"सर्वेपल्लि राधाकृष्णन": अवतरणों में अंतर

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'''डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन''' ({{lang-ta|சர்வபள்ளி ராதாகிருஷ்ணன்}}; 5 सितम्बर 1888 – 17 अप्रैल 1975) [[भारत]] के प्रथम उप-राष्ट्रपति (1952 - 1962) और द्वितीय [[राष्ट्रपति]] रहे। वे [[भारतीय संस्कृति]] के संवाहक, प्रख्यात [[शिक्षाशास्त्री|शिक्षाविद]], महान दार्शनिक और एक आस्थावान हिन्दू विचारक थे। उनके इन्हीं गुणों के कारण सन् 1954 में भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सम्मान [[भारत रत्न]] से अलंकृत किया था। उनका जन्मदिन (5 सितम्बर) भारत में [[शिक्षक दिवस]] के रूप में मनाया जाता है।
 
== संक्षिप्त परिचय==
सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म दक्षिण भारत के [[तिरुत्तनि]] स्थान में हुआ था जो [[चेन्नई]] से 64 किमी उत्तर-पूर्व में है।
 
वे भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत एक प्रख्यात शिक्षाविद, महान दार्शनिक,जननायक , उत्कृष्ट वक्ता और एक आस्थावान हिन्दू विचारक थे। वे स्वतन्त्र भारत के दूसरे राष्ट्रपति थे। इससे पूर्व वे उपराष्ट्रपति भी रहे। [[राजनीति]] में आने से पूर्व उन्होंने अपने जीवन के महत्वपूर्ण 40 वर्ष शिक्षक के रूप में व्यतीत किये थे। उनमें एक आदर्श शिक्षक के सारे गुण मौजूद थे। उन्होंने अपना जन्म दिन अपने व्यक्तिगत नाम से नहीं अपितु सम्पूर्ण शिक्षक बिरादरी को सम्मानित किये जाने के उद्देश्य से [[शिक्षक दिवस]] के रूप में मनाने की इच्छा व्यक्त की थी जिसके परिणामस्वरूप आज भी सारे देश में उनका जन्म दिन (5 सितम्बर) को प्रति वर्ष शिक्षक दिवस के नाम से ही मनाया जाता है।
 
डॉ॰ राधाकृष्णन समस्त विश्व को एक शिक्षालय मानते थे। उनकी मान्यता थी कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जाना सम्भव है। इसीलिए समस्त विश्व को एक इकाई समझकर ही शिक्षा का प्रबन्धन किया जाना चाहिये। एक बार ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था कि मानव की जाति एक होनी चाहिये। मानव इतिहास का सम्पूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। यह तभी सम्भव है जब समस्त देशों की नीतियों का आधार विश्व-शान्ति की स्थापना का प्रयत्न करना हो। वे अपनी बुद्धिमतापूर्ण व्याख्याओं, आनन्ददायी अभिव्यक्तियों और हँसाने व गुदगुदाने वाली कहानियों से अपने छात्रों को मन्त्रमुग्ध कर दिया करते थे। वे छात्रों को प्रेरित करते थे कि वे उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारें। वे जिस विषय को पढ़ाते थे, पढ़ाने के पहले स्वयं उसका अच्छा अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गम्भीर विषय को भी वे अपनी शैली की नवीनता से सरल और रोचक बना देते थे।
 
पूर्व राष्ट्रपति डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयन्ती प्रतिवर्ष 5 सितम्बर को 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनायी जाती है। इन दिनों जब शिक्षा की गुणात्मकता का ह्रास होता जा रहा है और गुरु-शिष्य सम्बन्धों की पवित्रता को ग्रहण लगता जा रहा है, उनका पुण्य स्मरण फिर एक नयी चेतना पैदा कर सकता है। सन्‌ 1962 में जब वे राष्ट्रपति बने थे, तब कुछ शिष्य और प्रशंसक उनके पास गये और उन्होँने उनसे निवेदन किया कि वे उनके जन्म दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाना चाहते हैं। उन्होंने कहा- "मेरे जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने से निश्चय ही मैं अपने को गौरवान्वित अनुभव करूँगा।" तबसे आज तक 5 सितम्बर सारे देश में उनका जन्म दिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जा रहा है।
 
शिक्षा के क्षेत्र में डॉ॰ राधाकृष्णन ने जो अमूल्य योगदान दिया वह निश्चय ही अविस्मरणीय रहेगा। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। यद्यपि वे एक जाने-माने विद्वान, शिक्षक, वक्ता, प्रशासक, राजनयिक, देशभक्त और शिक्षा शास्त्री थे, तथापि अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में अनेक उच्च पदों पर काम करते हुए भी वे शिक्षा के क्षेत्र में सतत योगदान करते रहे। उनकी मान्यता थी कि यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाये तो समाज की अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है।
 
डॉ॰ राधाकृष्णन कहा करते थे कि मात्र जानकारियाँ देना शिक्षा नहीं है। यद्यपि जानकारी का अपना महत्व है और आधुनिक युग में तकनीक की जानकारी महत्वपूर्ण भी है तथापि व्यक्ति के बौद्धिक झुकाव और उसकी लोकतान्त्रिक भावना का भी बड़ा महत्व है। ये बातें व्यक्ति को एक उत्तरदायी नागरिक बनाती हैं। शिक्षा का लक्ष्य है ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरन्तर सीखते रहने की प्रवृत्ति। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान और कौशल दोनों प्रदान करती है तथा इनका जीवन में उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करती है। करुणा, प्रेम और श्रेष्ठ परम्पराओं का विकास भी शिक्षा के उद्देश्य हैं।
 
वे कहते थे कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। उन्होंने अनेक वर्षोँ तक अध्यापन किया। एक आदर्श शिक्षक के सभी गुण उनमें विद्यमान थे। उनका कहना था कि शिक्षक उन्हीं लोगों को बनाया जाना चाहिये जो सबसे अधिक बुद्धिमान हों। शिक्षक को मात्र अच्छी तरह अध्यापन करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिये अपितु उसे अपने छात्रों का स्नेह और आदर भी अर्जित करना चाहिये। सम्मान शिक्षक होने भर से नहीं मिलता, उसे अर्जित करना पड़ता है।
 
उनकी मृत्यु 17 अप्रैल 1975 को हुई थी।
 
== जन्म एवं परिवार ==