"सीता": अवतरणों में अंतर

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सीताजी से बिछडकर रामजी दु:खी हुए और लक्ष्मण सहित उनकी वन-वन खोज करते जटायु तक पहुंचे। जटायु उन्हें सीताजी को रावण दक्षिण दिशा की ओर लिये जाने की सूचना देकर प्राण त्याग दिया। राम ने जटायु की अंतिम संस्कार कर लक्ष्मण सहित दक्षिण दिशा में चले। आगे चलते वे दोनों [[हनुमान]]जी से मिले जो उन्हें [[ऋष्यमूक|ऋष्यमुख]] पर्वत पर स्थित अपने राजा [[सुग्रीव]] से मिलाया। रामजी संग मैत्री के बाद सुग्रीव ने सीताजी के खोजमें चारों ओर [[वानरसेना]] की टुकडियाँ भेजी। वानर राजकुमार [[अंगद]] की नेतृत्व में दक्षिण की ओर गई टुकडी में हनुमान, [[नील]], [[जामवंत|जांबवंत]] प्रमुख थे और वे दक्षिण स्थित सागर तट पहुंचे। तटपर उन्हें जटायु का भाई [[सम्पाति|संपाति]] मिला जो उन्हे सूचना दी कि सीता लंका स्थित एक वाटिका में है।
 
हनुमानजी समुद्र लाँघकर लंका पहुँचे, [[लंकिणीलंकिनी]] को परास्त कर नगर में प्रवेश किया। वहाँ सभी भवन और अंतःपुर में सीता माता को न पाकर वे अत्यंत दुःखी हुए। अपने प्रभु श्रीरामजी को स्मरण व नमन कर अशोकवाटिका पहुंचे। वहाँ 'धुएँ के बीच चिंगारी' की तरह राक्षसियों के बीच एक तेजस्विनी स्वरूपा को देख सीताजी को पहचाना और हर्षित हुए।
 
उसी समय रावण वहाँ पहुँचा और सीता से विवाह का प्रस्ताव किया। सीता ने घास के एक टुकडे को अपने और रावण के बीच रखा और कहा "हे रावण! सूरज और किरण की तरह राम-सीता अभिन्न है। राम व लक्ष्मण की अनुपस्थिति मे मेरा अपहरण कर तुमने अपनी कायरता का परिचय और रक्षसजाती की विनाश को आमंत्रण दिया है। रघुवंशीयों की वीरता से अपरचित होकर तुमने ऐसा दुस्साहस किया है। तुम्हारे श्रीरामजी की शरण मे जाना इस विनाश से बचने का एक मात्र उपाय है। अन्यथा लंका विनाश निश्चित है।" इससे निराश रावण ने राम को लंका आकर सीता को मुक्त करने को दो माह की अवधी दी। इसके उपरांत रावण व सीता का विवाह निश्चिय है। रावण के लौटने पर सीताजी बहुत दु:खी हुई। त्रिजटा अपने सपने के बारे में बताते धीरज दिया की श्रीरामजी रावण पर विजय पाकर उन्हें अवश्य मुक्त करेंगे।
"https://hi.wikipedia.org/wiki/सीता" से प्राप्त