→‎भारतीय दर्शन में नास्तिक: मीमांसा दर्शन वेदों में विश्वास रखता था।ईसका मूल वैदिक कर्मकांड के समर्थन में था। ईसलिए उसे नास्तिक विचार नही कह सकते।
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ईश्वरवादी कहते है कि मनुष्य के मन में ईश्वरप्रत्यय जन्म से ही है और वह स्वयंसिद्ध एवं अनिवार्य है। यह ईश्वर के अस्तित्व का द्योतक है। इसके उत्तर में अनीश्वरवादी कहते हैं कि ईश्वरभावना सभी मनुष्यों में अनिवार्य रूप से नहीं पाई जाती और यदि पाई भी जाती हो तो केवल मन की भावना से बाहरी वस्तुओं का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। मन की बहुत सी धारणाओं को विज्ञान ने असिद्ध प्रामाणित कर दिया है। जगत में सभी वस्तुओं का कारण होता है। बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता। कारण दो प्रकार के होते हैं-एक उपादान, जिसके द्वारा कोई वस्तु बनती है और दूसरा निमित्त, जो उसको बनाता है। ईश्वरवादी कहते हैं कि घट, पट और घड़ी की भाँति समस्त जगत् भी एक कार्य (कृत घटना) है अतएव इसके भी उपादान और निमित्त कारण होने चाहिए। कुछ लोग ईश्वर को जगत का निमित्त कारण और कुछ लोग निमित्त और उपादान दोनों ही कारण मानते हैं। इस युक्ति के उत्तर में अनीश्वरवादी कहते हैं कि इसका हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है कि घट, पट और घड़ी की भाँति समस्त जगत् भी किसी समय उत्पन्न और आरंभ हुआ था। इसका प्रवाह अनादि है, अत: इसके स्रष्टा और उपादान कारण को ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं है। यदि जगत का स्रष्टा कोई ईश्वर मान लिया जाय जो अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा; यथा, उसका सृष्टि करने में क्या प्रयोजन था? भौतिक सृष्टि केवल मानसिक अथवा आध्यात्मिक सत्ता कैसे कर सकती है? यदि इसका उपादान कोई भौतिक पदार्थ मान भी लिया जाय तो वह उसका नियंत्रण कैसे कर सकता है? वह स्वयं भौतिक शरीर अथवा उपकरणों की सहायता से कार्य करता है अथवा बिना उसकी सहायता के? सृष्टि के हुए बिना वे उपकरण और वह भौतिक शरीर कहाँ से आए? ऐसी सृष्टि रचने से ईश्वर का, जिसको उसके भक्त सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और कल्याणकारी मानते हैं, क्या प्रयोजन है, जिसमें जीवन का अंत मरण में, सुख का अंत दु:ख में संयोग का वियोग में और उन्नति का अवनति में हो? इस दु:खमय सृष्टि को बनाकर, जहाँ जीव को खाकर जीव जीता है और जहाँ सब प्राणी एक दूसरे शत्रु हैं और आपस में सब प्राणियों में संघर्ष होता है, भला क्या लाभ हुआ है? इस जगत् की दुर्दशा का वर्णन योगवशिष्ठ के एक श्लोक में भली भाँति मिलता है, जिसका आशय निम्नलिखित है--
 
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कौन सा ऐसा ज्ञान है जिसमें त्रुटियाँ न हों? कौन सी ऐसी दिशा है जहाँ दु:खों की अग्नि प्रज्वलित न हो? कौन सी ऐसी वस्तु उत्पन्न होती है जो नष्ट होने वाली न हो? कौन सा ऐसा व्यवहार है जो छलकपट से रहित हो?
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ऐसे संसार को रचने वाला सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और कल्याणकारी ईश्वर कैसे हो सकता है?
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| quote = सिर्फ इसलिए कि विज्ञान प्रयोग में, समझा नहीं सकता जैसे प्यार जो कविता लिखने के लिए कवि को प्रेरित करता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि धर्म कर सकता है। यह कहने के लिए एक सरल और तार्किक भ्रांति हैं' कि, 'यदि विज्ञान कुछ ऐसा नहीं कर सकता है, तो धर्म कर सकता है।-[[रिचर्ड डॉकिन्स]]'}}
 
ईश्वरवादी एक युक्ति यह दिया करते हैं कि इस भौतिक संसार में सभी वस्तुओं के अंतर्गत और समस्त सृष्टि में, नियम और उद्देश्य सार्थकता पाई जाती है। यह बात इसकी द्योतक है कि इसका संचालन करनेवाला कोई बुद्धिमान ईश्वर है इस युक्ति का अनीश्वरवाद इस प्रकार खंडन करता है कि संसार में बहुत सी घटनाएँ ऐसी भी होती हैं जिनका कोई उद्देश्य, अथवा कल्याणकारी उद्देश्य नहीं जान पड़ता, यथा अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, बाढ़, आग लग जाना, अकालमृत्यु, जरा, व्याधियाँ और बहुत से हिंसक और दुष्ट प्राणी। संसार में जितने नियम और ऐक्य दृष्टिगोचर होते हैं उतनी ही अनियमितता और विरोध भी दिखाई पड़ते हैं। इनका कारण ढूँढ़ना उतना ही आवश्यक है जितना नियमों और ऐक्य का। जैसे, समाज में सभी लोगों को राजा या राज्यप्रबंध एक दूसरे के प्रति व्यवहार में नियंत्रित रखता है, वैसे ही संसार के सभी प्राणियों के ऊपर शासन करनेवाले और उनको पाप और पुण्य के लिए यातना, दंड और पुरस्कार देनेवाले ईश्वर की आवश्यकता है। इसके उत्तर में अनीश्वरवादी यह कहता है कि संसार में प्राकृतिक नियमों के अतिरिक्त और कोई नियम नहीं दिखाई पड़ते। पाप और पुण्य का भेद मिथ्या है जो मनुष्य ने अपने मन से बना लिया है। यहाँ पर सब क्रियाओं की प्रतिक्रियाएँ होती रहती हैं और सब कामों का लेखा बराबर हो जाता है। इसके लिए किसी और नियामक तथा शासक की आवश्यकता नहीं है। यदि पाप और पुण्य के लिए दंड और पुरस्कार का प्रबंध होता तथा उनको रोकने और करानेवाला कोई ईश्वर होता; और पुण्यात्माओं की रक्षा हुआ करती तथा पापात्माओं को दंड मिला करता तो ईसामसीह और गांधी जैसे पुण्यात्माओं की नृशंस हत्या न हो पाती।