"कुतुब-उद-दीन ऐबक": अवतरणों में अंतर
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== शासक ==
अपनी मृत्यु के पूर्व महमूद गोरी ने अपने वारिस के बारे में कुछ ऐलान नहीं किया था। उसे शाही ख़ानदान की बजाय तुर्क दासों पर अधिक विश्वास था। गोरी के दासों में ऐबक के अतिरिक्त गयासुद्दीन महमूद, यल्दौज, कुबाचा और अलीमर्दान प्रमुख थे। ये सभी अनुभवी और योग्य थे और अपने आप को उत्तराधिकारी बनाने की योजना बना रहे थे। गोरी ने ऐबक को मलिक की उपाधि दी थी पर उसे सभी सरदारों का प्रमुख बनाने का निर्णय नहीं लिया था। ऐबक का गद्दी पर दावा कमजोर था पर उसने विषम परिस्थितियों में कुशलता पूर्वक काम किया और अंततः दिल्ली की सत्ता का स्वामी बना। गोरी की मृत्यु के बाद २४ जून १२०६ को कुतुबुद्दीन का राज्यारोहन हुआ पर उसने सुल्तान की उपाधि धारण नहीं की। इसका कारण था कि अन्य गुलाम सरदार यल्दौज और कुबाचा उससे ईर्ष्या रखते थे। उन्होंने मसूद को अपने पक्ष में कर ऐबक के लिए विषम परिस्थिति पैदा कर दी थी। हँलांकि तुर्कों ने बंगाल तक के क्षेत्र को रौंद डाला था फिर भी उनकी सर्वोच्चता संदिग्ध थी। राजपूत भी विद्रोह करते रहते थे पर इसके बावजूद ऐबक ने इन सबका डटकर सामना किया। बख्तियार खिलजी की मृत्यु के बाद अलीमर्दान ने स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी तथा ऐबक के स्वामित्व को मानने से इंकार कर दिया था। इन कारणों से कुतुबुद्दीन का शासनकाल केवल युद्धों में ही बीता।
यह आज हम आपको बताएंगे..
वो वीर महाराणा प्रताप जी का 'चेतक' सबको याद है,
लेकिन 'शुभ्रक' नहीं!
तो मित्रो आज सुनिए कहानी 'शुभ्रक' की......
सूअर कुतुबुद्दीन ऐबक ने राजपूताना में जम कर कहर बरपाया, और उदयपुर के 'राजकुंवर कर्णसिंह' को बंदी बनाकर लाहौर ले गया।
कुंवर का 'शुभ्रक' नामक एक स्वामिभक्त घोड़ा था,
जो कुतुबुद्दीन को पसंद आ गया और वो उसे भी साथ ले गया।
एक दिन कैद से भागने के प्रयास में कुँवर सा को सजा-ए-मौत सुनाई गई.. और सजा देने के लिए 'जन्नत बाग' में लाया गया। यह तय हुआ कि राजकुंवर का सिर काटकर उससे 'पोलो' (उस समय उस खेल का नाम और खेलने का तरीका कुछ और ही था) खेला जाएगा..
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कुतुबुद्दीन ख़ुद कुँवर सा के ही घोड़े 'शुभ्रक' पर सवार होकर अपनी खिलाड़ी टोली के साथ 'जन्नत बाग' में आया।
'शुभ्रक' ने जैसे ही कैदी अवस्था में राजकुंवर को देखा, उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे। जैसे ही सिर कलम करने के लिए कुँवर सा की जंजीरों को खोला गया, तो 'शुभ्रक' से रहा नहीं गया.. उसने उछलकर कुतुबुद्दीन को घोड़े से गिरा दिया और उसकी छाती पर अपने मजबूत पैरों से कई वार किए, जिससे कुतुबुद्दीन के प्राण पखेरू उड़ गए! इस्लामिक सैनिक अचंभित होकर देखते रह गए..
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मौके का फायदा उठाकर कुंवर सा सैनिकों से छूटे और 'शुभ्रक' पर सवार हो गए। 'शुभ्रक' ने हवा से बाजी लगा दी.. लाहौर से उदयपुर बिना रुके दौडा और उदयपुर में महल के सामने आकर ही रुका!
राजकुंवर घोड़े से उतरे और अपने प्रिय अश्व को पुचकारने के लिए हाथ बढ़ाया, तो पाया कि वह तो प्रतिमा बना खडा था.. उसमें प्राण नहीं बचे थे।
सिर पर हाथ रखते ही 'शुभ्रक' का निष्प्राण शरीर लुढक गया..
उसकी मृत्यु के बाद [[आरामशाह]] गद्दी पर बैठा पर ज्यादे दिन टिक नहीं पाया। तब [[इल्तुतमिश]]
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