"संशयवाद": अवतरणों में अंतर
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चाहे संशयवादी स्वयं कुछ भी कहें, संशय की मानसिक अवस्था कोई सुख की अवस्था नहीं होती ("न सुखं संशयात्मन:" गीता, अ. 4, श्लोक 40)। और पूर्ण रूप से संशयवादी होना अत्यंत कठिन ही नहीं, किंतु असंभव है।
स्वयं संशयवाद की स्वीकृति ही उसकी मान्यता का खंडन कर देती है। यदि किसी भी प्रकार का निश्चित ज्ञान नहीं हो सकता, तो फिर यह निश्चय रूप से कैसे कहा जा सकता है कि किसी भी प्रकार का निश्चित ज्ञान संभव नहीं। या तो संशयवाद की मान्यता असमीचीन है या फिर स्वयं संशयवाद "वदतोव्याघात दोष" से दूषित सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त, हमारे व्यावहारिक जीवन का एक एक कार्य तत्संबंधी पदार्थ या व्यक्ति के निश्चित ज्ञान की मान्यता पर निर्भर रहता है। वह संशयवाद को पूर्णतया मान लेने पर चल ही नहीं सकता। इसीलिए तो श्रीमद्भगवद्गीता में "संशयात्मा विनश्यति" आदि शब्दों द्वारा संशयवाद को अग्राह्य ठहराया है। परंतु, साथ ही साथ, यह मानने से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि अपरीक्षित परंपरागत मान्यताओं की अंध स्वीकृति भी विचारों के विकास में बाधा डालती है। अत: कभी कभी सामान्य रूप से स्वीकृत तथाकथित सत्यों को संदेह की दृष्टि से देखना भी ज्ञानवृद्धि के लिए आवश्यक हो जाता है जैसा भामतीकार श्री वाचस्पति मिश्र ने कहा है, संशय जिज्ञासा को जन्म देता है (जिज्ञासा संशयस्य कार्यम्) और जिज्ञासा तो ज्ञान के लिए वांछनीय है ही। और काँट महोदय की यह उक्ति कि ह्यूम के "संशयवाद ने मुझे वैचारिक रूढ़ियों की निद्रा से जगा दिया", इस सत्य को प्रमाणित करती है। परंतु बुद्धि या मन को संशय रूपी रंग से पूर्णतया रँग लेना और प्रत्येक बात पर संदेह करना ठीक वैसा ही है जैसा हाथों में मैल न होने पर भी किसी पागल द्वारा उनका सतत और निरंतर धोया
== बाहरी कड़ियाँ ==
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