"झूठा सच": अवतरणों में अंतर
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इस विशालकाय उपन्यास को पूरी तरह पढ़े बिना कुछ सुनी-सुनाई या लिखी-पढ़ी टिप्पणियों के अनुसार मूल्यांकित करने को बिल्कुल अपर्याप्त एवं अनुचित मानते हुए उपन्यासों के नवीन अंतर्दर्शी समीक्षक वीरेन्द्र यादव का कहना है कि सच तो यह है कि झूठा सच एक औपन्यासिक कृति मात्र न होकर विभाजन के दौर और उसके बाद के भारतीय समाज व राजनीति का कालजयी दस्तावेज है। कई अर्थों में यह भारत विभाजन के सुपरिचित विमर्शों व प्रभुत्वशाली चिंतन का प्रतिपक्ष भी है। इस उपन्यास की सबसे बड़ी खूबी यह है कि न तो यह सरहद के इस पार के लेखक की रचना लगती है और न ही किसी पुरुष लेखक की। ...दो राय नहीं कि 'झूठा सच' को हिन्दी उपन्यासों में 'क्लैसिक' का दर्जा हासिल है, लेकिन जरूरी है उन कारणों का जानना जिनके कारण यह 'क्लैसिक' की कोटि में है। इसलिए आवश्यक है इसका पढ़ा जाना।<ref>उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता, वीरेन्द्र यादव, राजकमल प्रकाशन प्रा० लि०, नयी दिल्ली, संस्करण-2009, पृष्ठ-71-72.</ref>
कुँवर नारायण जी के द्वारा लगाये गये आरोपों के जवाब में यशपाल के प्रामाणिक भाष्यकार माने जाने वाले मधुरेश ने ' 'झूठा सच' : उपन्यास में महाकाव्य' शीर्षक से विस्तृत समीक्षात्मक आलेख लिखा और कुँवर नारायण जी के आरोपों का विश्लेषणात्मक उत्तर देते हुए घोषित किया कि 'झूठा सच' यशपाल की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में तो स्वीकृत है ही, वह हिन्दी के दस श्रेष्ठ और उल्लेखनीय उपन्यासों में से भी एक है।<ref>यशपाल : रचनात्मक पुनर्वास की एक कोशिश, मधुरेश, आधार प्रकाशन प्रा० लि०, पंचकूला, हरियाणा, पेपरबैक संस्करण-2006, पृष्ठ-229.</ref>
==इन्हें भी देखें==
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