"झूठा सच": अवतरणों में अंतर

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झूठा सच के दूसरे खंड 'देश का भविष्य' में स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के दशक में देश के विकास और भावी निर्माण में बुद्धिजीवियों और नेताओं की प्रगतिशील और प्रतिगामी भूमिका का यथार्थ तथा प्रभावपूर्ण अंकन किया गया है। जयदेव पुरी और सूद प्रतिगामी शक्तियों के प्रतिनिधि रूप में भ्रष्ट राजनीति का उदाहरण प्रस्तुत करता है<ref>हिन्दी उपन्यास का इतिहास, गोपाल राय, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2009, पृष्ठ-203.</ref> और तारा जैसी क्रांतिकारी चेतना से युक्त विकास की राह पर चलने वाली स्त्री भी सुख-समृद्धि एवं प्रभाव की लिप्सा में पड़कर विडंबना का दुःखद उदाहरण प्रस्तुत करती है। कर्म-कर्म की रट लगाने वाले प्रधानमंत्री स्वयं केवल भाषण का सहारा लेते और फिजूलखर्ची का भीषण उदाहरण प्रस्तुत करते दिखते हैं।<ref>उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता, वीरेन्द्र यादव, राजकमल प्रकाशन प्रा० लि०, नयी दिल्ली, संस्करण-2009, पृष्ठ-59.</ref> कुल मिलाकर विस्तृत चित्र-फलक पर यशपाल दिखलाते हैं कि देश का भविष्य अंततः देश की सामान्य जनता के ही हाथ में है जो समग्र स्थितियों का अवलोकन कर सही वस्तुस्थिति को पहचान सके। इसीलिए यशपाल विभिन्न स्थितियों का चित्र उकेरते हैं, किसी पात्र का एक रैखिक या आदर्शवादी चित्रण नहीं करते हैं, क्योंकि व्यवहारिक जीवन में ऐसा हो पाना काम्य तो है, परंतु बहुधा संभव नहीं हो पाता है।
 
इस उपन्यास में देश की दुरवस्था के लिए जनता की अंदरूनी कमजोरियों एवं निर्जीवता को भी काफी उत्तरदायी दिखलाया गया है। परंतु, उपन्यास के अंत तक जाकर यह प्रमाणित होता है कि यह चित्रण वस्तुतः वस्तुस्थिति की सही पहचान करवाने के उद्देश्य से ही किया गया है। उपन्यास के अंत में कांग्रेस के भ्रष्टाचारी परंतु प्रबलता प्राप्त नेता सूद चुनाव हार जाता है और इस परिणाम पर डॉक्टर नाथ गंभीर होकर टिप्पणी करता है -- "गिल, अब तो विश्वास करोगे, जनता निर्जीव नहीं है। जनता सदा मूक भी नहीं रहती। देश का भविष्य नेताओं और मंत्रियों की मुट्ठी में नहीं है, देश की जनता के ही हाथ में है।"<ref>यशपाल रचनावली, खण्ड-3 (झूठा सच, भाग-2 'देश का भविष्य') लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पेपरबैक संस्करण-2007, पृष्ठ-540.</ref>
 
== रचनात्मक गठन ==