"पन्नालाल जैन": अवतरणों में अंतर

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== जीवन ==
पन्नालाल जी का जन्म सन १९११ में [[सागर]] के एक छोटे से गांव परगवानपरगुवां में हुआ। इनके पिता एवं माता का नाम गल्लीलाल व जानकीबाई था। १९१९ में उनके पिता की मृत्यु के बाद वह [[सागर]] चले गए। पन्नालाल ने सागर में [[गणेशप्रसाद वर्णी]] द्वारा स्थापित प्रसिद्ध संस्थान "सट्टारका सुधा तारांगिनी संस्कृत पाठशाला" में अध्ययन किया, जो कि वर्तमान में गणेश वर्णी [[संस्कृत]] विद्यालय के नाम से प्रचलित हैं। लंबे समय तक पन्नालाजी ने भी वहां पढ़ाया। उनका विवाह १९३१ में हुआ था। उनकी पत्नी का नाम सुंदरबाई था। उसी वर्ष उन्हें विद्यालय में शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था। बाद में उन्होंने [[वाराणसी]] में सियादवाद महाविद्यालय में अध्ययन किया। उन्होंने १९३६ में साहित्याचार्य की पदवी अर्जित की। उन्होंने १९३३ से १९८३ तक सागर के मोराजी में सट्टारका सुधा तारांगिनी संस्कृत पाठशाला में मार्गदर्शक के रूप में अपना अधिकांश जीवन व्यतीत किया, जिसे वर्तमान में गणेश वर्णी दिगंबर जैन संस्कृत महाविद्यालय के रूप में जाना जाता है। सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने ८ जनवरी २००१ तक [[जबलपुर]] में वर्णी दिगंबर जैन गुरुकुल मे अध्यापन का कार्य किया।
 
उन्होंने [[क्षुल्लक]] [[गणेशप्रसाद वर्णी]] द्वारा प्रसिद्ध आत्मकथा "मेरी जीवन गाथा" के दोनों खंडों को संपादित किया जो १९४९ और १९६० में प्रकाशित हुए थे।<ref>Meri Jivan Gatha, Ganeshprasad Varni, 1949, Shri Ganeshprasad Varni Jain Granthmala, Varanasi.</ref><ref>Meri Jivan Gatha, Dvitiya Bhag, Ganeshprasad Varni, 1960, Shri Ganeshprasad Varni Jain Granthmala, Varanasi</ref> उन्होंने १९७४ में श्री गणेशप्रसाद वर्णी स्मृति ग्रंथ भी संपादित किया।<ref>Shri Ganeshprasad Varni Smriti Granth, Bharatiya Digambar jain Vidvatparishad, Ed. Pannalal Sahityacharya, Niraj Jain, 1974.</ref>
 
उन्होंने प्रमुख भिक्षुओं और तपस्विनों के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य किया था। उन्होंने १९८० में सागर में धवला ([[धवला टीका]]) ग्रंथों पर व्याख्यान शुरू करने में आचार्य विद्यासागर की सहायता की। उन्होंने अक्सर सागर में महिलाश्रम की अध्यक्षता मेंअध्यक्ष [[आर्यिका]] विशुद्धमती कीको संचालन हेतु सलाह दी। वह द्रोणागिरी और बादाबड़ा मलहारा में जैन संस्थानों से भी जुड़े थे। 1 9 55१९५५ में, उन्होंने ऐतिहासिक गजराथ[[गजरथ]] को प्रचार मंत्रमंत्री के रूप में व्यवस्थित करने में मदद की।<ref>Sahityacharya [4]pannalal उन्होंनेJain 1Abhinandan 9Granth, p. 2.71</ref> उन्होंने 81१९८१ में [[खजुराहो]] में गजराथ त्यौहार में भी सहायता की। वह 1 9 46१९४६ से 1 9 85१९८५ के दौरान विद्वानों की एक अग्रणी परिषद दिगंबर जैन विद्यावपरिशदविद्यापरिषद से जुड़े थे।
 
एक साधारण, सभ्य और निर्विवाद पारंपरिक विद्वान, उन्हें महाकवि हरिचंद पर उनके काम के लिए १९७३ में [[सागर विश्वविद्यालय]] द्वारा [[पीएचडी]] से सम्मानित किया गया था।<ref>Sahityacharya D. Pandit Pannalal Jain Abhinandan Deepika, Ed. Jain, Jyoti Prasad, Bhagchandfra Bhagendu, Bharatiya Shruti Darshana Kendra, Jaipur, 1989</ref>
 
उन्हें १९६९ में संस्कृत के शिक्षण में उनके शैक्षणिक योगदान के लिए भारत के राष्ट्रपति डॉ [[वी वी गिरी]] द्वारा सम्मानित किया गया था।
 
== कार्य ==