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कवि [[कुँवर नारायण]] ने इस उपन्यास की समीक्षा ही 'कविदृष्टि का अभाव' शीर्षक से लिखी थी।<ref>विवेक के रंग, संपादक- देवीशंकर अवस्थी, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-1995, पृष्ठ-200.</ref>
इसके बरअक्स आनंद प्रकाश का स्पष्ट मत है कि इस उपन्यास का एक बहुत बड़ा गुण है इसकी रोचकता और अत्यधिक साहित्यिकता। ...निश्चय ही 'सामाजिक वातावरण' और 'ऐतिहासिक यथार्थ' (यशपाल द्वारा प्रयुक्त शब्द) के बेबाक चित्रण को ज्यादातर सही साहित्यिक समझ और अभिव्यक्ति से जोड़ पाने में यशपाल को पर्याप्त सफलता मिली है।<ref>आनन्द प्रकाश लिखित 'झूठा सच' की समीक्षा, आधुनिक हिन्दी उपन्यास, संपादक- भीष्म साहनी एवं अन्य, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1980, पृष्ठ-131.</ref>
 
इस उपन्यास पर लगाये गये विभिन्न आरोपों के परिप्रेक्ष्य में रामदरश मिश्र जी का मानना है कि बातें बहुत सी है किंतु मुझे लगता है कि लेखक ने तत्कालीन घटनाओं और परिस्थितियों के विस्तार तथा मानवीय अन्तर् सत्यों की गहनता, आधुनिक नियति और मूल्य का बहुत सुंदर सामंजस्य किया है। यह शिकायत की गयी है कि इस उपन्यास में लेखक की अपनी दृष्टि (यानी मार्क्सवादी दृष्टि) आर-पार व्यापत नहीं है किंतु मुझे लगता है कि यह लेखक की सर्जनात्मक दृष्टि के लिए शुभ लक्षण है कि वह यथार्थ के लोक की मुक्त यात्रा करती है, इसी पूर्वग्रह से आक्रांत नहीं है। यह रचनात्मक दृष्टि एक ओर लेखक को यथार्थ के सही स्वरूप को देखने के लिए प्रेरित करती है ,दूसरी ओर चूँकि यह सर्जन दृष्टि है, घटनाओं और तथ्यों को ज्यों-का-त्यों न देखकर उन्हें मानवीय सत्यों के संदर्भ में देखती है और उसके भीतर से कुछ निर्मित करती है। प्रस्तुत महाकाव्यात्मक उपन्यास में यशपाल की दृष्टि ने कहीं साथ नहीं छोड़ा है, वह आरपारदर्शी है और उसे इस बात की पहचान है कि क्या होकर भी झूठ है और क्या ना होकर भी सही है। लेखक मार्क्सवादी है किंतु इस उपन्यास में उसकी मार्क्सवादी विचारधारा अपने-आप में हावी न होकर उसकी कलात्मक दृष्टि की सहायक है।<ref>हिन्दी उपन्यास : एक अन्तर्यात्रा, रामदरश मिश्र, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2004, पृष्ठ-139-40.</ref>