"द्वंद्वात्मक तर्कपद्धति": अवतरणों में अंतर
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इसको अत्यंत सुलझा हुआ एवं स्पष्ट रूप [[सुकरात]] (साक्रेटीज) ने दिया। प्रश्न और उत्तर के माध्यम से समस्या पर विचार करते हुए समन्वय की ओर उत्तरोत्तर बढ़ते जाना इस पद्धति की मूल विशेषता है। [[अफलातून]] (प्लेटो) ने अपने संवादों में सुकरात को महत्वपूर्ण स्थान दिया है, जिससे पता चलता है कि वे इस पद्धति के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि थे। अफलातून ने द्वंद्वात्मक तर्क को परमज्ञान का सिद्धांत माना है। उनका [[प्रत्ययों का सिद्धांत]] इसी पद्धति पर आधारित है। द्वंद्वात्मक तर्क की विषयवस्तु ज्ञान मीमांसा एवं वास्तविकता का स्वभाव है। अफलातून के अनुसार यह वैज्ञानिक विधि अन्य सभी विधियों से श्रेष्ठ है, क्योंकि इसके माध्यम से स्पष्टतम ज्ञान प्राप्त होता है। इसलिए द्वंद्वात्मक तर्कज्ञान परमज्ञान है।
अरस्तू ने इसे अधिक तार्किक रूप देने का प्रयास किया। उनके अनुसार इस तर्क की पद्धति साधारण लोकमतसम्मत मान्यताओं से प्रारंभ होती है। फिर आलोचना प्रत्यालोचना की प्रक्रिया में उसका सर्वेक्षण परीक्षण इत्यादि होता है। इसी प्रक्रिया में निरीक्षण के सिद्धांत अन्वेषित कर लिए जाते हैं। इस प्रकार द्वंद्वात्मक तर्क आरंभ से ही
कांट की इस अंतर्दृष्टि का लाभ [[हेगेल]] ने उठाया। वास्तव में हेगेल ही द्वंद्वात्मक तर्क के आधुनिक व्याख्याता हैं। उनके अनुसार द्वंद्वात्मक तर्क मूलत: मननात्मक विचारों की विशिष्ट प्रकृति है। ये विचार प्रणाली या सामान्य के स्वभाव को व्यक्त करते हैं। इसकी गति में तीन क्षण आते हैं, क्रम से जिन्हें वार, प्रतिवाद और संवाद कहा गया है। इस प्रकार द्वंद्वात्मक तर्क की प्रवृत्ति समन्वय की ओर उन्मुख होती है। समन्वय या संवाद, वाद एवं प्रतिवाद की उच्चतर एकता है, यद्यपि यह दोनों से भिन्न होता है, फिर भी दोनों उसमें उन्नत रूप में प्रस्तुत रहते हैं। इस प्रकार यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि द्वंद्वात्मक तर्क विचारों की गति से संबंधित है। हेगेल के अनुसार परम सत्य या निरपेक्ष सत्य स्वयं को इसी रूप में व्यक्त करता है। हेगेल के तर्कशास्त्र में सर्वाधिक महत्व इसी पद्धति का है। वे किसी भी तरह की समस्या को पहचानने के लिए द्वंद्वात्मक तर्क का उपयोग करते हैं। उनके अनुसार द्वंद्वात्म्क तर्क ही उनकी पद्धति का मूल तत्व है। उनकी प्रणाली में यह पद्धति प्रत्येक स्थान पर मौजूद है। मूलत: यह निषेध के नियम से गतिशील होती है। किंतु इस निषेधात्मकता के माध्यम से वह समन्यव की ओर ही प्रगति करती है। हेगेल ने परम प्रत्यय की व्याख्या द्वंद्वात्मक तर्क से प्रस्तुत की है। परम प्रत्यय वस्तुसत्य के रूप में कल्पित किया गया है, किंतु अपने मूल रूप में वह अमूर्त, देशकाल से परे एवं सर्वभक्षी है। इसलिए हेगेल का प्रत्ययवाद तर्क है। इसे आत्मा, चेतना या निर्गुण सत्ता पर लागू करने के बजाए, यदि उसे प्रकृति एवं इतिहास पर लागू किया जाए तो उसे अधिक अर्थवान् रूप दिया जा सकता है।
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