"पाञ्चजन्य (पत्र)": अवतरणों में अंतर

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== परिचय एवं इतिहास ==
स्वतन्त्रता प्राप्ति के तुरन्त बाद १४ जनवरी १९४८ को [[मकर संक्राति]] के पावन पर्व पर अपने आवरण पृष्ठ पर [[भगवान श्री कृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] के मुख से [[शंख]]नाद के साथ श्री [[अटल बिहारी वाजपेयी]] के संपादकत्व में ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ साप्ताहिक का अवतरण स्वाधीन भारत में स्वाधीनता आन्दोलन के प्रेरक आदर्शों एवं राष्ट्रीय लक्ष्यों का स्मरण दिलाते रहने के संकल्प का उद्घोष ही था।
 
स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी पत्रकारिता के लिए यह कम गौरव की बात नहीं है कि किसी व्यक्तिगत स्वामित्व अथवा औद्योगिक घराने की छत्रछाया से बाहर रहकर भी ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ साप्ताहिक अपनी स्वर्ण जयंती मना चुका है और उस स्वर्ण जयंती वर्ष में उसके प्रथम संपादक भारत के प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि जब ‘[[धर्मयुग]]‘, ‘[[दिनमान]]‘, ‘[[साप्ताहिक हिन्दुस्तान]]‘, ‘[[रविवार]]‘ जैसे प्रतिष्ठित और साधन सम्पन्न साप्ताहिक असमय ही कालकलवित हो गए, ऐसे में साधनविहीन ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ न केवल अपनी जीवन यात्रा को अखंड रख सका अपितु आज सर्वाधिक प्रसार संख्या वाले, साप्ताहिकों के बीच प्रथम पंक्ति में खड़ा है। ‘पाचजन्य‘ की सफलता का एकमात्र रहस्य यही हो सकता है कि उसका जन्म मुनाफाखोर, व्यावसायिकता के बजाय समाजनिष्ठ ध्येयवादी पत्रकारिता में से जन्म हुआ है। ध्येयवादी पत्रकारिता की यात्रा कभी सरल और सुगम नहीं हो सकती। इसलिए ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ की यात्रा स्वातंत्रयोतर ध्येय समर्पित और आदर्शवादी पत्रकारिता के संघर्ष की यशोगाथा है।
 
[[अटल बिहारी वाजपेयी|अटल जी]] के बाद ‘पांचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ के सम्पादक पद को सुशोभित करने वालों की सूची में राजीव लोचन अग्निहोत्री, ज्ञानेन्द्र सक्सेना, गिरीश चन्द्र मिश्र, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, तिलक सिंह परमार, यादव राव देशमुख, वचनेश त्रिपाठी, [[केवल रतन मलकानी]], [[देवेन्द्र स्वरुप]], दीनानाथ मिश्र, भानुप्रताप शुक्ल, रामशंकर अग्निहोत्री, प्रबाल मैत्र, [[तरुण विजय]] जैसे नाम आते हैं। नाम बदले होंगे पर ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ की निष्ठा और स्वर में कभी कोई परिवर्तन नहीं आया। वे अविचल रहे।
 
किन्तु एक ऐसा नाम है जो इस सूची में कहीं नहीं है। परन्तु वह इस सूची के प्रत्येक नाम का प्रेरणा स्रोत कहा जा सकता है जिसने सम्पादक के रूप में अपना नाम कभी नहीं छपवाया, किन्तु जिसकी कल्पना में से ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ का जन्म हुआ, वह नाम है पं० [[दीनदयाल उपाध्याय]]। वस्तुत: जिस [[राष्ट्रधर्म प्रकाशन]] के तत्वावधान में लखनऊ से ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ उसका बीजारोपण पं० दीनदयाल उपाध्याय की पहल पर हो चुका था, जिन्होंने ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ के शैशव काल में सम्पादक से लेकर प्रूफ रीडर, कम्पोजिटर, मुद्रक और कभी-कभी बंडल बांधने, उन्हें ले जाने के सब दायित्वों का निर्वाह करते हुए ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ का पालन पोषण किया। उन्होंने ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ के सम्पादक पद पर अपना नाम नहीं दिया पर वे सही अर्थों में ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ के जन्मदाता और पालकर्ता थे। वे महान मौलिक चिन्तक और कलम के धनी थे। पर वे स्वयं सम्पादक नहीं बने बल्कि उन्होंने सम्पादकों की निर्मिति की। १९६८ में अपनी असामयिक मृत्यु तक वे ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ के वास्तविक मार्गदर्शक थे। वे सम्पादक नहीं, सम्पादकों के गुरु थे। १९६८ तक ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ के वास्तविक मार्गदर्शक थे। वे सम्पादक नहीं, सम्पादकों के गुरु थे। १९६८ तक ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ में उन्होंने बहुत लिखा। अनेक नाम से लिखा। उन्होंने स्वातंत्रयोतर पत्रकारिता में प्रसिद्धि परांमुख, ध्येय समर्पित पत्रकारिता का एक दुलर्भ उदाहरण प्रस्तुत किया। उनकी पावन स्मृति ही ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ की कठिन ध्येय यात्रा का पाथेय है। एक प्रकार से ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ उनके चिन्तन तंत्र का अखंड प्रवाह है, उनकी पावन स्मृति का अक्षय केन्द्र है।
 
पं० दीनदयाल जी जैसे प्रसिद्धि परांमुख ध्येयनिष्ठ व्यक्तित्व की भावभूमि पर टिका होने के कारण ही ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ साधनविहीन होने पर भी सत्ता की ओर से आने वाले अनेक विपरीत प्रवाहों को झेलकर भी अपने ध्येय पथ पर बढ़ता रहा। उसके जन्म का एक माह भी पूरा नहीं हुआ था कि गांधी हत्या सेप्रक्षाभित वातावरण का लाभ उठाकर सरकार ने फरवरी, १९४८ में ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ का गला घोंटने की कोशिश की। उसके सम्पादक, प्रकाशक और मुद्रक को जेल में बंद कर दिया, उसके कार्यालय पर ताला ठोक दिया। साढ़े चार माह बाद न्यायालय की कृपा से ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ का पुन: प्रकाशन संभव हो पाया। छ: महीने निकलने के बाद दिसम्बर, १९४८ में ‘पाचजन्य‘ पर फिर हमला करके सात माह के लिए उसके मुंह पर ताला ठोंक दिया गया। जुलाई, १९४९ में यह ताला हटते ही ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ का शंखनाद पूर्ववत्‌ गूंज उठा। राष्ट्र हित में ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ का निर्भीक स्वर सरकारों के लिए हमेशा सरदर्द बना रहा। १९५९ में कम्युनिस्ट चीन द्वारा तिब्बत की स्वाधीनता के अपहरण और दलाई लामा के निष्कासन के समय ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ ने नेहरु जी की अदूरदर्शिता और चीन की नीति की निर्भय होकर आलोचना की। १९६२ में भारत पर चीन के हमले के लिए ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ ने नेहरु जी की असफल विदेश नीति एवं रक्षा नीति को दोषी ठहराया, जिससे तिल मिलाकर नेहरु सरकार ने ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ को धमकी भरा नोटिस दिया। १९७२ में भारतीय सेनाओं की विजय को शिमला समझौते की मेज पर गंवा देने के विरूद्ध ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ के आक्रोश से तिलमिलाकर इंदिरा सरकार ने ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ के सम्पादकों एवं प्रकाशकों को लम्बे समय तक कानूनी कार्यवाही में फंसाए रखा। जून, १९७५ में इंदिरा गांधी ने आपात स्थिति की घोषणा करके भारतीय लोकतंत्र का गला घोंटने की कोशिश की गई और मार्च, १९७७ में आपातकाल की समाप्ति पर ही ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ पुन: अपनी ध्येययात्रा आरंभ कर सका। ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ के निर्भीक स्वर से तिलमिलाकर लोगों एवं सरकार द्वारा दायर किए गए मुकदमों की सूची बहुत लम्बी है। ‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ के सम्पादकों एवं प्रकाशकों का एक पैर हमेशा न्यायालय में रहा है।
 
‘पाचजन्य‘‘पाञ्चजन्य‘ की यात्रा साधनों के अभाव एवं सरकारी प्रकोपों के विरूद्ध राष्ट्रीय चेतना की जिजीविषा और संघर्ष की प्रेरणादायी गाथा है। ‘पाचजन्य‘ द्वारा समय-समय पर घोषित ध्येय वाक्यों जैसे ‘राष्ट्रीयता का प्रहरी‘, ‘सांस्कृतिक चेना का अग्रदूत‘ या ‘राष्ट्रीय स्वाभिमान एवं शौर्य का स्वर‘ से स्पष्ट है कि ‘पाचजन्य‘ राष्ट्रीय पुननिर्माण के पथ पर स्वाधीन भारत की यात्रा को स्वाधीनता आंदोलन की मूल प्रेरणाओं से जोड़े रखने के लिए खतरा उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों एवं शक्तियों को चेतावनी का स्वर निर्भीकता के साथ बार-बार गुंजाता रहा। समय-समय पर प्रारंभ किए गए स्तम्भों से स्पष्ट होता है कि राष्ट्र जीवन का कोई भी क्षेत्र या पहलू उसकी दृष्टि से ओझल नहीं रहा। अन्तर्राष्ट्रीय घटनाचक्र हो या राष्ट्रीय घटना चक्र, अर्थ जगत, शिक्षा जगत, नारी जगत, युवा जगत, राष्ट्र चिन्तन, सामयिकी, इतिहास के झरोके से, फिल्म समीक्षा, साहित्य समीक्षा, संस्कृति-सत्य जैसे आदि अनेक स्तंभ ‘पाचजन्य‘ की सर्वांगीण रचनात्मक दृष्टि के परिचायक है।
 
‘पाचजन्य‘ के लेखक वर्ग में [[सम्पूर्णानन्द|डॉ॰ सम्पूर्णानन्द]], [[पुरुषोत्तम दास टण्डन|राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन]], [[राममनोहर लोहिया|डॉ॰ राममनोहर लोहिया]], [[आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी]], [[अमृतलाल नागर]], [[महादेवी वर्मा]], [[किशोरी दास वाजपेयी]], [[कृष्णचन्द प्रकाश मेढ़े]] जैसे मूर्धन्य विचारकों राजनेताओं तथा साहित्यकारों का योगदान रहा हैं। इनके अतिरिक्त ‘पाचजन्य‘ ने विभिन्न राजनैतिक दलों के शिखर नेताओं के साक्षात्कार प्रकाशित करके राष्ट्रीय समस्याओं पर बहस चलाने की सार्थक कोशिश की है। ऐसे नेताओं में मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, चन्द्रशेखर, मुलायम सिंह यादव, शरद पवार, शरद यादव, ए० बी० वर्धन, एम० फारूखी, मौलाना वहीदुदीन खान आदि के नाम गिनाए जा सकते है। इस समय भी जगमोहन, अरुण शौरी व जे०एन० दीक्षित जैसे विचारक ‘पाचजन्य‘ के नियमित लेखक हैं।