"अंतरराष्ट्रीय संबंध सिद्धांत": अवतरणों में अंतर

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'''मानव स्वभाव यथार्थवादीयों''' (''Human nature realists'') का मानना ​​है, कि [[राज्य]] स्वाभाविक रूप से ही आक्रामक होते हैं अतः क्षेत्रीय विस्तार को शक्तियों का विरोध करके ही असीमाबद्ध किया गया है। जबकि दुसरे '''आक्रामक/ रक्षात्मक यथार्थवादीयों''' (''Offensive/defensive realists'') का मानना ​​है कि राज्य हमेंशा अपने अस्तित्व की सुरक्षा और निरंतरता की चिंता से ग्रस्त रहते हैं। रक्षात्मक दृष्टिकोण एक [[सुरक्षा दुविधा]] (Security dilemma) की तरफ ले जाता है, क्योंकि जहां एक [[राष्ट्र]] खुद की सुरक्षा को बढ़ाने के लिए हथियार बनता है, तो वहीं प्रतिद्वंद्वी भी साथ ही साथ समानांतर लाभ प्राप्त करने की कोशिश करता है। इसलिए यह प्रक्रिया और अधिक अस्थिरता की ओर ले जा सकती है यहाँ [[सुरक्षा]] को केवल '''शून्य राशि खेल/[[शून्य-संचय खेल]]''' ([[ज़ीरो सम गेम्स]]) के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ केवल [[सापेक्ष लाभ]] मिल सकता है।
 
==सन्दर्भ===== नव यथार्थवाद ===
'''नव यथार्थवाद या संरचनात्मक यथार्थवाद''',<ref>http://www.oup.com/uk/orc/bin/9780199298334/dunne_chap04.pdf</ref> केनेथ वाल्ट्ज द्वारा अपनी पुस्तक ''अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के सिद्धांत'' (Theory of International Politics) में इसे यथार्थवाद के ही उन्नत विकास के रूप में प्रस्तुत किया था। जोसेफ ग्रिएको (Joseph Grieco) ने नवयथार्थवादी विचारों को और अधिक परंपरागत यथार्थवादियों के साथ जोड़ा है। सिद्धांत का यह प्रकार कभी कभी "आधुनिक यथार्थवाद" भी कहा जाता है।<ref>Lamy,Steven, Contemporary Approaches:Neo-realism and neo-liberalism in "The Globalisation of World Politics, Baylis, Smith and Owens, OUP, 4th ed,p127</ref> वाल्ट्ज के नव यथार्थवाद का कहना है कि संरचना के प्रभाव को राज्य के व्यवहार को समझाने के रूप में लिया जाना चाहिए। संरचना को दो रूपों में परिभाषित किया गया है, प्रथम-अंतरराष्ट्रीय प्रणाली का व्यवस्था सिद्धांत, जो की अराजकता (Anarchy) लिए हुए है और दूसरा- इकाइयों में क्षमताओं का वितरण। वाल्ट्ज भी पारंपरिक यथार्थवाद को चुनौति देता है जो की पारंपरिक सैन्य शक्ति पर जोर देता है बजाय राज्य की संयुक्त क्षमताओं के, जो की प्रदर्शनात्मक शक्ति के रूप में होती हैं।<ref>Lamy, Steven, "Contemporary mainstream approaches: neo-realism and neo-liberalism", The Globalisation of World Politics, Smith, Baylis and Owens, OUP, 4th ed, pp.127-128</ref>