"कश्मीर": अवतरणों में अंतर

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[[चित्र:Market boats on Mar Canal, Srinigar.jpg|right|thumb|400px| एडवर्ड मॉलीनक्स द्वारा बनाया श्रीनगर का दृश्य]]
'''कश्मीर''' ([[कश्मीरी भाषा|कश्मीरी]] : '''कोशूर''') [[भारतभारतीय का एक हिस्सा है जिसक सभीे भागों पर [[भारत]] का अधिपत्य है। पाकिस्तान इसपर भारत का अधिकार नहीं मानता और रहेगाइसे अधिकृत करना चाहता है। कश्मीर एक [[मुस्लिम]]बहुल प्रदेश है। आज ये [[आतंकवाद]] से जूझ रहा है। इसकी मुख्य भाषा [[कश्मीरी]] है।
 
जम्मू और कश्मीर के बाकी दो खण्ड हैं [[जम्मू]] और [[लद्दाख़]]।
 
== व्युत्पत्ति ==
निलामाता पुराण घाटी के जल से उत्पत्ति का वर्णन करता है, एक प्रमुख भू-भूवैज्ञानिकों द्वारा पुष्टि की गई तथ्य, और यह दर्शाता है कि जमीन का नाम कितना desiccation की प्रक्रिया से लिया गया था - का का मतलब है "पानी" और शमीर का मतलब है "desiccate"। इसलिए, कश्मीर "पानी से निकलने वाला देश" के लिए खड़ा है एक सिद्धांत भी है जो कश्मीर को कश्यप-मीरा या कश्यमिरम या कश्यममरू, '' "कश्यप के समुद्र या पर्वत" का संकुचन लेता है, ऋषि जो प्राच्य झील सट्सार के पानी से निकलने के लिए श्रेय दिया जाता है, कि कश्मीर से पहले इसे पुनः प्राप्त किया गया था। निलामाता पुराण काश्मीरा ([[कश्मीर घाटी]] में [[वालर झील]] मीरा "का नाम देता है जिसका अर्थ है कि समुद्र झील या ऋषि कश्यप का पहाड़।" संस्कृत में 'मीरा' का अर्थ है महासागर या सीमा, इसे उमा के अवतार के रूप में मानते हुए और यह कश्मीर है जिसे आज विश्व को पता है। हालांकि, कश्मीरियों ने इसे 'काशीर' कहते हैं, जो कश्मीर से ध्वन्यात्मक रूप से प्राप्त हुए हैं। प्राचीन यूनानियों ने इसे ' कश्पापा-पुर्का, जो कि हेकाटेयस के कस्पेरियोस (बायज़ांटियम के एपड स्टेफेनस) और हेरोडोटस के कस्तुतिरोस (3.102, 4.44) से पहचाने गए हैं। कश्मीर भी टॉलेमी के '' कस्पीरीया '' के द्वारा देश माना जाता है। '' कश्मीरी '' वर्तमान-कश्मीर की एक प्राचीन वर्तनी है, और कुछ देशों में यह अभी भी इस तरह की वर्तनी है। सेमीट जनजाति का एक गोत्र '' 'काश' (जिसका अर्थ है देशी में एक गहरा स्लेश माना जाता है कि यह [[कशान]] और [[कशगर]] के शहरों की स्थापना कर रहा है, कश्यपी जनजाति से कैस्पियन से भ्रमित नहीं होना चाहिए। भूमि और लोगों को 'काशीर' के नाम से जाना जाता था, जिसमें से 'कश्मीर' भी उसमें से प्राप्त किया गया था। इसे [[प्राचीन ग्रीस के प्राचीन ग्रीक]] '' कास्पीरिया '' कहा जाता है [[क्लासिक्स | शास्त्रीय साहित्य]] में [[हेरोडोटस]] इसे "कस्पातिरोल" कहते हैं <refरेफ़ नाम name=" बामज़ई 4.6"> पी॰पी। एन॰के॰एन.के. बामज़ई, '' कश्मीर का संस्कृति और राजनीतिक इतिहास '', वॉल्यूम 1 (नई दिल्ली: एमडी प्रकाशन, 1 99 4), पृ॰पीपी 4-6< [/ref> रेफरी] [[जुआनज़ांग]], [[चीन - चीनी]] [[भिक्षु]] ने 631 [[एडी]] को कश्मीर का दौरा किया यह '' क्या-शि-मी-लो '' [[तिब्बत]] एह ने इसे खाचा कहा, जिसका अर्थ है "[[बर्फ]] वाई [[पहाड़]]" <refRef name = Bamzai4.6 /> यह है और [[नदी]], [[झील]] और [[वन्य फ्लावर]] एस की भूमि रही है। [[झेलम नदी]] घाटी की पूरी लंबाई चलाती है
 
== भूगोल ==
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प्राचीनकाल में कश्मीर हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना रहा है। माना जाता है कि यहाँ पर भगवान [[शिव]] की पत्नी देवी '''[[सती]]''' रहा करती थीं और उस समय ये वादी पूरी पानी से ढकी हुई थी। यहाँ एक राक्षस नाग भी रहता था, जिसे वैदिक '''ऋषि कश्यप''' और देवी सती ने मिलकर हरा दिया और ज़्यादातर पानी [[वितस्ता]] (झेलम) नदी के रास्ते बहा दिया। इस तरह इस जगह का नाम '''सतीसर''' से '''कश्मीर''' पड़ा। इससे अधिक तर्कसंगत प्रसंग यह है कि इसका वास्तविक नाम कश्यपमर (अथवा कछुओं की झील) था। इसी से कश्मीर नाम निकला।
 
कश्मीर का अच्छा-ख़ासा इतिहास '''[[कल्हण]]''' के ग्रंथ '''[[राजतरंगिणी]]''' से (और बाद के अन्य लेखकों से) मिलता है। प्राचीन काल में यहाँ हिन्दू आर्य राजाओं का राज था।
 
मौर्य सम्राट '''अशोक''' और कुषाण सम्राट '''कनिष्क''' के समय कश्मीर बौद्ध धर्म और संस्कृति का मुख्य केन्द्र बन गया। पूर्व-मध्ययुग में यहाँ के चक्रवर्ती सम्राट '''[[ललितादित्य]]''' ने एक विशाल साम्राज्य क़ायम कर लिया था। कश्मीर संस्कृत विद्या का विख्यात केन्द्र रहा।<ref>[[सुभाष काक]], The Wonder That Was Kashmir. In "Kashmir and its People: Studies in the Evolution of Kashmiri Society." M.K. Kaw (ed.), A.P.H., New Delhi, 2004. ISBN 81-7648-537-3. http://www.ece.lsu.edu/kak/wonder.pdf</ref>
 
[[कश्मीर शैवदर्शन]] भी यहीं पैदा हुआ और पनपा। यहां के महान मनीषीयों में [[पतंजलिपतञ्जलि]], [[दृढबल]], [[वसुगुप्त]], [[आनन्दवर्धन]], [[अभिनवगुप्त]], [[कल्हण]], [[क्षेमराज]] आदि हैं। यह धारणा है कि [[विष्णुधर्मोत्तर पुराण]] एवं [[योग वासिष्ठ]] यहीं लिखे गये।
 
=== प्राचीन कथा ===
स्थानीय लोगों का विश्वास है कि इस विस्तृत घाटी के स्थान पर कभी मनोरम झील थी जिसके तट पर देवताओं का वास था। एक बार इस झील में ही एक असुर कहीं से आकर बस गया और वह देवताओं को सताने लगा। त्रस्त देवताओं ने ऋषि कश्यप से प्रार्थना की कि वह असुर का विनाश करें। देवताओं के आग्रह पर ऋषि ने उस झील को अपने तप के बल से रिक्त कर दिया। इसके साथ ही उस असुर का अंत हो गया और उस स्थान पर घाटी बन गई। कश्यप ऋषि द्वारा असुर को मारने के कारण ही घाटी को कश्यप मार कहा जाने लगा। यही नाम समयांतर में कश्मीर हो गया। निलमत पुराण में भी ऐसी ही एक कथा का उल्लेख है। कश्मीर के प्राचीन इतिहास और यहां के सौंदर्य का वर्णन कल्हण रचित राज तरंगिनी में बहुत सुंदर ढंग से किया गया है। वैसे इतिहास के लंबे कालखंड में यहां [[मौर्य]], [[कुषाण]], [[हूण]], करकोटा, लोहरा, [[मुगल]], [[अफगान]], [[सिख]] और [[डोगरा]] राजाओं का राज रहा है। कश्मीर सदियों तक एशिया में संस्कृति एवं दर्शन शास्त्र का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा और सूफी संतों का दर्शन यहां की सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है।
 
मध्ययुग में मुस्लिम आक्रान्ता कश्मीर पर क़ाबिज़ हो गये। कुछ मुसल्मान शाह और राज्यपाल (जैसे शाह ज़ैन-उल-अबिदीन) हिन्दुओं से अच्छा व्यवहार करते थे पर कई (जैसे सुल्तान सिकन्दर बुतशिकन) ने यहाँ के मूल कश्मीरी हिन्दुओं को मुसल्मान बनने पर, या राज्य छोड़ने पर या मरने पर मजबूर कर दिया। कुछ ही सदियों में कश्मीर घाटी में मुस्लिम बहुमत हो गया। मुसल्मान शाहों में ये बारी बारबारी से अफ़ग़ान, कश्मीरी मुसल्मान, मुग़ल आदि वंशों के पास गया। मुग़ल सल्तनत गिरने के बाद से सिख महाराजा रणजीत सिंह के राज्य में शामिल हो गया। कुछ समय बाद जम्मू के हिन्दू डोगरा राजा गुलाब सिंह डोगरा ने ब्रिटिश लोगों के साथ सन्धि करके जम्मू के साथ साथ कश्मीर पर भी अधिकार कर लिया (जिसे कुछ लोग कहते हैं कि कश्मीर को ख़रीद लिया)। डोगरा वंश भारत की आज़ादी तक कायम रहा।
 
== श्रीनगर ==
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== प्रसिद्ध उत्पाद ==
कश्मीर से कुछ यादगार वस्तुएं ले जानी हों तो यहां कई सरकारी एंपोरियम हैं। अखरोट की लकड़ीलकडी के हस्तशिल्प, पेपरमेशी के शो-पीस, लेदर की वस्तुएं, कालीन, पश्मीना एवं जामावार शाल, केसर, क्रिकेट बैट और सूखे मेवे आदि पर्यटकों की खरीदारी की खास वस्तुएं हैं। लाल चौक क्षेत्र में हर तरह के शॉपिंग केंद्र है। खानपान के शौकीन पर्यटक कश्मीरी भोजन का स्वाद जरूर लेना चाहेंगे। बाजवान कश्मीरी भोजन का एक खास अंदाज है। इसमें कई कोर्स होते है जिनमें रोगन जोश, तबकमाज, मेथी, गुस्तान आदि डिश शामिल होती है। स्वीट डिश के रूप में फिरनी प्रस्तुत की जाती है। अंत में कहवा अर्थात कश्मीरी चाय के साथ वाजवान पूर्ण होता है।
 
== कश्मीरी लोग ==
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* शान्ति होने के बाद दोनो देश कश्मीर के भविष्य का निर्धारण वहाँ की जनता की चाहत के हिसाब से करेंगे (बाद में कहा गया जनमत संग्रह से)।
दोनो में से कोई भी संकल्प अभी तक लागू नहींनही हो पाया है।
 
== भारतीय पक्ष ==
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== आतंकवाद ==
जो भी हो, कश्मीरी जनता आज भी पाकिस्तान द्वारा चलाये जा रहे भयानक आतंकवाद से जूझ रही है। भारतीय फ़ौज द्वारा चलाये जा रहे आतंकवाद-विरोधी अभियान ने भी कश्मीरियों को तोहफ़े में कई मानवाधिकार हनन ही दिये हैं (भारतीय फ़ौज इसपर अपनी मजबूरी ज़ाहिर करते हुए कहती है कि आतंकवाद विरोधी कार्रवाई में शहरी जनता कभी कभी पिस ही जाती है)। सन 2002 में वादी में लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव हुए थे। नयी सरकारें क्या क्य कर पाती हैं, ये तो वक़्त ही बतायेगा।
 
== कश्मीर और जवाहरलाल नेहरू ==
वह सर्वविदित है कि पं॰ नेहरू तथा माउन्टबेटन के परस्पर विशेष सम्बंध थे, जो किसी भी भारतीय कांग्रेसी या मुस्लिम नेता के आपस में न थे। पंडित नेहरू के प्रयासों से ही माउन्टबेटन को स्वतंत्र भारत का पहला गर्वनर जनरल बनाया गया, जबकि जिन्ना ने माउन्टबेटन को पाकिस्तान का पहला गर्वनर जनरल मानने से साफ इन्कार कर दिया, जिसका माउन्टेबटन को जीवन भर अफसोस भी रहा। माउन्टबेटन २४ मार्च १९४७ से ३० जून १९४८ तक भारत में रहे। इन पन्द्रह महीनों में वह न केवल संवैधानिक प्रमुख रहे बल्कि भारत की महत्वपूर्ण नीतियों का निर्णायक भी रहे। पं॰ नेहरू उन्हें सदैव अपना मित्र, मार्गदर्शक तथा महानतम सलाहकार मानते रहे। वह भी पं॰ नेहरू को एक "शानदार", "सर्वदा विश्वसनीय" "कल्पनाशील" तथा "सैद्धांतिक समाजवादी" मानते रहे।
 
कश्मीर के प्रश्न पर भी माउन्टबेटन के विचारों को पं॰ नेहरू ने अत्यधिक महत्व दिया। पं॰ नेहरू के शेख अब्दुल्ला के साथ भी गहरे सम्बंध थे। शेख अब्दुल्ला ने १९३२ में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम.एस.सी किया था। फिर वह श्रीनगर के एक हाईस्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए, परन्तु अनुशासनहीनता के कारण स्कूल से हटा दिये गये। फिर वह कुछ समय तक ब्रिटिश सरकार से तालमेल बिठाने का प्रयत्न करते रहे। आखिर में उन्होंने १९३२ में ही कश्मीर की राजनीति में अपना भाग्य आजमाना चाहा और "मुस्लिम क्फ्रोंंस" स्थापित की, जो केवल मुसलमानों के लिए थी। परन्तु १९३९ में इसके द्वार अन्य पंथों, मजहबों के मानने वालों के लिए भी खोल दिए गए और इसका नाम "नेशनल कान्फ्रेंस" रख दिया तथा इसने पंडित नेहरू के प्रजा मण्डल आन्दोलन से अपने को जोड़ लिया। शेख अब्दुल्ला ने १९४० में नेशनल क्फ्रोंंस के सम्मेलन में मुख्य अतिथि के रूप में पंडित नेहरू को बुलाया था। शेख अब्दुल्ला से पं॰ नेहरू की अंधी दोस्ती और भी गहरी होती गई। शेख अब्दुल्ला समय-समय पर अपनी शब्दावली बदलते रहे और पं॰ नेहरू को भी धोखा देते रहे। बाद में भी नेहरू परिवार के साथ शेख अब्दुल्ला के परिवार की यही दोस्ती चलती रही। श्रीमती इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और अब राहुल गांधी की दोस्ती क्रमश: शेख अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्ला तथा वर्तमान में उमर अब्दुल्ला से चल रही है।
 
=== महाराजा से कटु सम्बंध ===
दुर्भाग्य से कश्मीर के महाराजा हरि सिंह (१९२५-१९४७) से न ही शेख अब्दुल्ला के और न ही पंडित नेहरू के सम्बंध अच्छे रह पाए। महाराजा कश्मीर शेख अब्दुल्ला की कुटिल चालों, स्वार्थी और अलगाववादी सोच तथा कश्मीर में हिन्दू-विरोधी रवैये से परिचित थे। वे इससे भी परिचित थे कि "क्विट कश्मीर आन्दोलन" के द्वारा शेख अब्दुल्ला महाराजा को हटाकर, स्वयं शासन संभालने को आतुर है। जबकि पं॰ नेहरू भारत के अंतरिम प्रधानमंत्री बन गए थे, तब एक घटना ने इस कटुता को और बढ़ा दिया था। शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर की एक कांफ्रेस में पंडित नेहरू को आने का निमंत्रण दिया था। इस क्फ्रोंंस में मुख्य प्रस्ताव था महाराजा कश्मीर को हटाने का। मजबूर होकर महाराजा ने पं॰ नेहरू से इस क्फ्रोंंस में न आने को कहा। पर न मानने पर पं॰ नेहरू को जम्मू में ही श्रीनगर जाने से पूर्व रोक दिया गया। पं॰ नेहरू ने इसे अपना अपमान समझा तथा वे इसे जीवन भर न भूले। पाकिस्तानी फ़ौज व कबायली आक्रमण के समय राजा हरी सिंह को सबक सिखाने के उद्देश्य से नेहरु जी ने भारतीय सेना को भेजने में जानबूझ के देरी की, जिससे कश्मीर का दो तिहायी हिस्सा पाकिस्तान कब्ज़ाने में सफल रहा। इस घटना से शेख अब्दुल्ला को दोहरी प्रसन्नता हुई। इससे वह पं॰ नेहरू को प्रसन्न करने तथा महाराजा को कुपित करने में सफल हुआ।
 
=== कश्मीरियत की भावना ===
पं. नेहरू का व्यक्तित्व यद्यपि राष्ट्रीय था परन्तु कश्मीर का प्रश्न आते ही वे भावुक हो जाते थे। इसीलिए जहां उन्होंने भारत में चौतरफा बिखरी ५६० रियासतों के विलय का महान दायित्व सरदार पटेल को सौंपा, वहीं केवल कश्मीरी दस्तावेजों को अपने कब्जे में रखा। ऐसे कई उदाहरण हैं जब वे कश्मीर के मामले में केन्द्रीय प्रशासन की भी सलाह सुनने को तैयार न होते थे तत्कालीन विदेश सचिव वाई.डी. गुणडेवीय का कथन था, "आप प्रधानमंत्री से कश्मीर पर बात न करें। कश्मीर का नाम सुनते ही वे अचेत हो जाते हैं।" प्रस्तुत लेख के लेखक का स्वयं का भी एक अनुभव है-१९५८ में मैं एक प्रतिनिधिमण्डल के साथ पं॰ नेहरू के निवास तीन मूर्ति गया। वहां स्कूल के बच्चों ने उनके सामने कश्मीर पर पाकिस्तान को चुनौती देते हुए एक गीत प्रस्तुत किया। इसमें "कश्मीर भला तू क्या लेगा?" सुनते ही पं॰ नेहरू तिलमिला गए तथा गीत को बीच में ही बन्द करने को कहा।
 
=== महाराजा की भारत-प्रियता ===
जिन्ना कश्मीर तथा हैदराबाद पर पाकिस्तान का आधिपत्य चाहते थे। उन्होंने अपने सैन्य सचिव को तीन बार महाराजा कश्मीर से मिलने के लिए भेजा। तत्कालीन कश्मीर के प्रधानमंत्री काक ने भी उनसे मिलाने का वायदा किया था। पर महाराजा ने बार-बार बीमारी का बहाना बनाकर बातचीत को टाल दिया। जिन्ना ने गर्मियों की छुट्टी कश्मीर में बिताने की इजाजत चाही थी। परन्तु महाराजा ने विनम्रतापूर्वक इस आग्रह को टालते हुए कहा था कि वह एक पड़ोसी देश के गर्वनर जनरल को ठहराने की औपचारिकता पूरी नहीं कर पाएंगे। दूसरी ओर शेख अब्दुल्ला गद्दी हथियाने तथा इसे एक मुस्लिम प्रदेश (देश) बनाने को आतुर थे। पं॰ नेहरू भी अपमानित महसूस कर रहे थे। उधर माउंटबेटन भी जून मास में तीन दिन कश्मीर रहे थे। शायद वे कश्मीर का विलय पाकिस्तान में चाहते थे, क्योंकि उन्होंने मेहरचन्द महाजन से कहा था कि "भौगोलिक स्थिति" को देखते हुए कश्मीर के पाकिस्तान का भाग बनना उचित है। इस समस्त प्रसंग में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका श्री गुरुजी (माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर) ने निभाई। वे महाराजा कश्मीर से बातचीत करने १८ अक्टूबर को श्रीनगर पहुंचे। विचार-विमर्श के पश्चात महाराजा कश्मीर अपनी रियासत के भारत में विलय के लिए पूरी तरह पक्ष में हो गए थे।
 
=== पं॰ नेहरू की भयंकर भूलें ===
जब षड्यंत्रों से बात नहीं बनी तो पाकिस्तान ने बल प्रयोग द्वारा कश्मीर को हथियाने की कोशिश की तथा २२ अक्टूबर १९४७ को सेना के साथ कबाइलियों ने मुजफ्फराबाद की ओर कूच किया। लेकिन कश्मीर के नए प्रधानमंत्री मेहरचन्द्र महाजन के बार-बार सहायता के अनुरोध पर भी भारत सरकार उदासीन रही। भारत सरकार के गुप्तचर विभाग ने भी इस सन्दर्भ में कोई पूर्व जानकारी नहीं दी। कश्मीर के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने बिना वर्दी के २५० जवानों के साथ पाकिस्तान की सेना को रोकने की कोशिश की तथा वे सभी वीरगति को प्राप्त हुए। आखिर २४ अक्टूबर को माउन्टबेटन ने "सुरक्षा कमेटी" की बैठक की। परन्तु बैठक में महाराजा को किसी भी प्रकार की सहायता देने का निर्णय नहीं किया गया। २६ अक्टूबर को पुन: कमेटी की बैठक हुई। अध्यक्ष माउन्टबेटन अब भी महाराजा के हस्ताक्षर सहित विलय प्राप्त न होने तक किसी सहायता के पक्ष में नहीं थे। आखिरकार २६ अक्टूबर को सरदार पटेल ने अपने सचिव वी.पी. मेनन को महाराजा के हस्ताक्षर युक्त विलय दस्तावेज लाने को कहा। सरदार पटेल स्वयं वापसी में वी.पी. मेनन से मिलने हवाई अड्डे पहुंचे। विलय पत्र मिलने के बाद २७ अक्टूबर को हवाई जहाज द्वारा श्रीनगर में भारतीय सेना भेजी गई।
 
'''दूसरे'', जब भारत की विजय-वाहिनी सेनाएं कबाइलियों को खदेड़ रही थीं। सात नवम्बर को बारहमूला कबाइलियों से खाली करा लिया गया था परन्तु पं॰ नेहरू ने शेख अब्दुल्ला की सलाह पर तुरन्त युद्ध विराम कर दिया। परिणामस्वरूप कश्मीर का एक तिहाई भाग जिसमें मुजफ्फराबाद, पुंछ, मीरपुर, गिलागित आदि क्षेत्र आते हैं, पाकिस्तान के पास रह गए, जो आज भी "आजाद कश्मीर" के नाम से पुकारे जाते हैं।
 
'''तीसरे''', माउन्टबेटन की सलाह पर पं॰ नेहरू एक जनवरी, १९४८ को कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में ले गए। सम्भवत: इसके द्वारा वे विश्व के सामने अपनी ईमानदारी छवि का प्रदर्शन करना चाहते थे तथा विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते थे। पर यह प्रश्न विश्व पंचायत में युद्ध का मुद्दा बन गया।
 
'''चौथी''' भयंकर भूल पं॰ नेहरू ने तब की जबकि देश के अनेक नेताआें के विरोध के बाद भी, शेख अब्दुल्ला की सलाह पर भारतीय संविधान में धारा ३७० जुड़ गई। न्यायाधीश डी.डी. बसु ने इस धारा को असंवैधानिक तथा राजनीति से प्रेरित बतलाया। डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर ने इसका विरोध किया तथा स्वयं इस धारा को जोड़ने से मना कर दिया। इस पर प्रधानमंत्री पं॰ नेहरू ने रियासत राज्यमंत्री गोपाल स्वामी आयंगर द्वारा १७ अक्टूबर १९४९ को यह प्रस्ताव रखवाया। इसमें कश्मीर के लिए अलग संविधान को स्वीकृति दी गई जिसमें भारत का कोई भी कानून यहां की विधानसभा द्वारा पारित होने तक लागू नहीं होगा। दूसरे शब्दों में दो संविधान, दो प्रधान तथा दो निशान को मान्यता दी गई। कश्मीर जाने के लिए परमिट की अनिवार्यता की गई। शेख अब्दुल्ला कश्मीर के प्रधानमंत्री बने। वस्तुत: इस धारा के जोड़ने से बढ़कर दूसरी कोई भयंकर गलती हो नहीं सकती थी।
 
'''पांचवीं''' भयंकर भूल शेख अब्दुल्ला को कश्मीर का "प्रधानमंत्री" बनाकर की। उसी काल में देश के महान राजनेता डॉ॰ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दो विधान, दो प्रधान, दो निशान के विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन किया। वे परमिट व्यवस्था को तोड़कर श्रीनगर गए जहां जेल में उनकी हत्या कर दी गई। पं॰ नेहरू को अपनी गलती का अहसास हुआ, पर बहुत देर से। शेख अब्दुल्ला को कारागार में डाल दिया गया लेकिन पं॰ नेहरू ने अपनी मृत्यु से पूर्व अप्रैल, १९६४ में उन्हें पुन: रिहा कर दिया।
 
== यह भी देखिये ==