"जयसिंह सिद्धराज": अवतरणों में अंतर
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वयस्क होने और शासनसूत्र सँभालने के पश्चात् जयसिंह ने अपना ध्यान समीपवर्ती राज्यों की विजय की ओर दिया। अनेक युद्धों के अनंतर ही वह सौराष्ट्र के आभीर शासक नवघण अथवा खंगार को पराजित कर सका। विजित प्रदेश के शासन के लिए उसने सज्जन नाम के अधिकारी को प्रांतपाल नियुक्त किया किंतु संभवत: जयसिंह का अधिकार चिरस्थायी नहीं हो पाया। जयसिंह ने चालुक्यों के पुराने शत्रु [[नद्दुल चाहमान राजवंश|नाडोल के चाहमान वंश]] के [[आशाराज]] को अधीनता स्वीकार करने और सामंत के रूप में शासन करने के लिए बाध्य किया। उसने उत्तर में शाकंभरी के चाहमान राज्य पर भी आक्रमण किया और उसकी राजधानी पर अधिकार कर लिया। किंतु एक कुशलनीतिज्ञ के समान उसने अपने पक्ष को शक्तिशाली बनाने के लिए अपनी पुत्री का विवाह चाहमान नरेश अर्णोराज के साथ कर दिया और अर्णोराज को सामंत के रूप में शासन करने दिया। मालव के परमार नरेश नरवर्मन् के विरुद्ध उसे आशाराज और अर्णोराज से सहायता प्राप्त हुई थी। दीर्घकालीन युद्ध के पश्चात् नरवर्मन् बंदी हुआ लेकिन जयसिंह ने बाद में उसे मुक्त कर दिया। नरवर्मन् के पुत्र यशोवर्मन् ने भी युद्ध को चालू रखा। अंत में विजय फिर भी जयसिंह की ही हुई। बंदी यशोवर्मन् को कुछ समय तक कारागार में रहना पड़ा। इस विजय के उपलक्ष में जयसिंह ने अवंतिनाथ का विरुद धारण किया और अंवतिमंडल के शासन के लिए महादेव को नियुक्त किया। किंतु जयसिंह के राज्यकाल के अंतिम वर्षों में यशोवर्मन् के पुत्र जयवर्मन् ने मालवा राज्य के कुछ भाग को स्वतंत्र कर लिया था। जयसिंह ने भिनमाल के परमारवंशीय सोमेश्वर को अपने राज्य के कुछ भाग को स्वतंत्र कर लिया था। जयसिह ने भिनमाल के परमारवंशीय सोमेश्वर को अपने राज्य पर पुनः अधिकार प्राप्त करने में सहायता की थी और संभवत: उसके साथ पूर्वी पंजाब पर आक्रमण किया था। जयसिंह को चंदेल नरेश मदनवर्मन् के विरुद्ध कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं प्राप्त हो सकी। संभवत: मालव में मदनवर्मन् की सफलताओं से आशांकित होकर ही उसने त्रिपुरी के कलचुरि और गहड़वालों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए। कल्याण के पश्चिमी चालुक्य वंश के विक्रमादित्य षष्ठ ने नर्मदा के उत्तर में और लाट तथा गुर्जर पर कई विजयों का उल्लेख किय है। किंतु ये क्षणिक अभियान मात्र रहे होंगे और चालुक्य राज्य पर इनका कोई भी प्रभाव नहीं था। अपने एक अभिलेख में जयसिंह ने पेर्मार्दि पर अपनी विजय का उल्लेख किया है किंतु संभावना है कि पराजित नरेश कोई साधारण राजा था, प्रसिद्ध चालुक्य नरेश नहीं। जयसिंह को सिंधुराज पर विजय का भी श्रेय दिया गया है जो सिंध का कोई स्थानीय मुस्लिम सामंत रहा होगा। जयसिंह ने बर्बरक को भी पराजित किया जो संभवत: गुजरात में रहनेवाली किसी अनार्य जाति का व्यक्ति था और सिद्धपुर के साधुओं को त्रास देता था।
अपनी विजयों के फलस्वरूप जयसिंह ने [[चालुक्य साम्राज्य]] की सीमाओं का जो विस्तार किया वह उस वंश के अन्य किसी भी शासक के समय में
जयसिंह पुत्रहीन था। इस कारण उसके जीवन के अंतिम वर्ष
अपनी विजयों से अधिक जयसिंह अपने सांस्कृतिक कृत्यों के कारण स्मरणीय है। जयसिंह ने कवियों और विद्वानों को प्रश्रय देकर गुजरात को शिक्षा और साहित्य के केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। इन साहित्यकारों में से रामचंद्र, आचार्य जयमंगल, यशः चंद्र और वर्धमान के नाम उल्लेखनीय हैं। श्रीपाल को उसने कवीन्द्र की उपाधि दी थी और उसे अपना भाई कहता था। लेकिन इन सभी से अधिक विद्वान् और प्रसिद्ध तथा जयसिंह का विशेष प्रिय और स्नेहपात्र जिसकी बहुमुखी प्रतिभा के कारण अन्य समकालीन विद्वानों का महत्व चमक नहीं पाया, जैन पंडित [[हेमचंद्र]] था। अपने व्याकरण ग्रंथ [[सिद्धहेमचंद्र]] के द्वारा उसने सिद्धराज का नाम अमर कर दिया है।▼
[[चित्र:Ruins of Rudra Mahalaya at Siddhapur Gujarat India.jpg|300px|right|thumb|रुद्र महालय मन्दिर के भग्नावशेष]]
▲अपनी विजयों से अधिक जयसिंह अपने सांस्कृतिक कृत्यों के कारण स्मरणीय है। जयसिंह ने कवियों और विद्वानों को प्रश्रय देकर गुजरात को शिक्षा और साहित्य के केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। इन साहित्यकारों में से रामचंद्र, आचार्य जयमंगल,
जयसिह [[शैव]]मतावलंबी था। मेरुत्तुंग के अनुसार उसने अपना माता के कहने पर बाहुलोड में यात्रियों से लिया जानेवाला कर समाप्त कर दिया। लेकिन धार्मिक मामले में उसकी नीति उदार और समदर्शी थी। उसके समकालीन अधिकांश विद्वान् [[जैन धर्म|जैन]] थे। किंतु इनको संरक्षण देने में उसका जैनियों के प्रति कोई पक्षपात नहीं था। एक बार उसने ईश्वर और धर्म के विषय में सत्य को जानने के लिए विभिन्न मतों के आचार्यों से पूछा किन्तु अंत में हेमचंद्र के प्रभाव में सदाचार के मार्ग को ही सर्वश्रेष्ठ समझा। [[इस्लाम]] के प्रति भी उसकी नीति उदार थी।
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