"झूठा सच": अवतरणों में अंतर

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== रचनात्मक गठन ==
झूठा सच भारत विभाजन (1947) की पृष्ठभूमि पर केंद्रित वृहत्तर एवं बहुआयामी फलक वाला उपन्यास है। इसमें विभाजन के पहले से लेकर विभाजन के बाद तक के समय का बारीक चित्रांकन किया गया है। जयदेव पुरी एवं उसकी बहन तारा को केंद्र में रखने के बावजूद यह उपन्यास नायक या नायिका प्रधान नहीं है और इस रूप में भी यह उपन्यास पूर्व निर्मित बँधे-बँधाये औपन्यासिक ढाँचे को अतिक्रमित<ref>उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता, वीरेन्द्र यादव, राजकमल प्रकाशन प्रा० लि०, नयी दिल्ली, संस्करण-2009, पृष्ठ-54.</ref> करता है। यह उपन्यास वस्तुतः विभिन्न धर्मों एवं वर्गों में बँटे वृहत्तर जन-समाज के उत्थान-पतन की सुविस्तीर्ण गाथा है, जिसका चित्रण विभाजन को केंद्र में रखते हुए किया गया है। विभाजन से पहले लोगों के मन में उत्पन्न होने वाले विघटनवादी भाव तथा विभाजन के बाद देश अथवा शासन के संघटन के लिए आवश्यक समर्पण एवं सूझबूझ में होने वाली कमी -- दोनों पर सूक्ष्म दृष्टि रखते हुए यशपाल ने इस उपन्यास का ताना बाना बुना है। सांप्रदायिक चेतना किस प्रकार मानवीय नियति को दूर तक प्रभावित करती है तथा परिस्थितियों की विकट मार जनसामान्य में निहित क्रांतिकारी चेतना को भी किस प्रकार कुंठित करते हुए स्वार्थ लिप्सा की ओर मोड़ सकती है, इसका अत्यंत मार्मिक चित्रण यशपाल ने इस उपन्यास में किया है। भारत का मध्य वर्ग क्रांतिकारी चेतना से युक्त होकर पूंजीपति वर्ग के पाखंड की आलोचना करते हुए भी किस प्रकार स्वयं वैसा ही जीवन जीने<ref>कथा विवेचना और गद्य शिल्प, रामविलास शर्मा, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-1999, पृष्ठ-77-78.</ref> की ट्रैजेडी की ओर बढ़ते जाता है, इसका औपन्यासिक रचाव देखने योग्य है।
 
उपन्यास का रचनात्मक गठन इतना कुशल है कि इस महाकाय उपन्यास की महाकाव्यात्मकता इस रहस्य में अंतर्निहित मानी गयी है कि इसके कथा-संघटन में यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि 'झूठा सच' तारा की नियति कथा के बहाने देश के विभाजन का वृत्तांत है या कि देश विभाजन के परिणाम स्वरूप है तारा की नियति। उपन्यास में तारा स्वयं करती है- "मेरे भाग्य के कारण देश का बँटवारा हुआ या देश के भाग्य के कारण मेरी दुर्गति हुई।"