"जैमिनि": अवतरणों में अंतर

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कुछ विद्वानों का कहना है कि पूर्व ओर उत्तरमीमांसा तथा संकर्षणकांड; ये सभी एक ही साथ लिखे गए। पूर्वमीमांसा 12 अध्यायों में तथा संकर्षणकांड 4 अध्यायों में जैंमिनि के नाम से तथा उत्तरमीमांसा (वेदांतसूत्र) 4 अध्यायों में बादरायण के नाम से प्रसिद्ध हुई। जब बादरायण तथा जैमिनि दोनों गुरु-शिष्य थे तब दोनों ने परस्पर मिलकर ही ये सभी लिखे हों तो कोई आश्चर्य नहीं।
 
मीमांसा सूत्र के प्रथम अध्याय का प्रथम पाद "तर्कपाद" नाम से प्रसिद्ध है। इसमें मीमांसा के अनुसार दार्शनिक विचार हैं। धर्म की जिज्ञासा से ग्रंथ आरंभ होता है। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव तथा शब्द - ये छ: [[प्रमाण]] इन्होंने माने हैं। प्रमाण में स्वत:प्रामाण्य ये मानते हैं। धर्म के लिये एकमात्र वेद प्रमाण है। वेद को अपौरुषेय जैमिनि मानते हैं। शब्द और अर्थ में नित्यसंबंध ये मानते हैं। शरीरादि से भिन्न एक पदार्थ "आत्मा" इन्होंने स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त अपूर्व, स्वर्ग, मोक्ष भी जैमिनि ने माना है। ईश्वर को साक्षात् मानने की चर्चा इन्होंने नहीं की है। इन्हीं को लेकर अन्य दार्शनिक विचार भी हैं।
 
जैमिनि, [[जनमेजय]] के सर्पयज्ञ में "ब्रह्मा" बनाए गए थे (महाभारत, आदिपर्व 53.6)। [[युधिष्ठिर]] की सभा में ये विद्यमान थे (महाभारत, सभापर्व, 4.11) और शरशय्या पर पड़े हुए भीष्मपितामह को देखने गए थे (महाभारत, शांतिपूर्व 47.6)। पुराणों में लिखा है कि जैमिनि "वज्रवारक" थे (शब्द कल्पद्रुम, पं॰ 345 बंगला संस्करण)