्ध्र-तैलंग-भट्ट-वंशवृक्ष' (भाग-2) संपादक स्व. पोतकूर्ची कंठमणि शास्त्री और करंजी गोकुलानंद तैलंग द्वारा 'शुद्धाद्वैत वैष्णव वेल्लनाटीय युवक-मंडल', नाथद्वारा से वि. सं. 2007 में प्रकाशित</ref>
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देवर्षि श्रीकृष्ण भट्ट जी को '''‘कविकलानिधि’''' तथा '''‘रामरासाचार्य’''' की उपाधि प्रदान करके सम्मानित किया गया था। महाराजा जयसिंह ने वेद-शास्त्रों पर उनके अद्भुत वैदुष्य तथा संस्कृत, प्राकृत तथा ब्रजभाषा में रसात्मक कविता करने की अनुपम क्षमता से प्रभावित होकर उन्हें ‘कविकलानिधि’ के अलंकरण से सम्मानित किया था।
 
स्वयं [[सवाई जयसिंह]] ने ही उन्हें ‘रामरासाचार्य’ की पदवी से भी सम्मानित किया था, जिसके सन्दर्भ में एक रोचक प्रसंग का विवरण मिलता है। एक दरबार के दौरान महाराजा जयसिंह ने सभासदों से पूछा कि जिस तरह श्रीकृष्ण की रासलीला का वर्णन मिलता है, क्या उस तरह श्रीराम की रासलीला के प्रसंग का भी कहीं कोई उल्लेख है? पूरे दरबार में चुप्पी छा गई। तभी श्रीकृष्ण भट्ट जी खड़े हुए और उन्होंने कहा कि ऐसी एक पुस्तक काशी में उपलब्ध है। राजा ने उन्हें इस पुस्तक को दो महीनों के भीतर ले आने के लिए कहा। श्रीकृष्ण भट्ट जी यह जानते थे कि वास्तव में ऐसी कोई पुस्तक कहीं थी ही नहीं, जब कि उन्होंने ऐसी पुस्तक के काशी में होने की बात कह दी थी। उन्होंने तब स्वयं राम-रास पर काव्य लिखना प्रारम्भ किया और दो महीने के भीतर ही [[ब्रजभाषा]] में “रामरासा” नामक पुस्तक तैयार कर दी जो [[रामायण]] के ही समकक्ष थी। समय सीमा के अंदर पुस्तक पाकर और यह जान कर कि यह काव्य स्वयं कविकलानिधि श्रीकृष्ण भट्ट ने ही लिखा है, कविता-कला-मर्मज्ञ महाराजा अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने भट्टजी को “रामरासाचार्य” की पदवी और विपुल धनराशि देकर सम्मानित किया।<ref>“साहित्य वैभवम्”, मञ्जुनाथमंजुनाथ ग्रंथावलिः, सं. प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी, [[राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली]], 2010, ISBN 978-81-86111-33-8</ref>
 
== साहित्यिक-अवदान ==
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*[[पद्यमुक्तावली]]<ref>'पद्यमुक्तावली', सं. भट्ट मथुरानाथ शास्त्री, राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला भाग 30, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, 1959</ref>
*[[सुन्दरी स्तवराज]]
*[[वेदांत]] पञ्चविंशतिपंचविंशति
*[[अलंकार-कलानिधि]]
*[[श्रृंगार रसमाधुरी]]