"चित्रकूट धाम": अवतरणों में अंतर

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चित्रकूट का यह नाम क्यों ?
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by sujan tiwari
 
'''उत्पत्ति एवं रहस्य –'''
चित्रकेतु ऋषि से चित्रकूट –पुत्र के वियोग से वैराग्य प्राप्त किए हुए
 
अनेक रहस्यों से भरे हुए चित्रकूट को मान्यवर कवियों ने विभिन्न प्रकार से रहस्योद्घाटित किया है | एक प्रसंग के अनुसार चित्रकूट पर्वतो में सर्वश्रेष्ठ मेरु पर्वत का एक अंश (श्रृंग)है | गीता में भगवान ने इसे अपना स्वरुप माना है –
 
'''रुद्राणाम शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् ||'''
 
'''वसूनाम पावकश्चास्मि मेरु: शिखरिणामहम् ||'''
 
'''  -'''एक वार प्रलयंकारी तूफ़ान ने समूची सृष्टि को अस्त व्यस्त कर दिया |सम्पूर्ण पर्वतों में श्रेष्ठ मेरु की सुरक्षा के लिए भगवान बिष्णु ने गरुण को भेजा | गरुण जी ने अपने विशालकाय पंखों से मेरु को आच्छादित कर दिया किन्तु मेरु को पवन से युद्ध करने की इच्छा थी | इस उत्सुकता को देखने के लिए गरुण जी ने मेरु को ढीला कर दिया जिसके कारण दो श्रृंग उखड गए और पृथ्वी पर आ गिरे |इन्ही श्रृंगो में एक का नाम चित्रकूट तथा दूसरे का नाम गोवर्धन पड़ा | '''                                               -चित्रकूट रहस्य , सुखसागर'''
 
'''चित्रकेतु ऋषि से चित्रकूट –'''पुत्र के वियोग से वैराग्य प्राप्त किए हुए महर्षि चित्रकेतु सुमेरु पर्वत पर समाधिस्थ थे ऐसी अवस्था में पवन देव द्वारा उडाये जा रहे मेरु श्रृंग को देख कर कूपित हुए और कहा की तुम मुझे पुनः मेरु पर स्थापित करो अन्यथा श्राप दे दूंगा |श्राप के भय से पवन देव चित्रकेतु की तपस्थली वाचक मेरु श्रृंग को सुमेरु में स्थापित करने के लिए चल दिए | रास्ते में ऋषि ने कहा तुम मुझे सम्पूर्ण सृष्टि का दर्शन कराओ जो स्थान मुझे उपयुक्त लगेगा मुझे वहीँ स्थापित करना | पवन देव समूची धरती पर भ्रमण करते रहे किन्तु ऋषि को कोई स्थान उपयुक्त नहीं लगा | विभिन्न वन पर्वतो को पार करते हुए पवन देव जैसे ही नील पर्वत के समीप पहुंचे ऋषि ने उन्हें उपयुक्त स्थल का संकेत दिया |दिव्य पर्वत सुमेरु का यथेष्ट अंश यह श्रृंग पवन देव द्वारा रजत एवं सुवर्ण कान्ति से आलोकित नील पर्वत के कटिप्रदेश में स्थापित कर दिया गया | महर्षि चित्रकेतु द्वारा स्थापित होने के कारण यह अलौकिक सुमेरु खंड चित्रकूट ही तो है |                            '''(सन्दर्भ –पद्म पुराण, वायु पुराण ,सुखसागर)'''
 
'''चित्र और कूट के अर्थो में चित्रकूट –'''चित्रकूट असंख्य मूर्धन्य तत्वदर्शी साधको का साधना स्थली रहा है |इस देवोपम तपस्थली को चित्रकूट से सम्बोधित किये जाने का रहस्य क्या है यह अत्यंत असाधारण तथ्य है | चित्रकूट में प्रयुक्त शब्द '''चित्र''' और '''कूट''' का नैसर्गिक पर्याय आज भी उतने अंशो में ही समग्रता के साथ स्वीकार किया जाता है इस तथ्य में मतभेद हो सकता है किन्तु इनके अर्थो को आर्ष साहित्यों ने ससम्मान सहेज रखा है |हम इस तथ्य को मानने से परहेज नहीं करते की किसी स्थान संज्ञक वस्तु का नामकरण करने के लिए यह आवश्यक नहीं कि उसके अर्थ में उसको समग्रता से प्रेक्षित किया गया हो तथापि अधिकांश नामों से तथाकथित वस्तु की गरिमा ,भाषा एवं संस्कृति का आशय अवस्य निहित होता है | किसी नाम से उसकी पारंपरिक सभ्यता की व्याख्या का प्रचलन आज भी द्रष्टव्य है |
 
   किसी संबोधन निर्माण के लिए तदर्थ में कुछ कारक गौरतलव हैं –
 
<nowiki>*</nowiki>'''वस्तु की प्रकृति''' –किसी वस्तु को संबोधित करने के लिए उसकी प्रकृति को ध्यान में रखा जाता है |इसके लिए उसकी जाति ,लिंग ,स्वरूप ,आकार ,क्षेत्र ,रंग ,अवस्था,विकृति आदि की पुष्टि का परिपालन किया जाता है |
 
'''*व्यक्तित्व (विशेषण) –'''वस्तु में परिलक्षित गुण दोष उसके परिचय को स्पष्ट कर देते हैं इस आधार पर संबोधक को उसकी विशेषता हाथ में रखे गेंद की तरह ज्ञात हो जाती है| जैसे आँख के अंधे को सूरदास का सम्बोधन |
 
'''*संबोधक –'''संवोधन जिसके द्वारा किया जाएगा उसकी दृष्टि भी होगी | यह बात अप्रतिम महत्वपूर्ण है की संबोधक कौन है ?ऋषियों की वाणी को ऋचा से सम्बोधित किया जाता है | राजा की वाणी से देश का भविष्य निर्धारित हो जाता है | सेनापति के आदेश से महायुद्ध निर्मित हो जाता है | न्यायाधीश द्वारा निर्णित संवोधन कानून बन जाते हैं | एक गाली से गोली चल जाती है | विक्षिप्त द्वारा बोले जा रहे दुर्वचनो को किसी भी चेतन तंत्र द्वारा प्रतिकार नहीं किया जाता | नंगे पागल और नग्न  साधू एक वेश में होते हुए भी प्रत्येक के सम्बोधन को अनंत अन्तरो में महत्व दिया जाता है | उक्त अवलोकनों से स्पष्ट होता है कि सम्वोधक का व्यक्तित्व जितना ही उत्कृष्ट होगा संबोधन उतना ही विचारणीय | जिस वस्तु का संवोधन किसी तत्वदर्शी द्वारा होगा उसके अर्थ भी गहन होंगे | '''चित्रकूट''' भी इसी सन्दर्भ में प्रासंगिक है |
 
     चित्रकूट दो अलग अलग शब्दों से अतिव्याप्त सामासिक शब्द है | सामान्यतः इसमें निहित अर्थो को जान लेने से नैसर्गिक अर्थ के परिप्रेक्ष्य में समझना अधिक आसान हो सकता है | इतने महत्वपूर्ण विषय को गलत अर्थो में परिभाषित करने का अपना स्वप्न में भी उद्देश्य नहीं हो सकता  | चित्रकूट की यथेष्ट परिभाषा ,देश ,काल, भाषा एवं संस्कृति के आधार पर उसी मूल्य में प्रस्तुत किया जाना, मेरी साहित्य के प्रति निष्ठा का विषय  है |  चित्रकूट की निष्ठा का नहीं |
 
   चित्रकूट में '''चित्र''' और '''कूट''' दो उपशब्द हैं | प्राचीन आर्ष ग्रंथो में दोनों ही यथेष्ट अर्थो में प्रयुक्त होकर काव्य सौन्दर्य की पुष्टि करते रहे हैं | चित्र को सम्पूर्ण अर्थो में समग्रता के साथ चित्र के आशय से ही स्वीकार किया गया है यथा –
 
'''मल्लिका पुष्प चित्रश्च धन्यो भवति पुंगवः ||'''
 
'''कमलैर्मंडलेश्चापि चित्रो भवति भाग्यदः ||'''
 
'''                       (मत्स्य पुराण २०७/२५ )'''
 
-जो वृष मल्लिका के फुल के समान '''चितकबरे''' रंग वाला होता है वह धन्य है.....जो कमल मंडल के समान '''चितकबरा''' होता है वह सौभाग्य बर्धक होता है |
 
  उक्त श्लोक में चित्र का आशय रंग की प्रकृति को चित्रित करने के लिए प्रयुक्त है | मल्लिका के फूल अथवा कमल मंडल की आकृति  से नहीं अपितु प्रकृति  से निबद्ध तश्वीर जिससे चितकबरे रंग का वोध हो | यह भी चित्र ही है लेकिन दार्शनिक ,चेतना के पटल को विम्बित करने वाला | यदि रंग वोध नहीं तो चित्र नहीं | चित्र कूट में इसी चेतना विम्ब को आभाषित कराया गया है  |
 
     कूट शब्द को संस्कृत एवं हिंदी साहित्यों में अनेक अर्थो में प्रयुक्त किया गया है | लौकिक शब्दों में इसके विभिन्न अर्थ हो सकते है –
 
<nowiki>*</nowiki>गूढोक्ति पहेली
 
<nowiki>*</nowiki>कोई रहस्य पूर्ण वाट
 
<nowiki>*</nowiki> मिथ्या ,झूठ,असत्य
 
<nowiki>*</nowiki>कपट ,छल
 
<nowiki>*</nowiki> पर्वत ,शिखर ,चोटी
 
<nowiki>*</nowiki>काव्य शास्त्र –क्लिष्ट या सांकेतिक शब्द या वाक्य जैसे- सूर के कूट पद  
 
<nowiki>*</nowiki>दुर्ग, किला
 
<nowiki>*</nowiki>हथौड़ा
 
<nowiki>*</nowiki>जाल (हरिणों के फ़साने का फंदा )
 
<nowiki>*</nowiki>वनावटी
 
<nowiki>*</nowiki>कूतना,अनुमान लगाना जैसे –खालिहोनो में अनाज कूत लिया जाता है
 
<nowiki>*</nowiki>प्रकाशित कोशो से – सिंग ,पहाड़ की ऊची चोटी
 
<nowiki>*</nowiki>बड़ी राशि (अनाज की )
 
आर्ष ग्रंथो में कूट को शिखर ,चोटी ,उत्कृष्ट ,उन्नत ,ऊचाई आदि आशय के लिए यथा स्थानों पर प्रयुक्त किया गया है यथा –
 
'''अम्लानपंकजच्छ्न्ना विस्तीर्णा योजनायता: ||'''
 
'''गिरिकूटनिभास्तत्र प्रासादा रत्नभूषिताः ||'''
 
'''                  (मत्स्य पुराण १८८/२८ )'''
 
वहां रत्नों से विभूषित पर्वत '''शिखर''' के समान राजभवन अग्नि के द्वारा भष्म होकर गिर रहे थे |
 
'''रत्नाचितानि शोभन्ते पुरान्यमरविद्विषाम् ||'''
 
'''प्रासादशतजुष्टानि   कूटागारोत्कटानि च || '''
 
'''                          (मत्स्य पुराण १३३/१४ )'''
 
उनके पुर रत्न खचित होने के कारण विशेष शोभा पा रहे थे | वे सैकड़ो महलो से युक्त थे | उनमे '''ऊंचे''' '''ऊँचे''' कूटागार (छत के ऊपर की कोठरियां ) बने थे |
 
'''ज्ञान विज्ञान तृप्तात्मा  कूटस्थो विजितेन्द्रियः ||'''
 
'''युक्त इत्युच्यते योगी  समलोष्टाश्मकान्चन:  ||'''
 
'''                                  (गीता ६ /८ )'''
 
जिसका अंतःकरण ज्ञान- विज्ञान से तृप्त है,जिसकी स्थिति विकार रहित '''( कामादि विकारों से जीते हुए मन की उच्च अवस्था में )''' है,जिसकी इन्द्रियाँ भली भाँति जीती हुई हैं और जिसके लिए मिटटी ,पत्थर और सुवर्ण समान है ,वह योगी युक्त अथवा भगवत्प्राप्त है ,ऐसा कहा जाता है |
 
<nowiki>****************************</nowiki>
 
तत्वदर्शी ऋषियो की साधना स्थली का नाम ऋषियो ने ही रखा तो इस नाम में तात्विक- दृष्टि ही सर्वथा अपेक्षित है | वेद की ऋचाओं के अर्थ भाख्य उनके संकेतो की प्रगति का अवलोकन करने से स्पस्ट हो पाता  है | चित्रकूट भारतीय संस्कृति का  संस्थापक ,शोध स्थल  एवं आध्यात्म विज्ञान का कालजयी केंद्र रहा है इस तथ्य के लिए पर्याप्त साक्ष्य मिल चुके हैं | अतः चित्रकूट के लिए उसके गरिमा के अनुरूप संवोधित नाम का आशय तदनुरूप दृष्टि से किया जाना ही यथेष्ट है |
 
        अनंत काल से तपस्वीयों ने इस पूण्य क्षेत्र को आध्यात्मिक ऊर्जा से सम्पन्न कर दिया है अतः '''विकल''' कवि  ने इसे '''ऋषीणाम चेतनायाःकूट: स: चित्रकूट:( ऋषियो की चेतना का समूह ही चित्रकूट है )''' से परिभाषित किया है | यह व्याख्या सर्वतो भावेन ग्राह्य एवं गरिमामय है | कवि के अनुसार चित्र '''चिद्''' धातु तथा '''ऋत''' प्रत्यय से मिलकर वना है तदनुसार चिद से चेतना एवं ऋत से ऋषि का तात्पर्य लगाया जाकर चित्र को ऋषियों की चेतना से एवं कूट को समूह से अन्वयित किया गया है | चिद् चेतना का वह उच्चतम सोपान है जो सत्य को धारण करने में समर्थ होती है | चिद् द्वारा सत्य को धारण करने में जो अप्रतीम सुख प्राप्त होता है उसे सच्चिदानंद से संवोधित किया जाता है | यही परमात्मा का स्वरूप भी है |
 
'''नमः सच्चिदानंद      रूपाय परमात्मने |'''
 
'''ज्योतिर्मय स्वरूपाय विश्व मांगल्य मूर्तये ||'''
 
''' ''' उक्त अर्थ के लिए नियुक्त चेतना को असंख्य ऋषियों ने जिस क्षेत्र में धारण किया हो वह '''चित्रकूट''' ही तो है |
 
'''   कूट''' उच्चता का प्रतीक है | स्थल से ऊँचा पर्वत और पर्वत से ऊंचा शिखर | शिखर अर्थात चरम विन्दु | शिखर का अंत अर्थात अनंत | जब हम शिखर पर होंगे तो उस लक्ष्य को प्राप्त कर चुके होंगे जिसके लिए यात्रा किये थे | चित्र अर्थात अभिष्ट की प्राप्ति के लिए प्रकल्पित सतगुरु का चित्र | जब हम किसी आध्यात्मिक वातावरण में चित्र निर्माण करेंगे तो इसकी खूबसूरती आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से ही होगी | अभिष्ट प्राप्ति के लिए निर्मित चित्र एकलव्य की तरह बनाया जाएगा | फिर तो द्रोणाचार्य (सतगुरु) की मूर्ति ही बन पड़ेगी जिसके सूक्ष्म संरक्षण में की जाने वाली साधना से अभिष्ट को प्राप्त किया जा सके |
 
    अतः चित्रकूट तत्वदर्शियो द्वारा संबोधित वह देवोपम साधना स्थल है जहाँ पर साधकों द्वारा जीवन के अंतिम शिखर (मोक्ष ) को प्राप्त करने के लिए सतगूरू का चित्र बनाया जाता रहा है | हम इसे और अधिक स्पष्ट कर सकते हैं –
 
          '''“ चित्रकूट इश्वर प्राप्ति के लिए किए गए अनुसंधानों की प्रयोग शाला है “ |[https://www.facebook.com/1539328926132644/photos/1650955141636688/]'''
 
महर्षि चित्रकेतु सुमेरु पर्वत पर समाधिस्थ थे ऐसी अवस्था में पवन देव
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Note-These materials are taken by the own book . #Chitrakoot Ek Rahasya ..and reserved by the act of copyright ..{{Infobox Indian Jurisdiction |
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| नगर का नाम = चित्रकूट
| प्रकार = शहर