"राष्ट्रीयता": अवतरणों में अंतर

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'''राष्ट्रीयता''' (Nationality) किसी व्यक्ति और किसी [[संप्रभु राज्य]] (अक्सर [[देश]]) के बीच के क़ानूनी सम्बन्ध को बोलते हैं। राष्ट्रीयता उस राज्य को उस व्यक्ति के ऊपर कुछ अधिकार देती है और बदले में उस व्यक्ति को राज्य सुरक्षा व अन्य सुविधाएँ लेने का अधिकार देता है। इन लिये व दिये जाने वाले अधिकारों की परिभाषा अलग-अलग राज्यों में भिन्न होती है।<ref>Vonk, Olivier (March 19, 2012). Dual Nationality in the European Union: A Study on Changing Norms in Public and Private International Law and in the Municipal Laws of Four EU Member States. Martinus Nijhoff Publishers. pp. 19–20. ISBN 90-04-22720-2.</ref> आम तौर पर परम्परा व अंतरराष्ट्रीय समझौते हर राज्य को यह तय करने का अधिकार देते हैं कि कौन व्यक्ति उस राज्य की राष्ट्रीयता रखता है और कौन नहीं। साधारणतया राष्ट्रीयता निर्धारित करने के नियम राष्ट्रीयता क़ानून (nationality law) में लिखे जाते हैं।<ref>[http://eudo-citizenship.eu/InternationalDB/docs/Convention%20on%20certain%20questions%20relating%20to%20the%20conflict%20of%20nationality%20laws%20FULL%20TEXT.pdf Convention on Certain Questions Relating to the Conflict of Nationality Laws]. The Hague, 12 April 1930. Full text. Article 1, "It is for each State to determine under its own law who are its nationals...".</ref>
 
स्थानीयता, राष्ट्रीयता और वैश्विकता के आयाम परस्पर पूरक भूमिका निभाते चलते हैं। अथर्ववेद का सूत्र ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ प्रत्येक व्यक्ति के सामने पृथ्वीपुत्र होने का प्रादर्श रखता है। इसी बात को रामायणकार वाल्मीकि राम के मुख से कुछ इस तरह कहलवाते हैं, ‘‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ अपनी जन्मभूमि या भूखण्ड के प्रति प्रेम की इसी अभिव्यक्ति से ‘राष्ट्र’ की अवधारणा ने जन्म लिया। ‘राष्ट्र’ का प्रयोग हमारी परम्परा में तीन परस्पर सम्बद्ध अर्थों में होता आ रहा है। पहला राज्य, देश या साम्राज्य के अर्थ में, जैसे राष्ट्रदुर्गबलानि-अमरकोश, मनुस्मृति, (7/109, 10/61), दूसरा जिले, देश, प्रदेश या मंडल (मनु 7/73) के अर्थ में, जैसा आज भी सौराष्ट्र या महाराष्ट्र जैसे शब्दों में होता है, तथा तीसरा प्रजा, जनता या अधिवासी के अर्थ में (मनु. 9/254)। जाहिर है, जब हम ‘राष्ट्र’ की बात करते हैं, तब उसमें भूमि, जन और उनकी संस्कृति - सब कुछ समाहित हो जाते हैं। यजुर्वेद इसी राष्ट्र के प्रति जागरूक होने का आह्वान करता है, ‘व्यं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहितः।’ स्थानीयता के आग्रहों के बावजूद भारतीय जनमानस में ‘आसेतुहिमालय’ जैसे विस्तृत भूभाग के प्रति गहरा अनुराग सहस्राब्दियों से रहा है। यज्ञानुष्ठानों में ‘जम्बूदीपे भरतखण्डे आर्यावर्तदेशान्तर्गते’ कहकर अपनी भूमि के प्रति लगाव की अभिव्यक्ति कई शताब्दियों से जारी है। पुराणकालीन भारत का चित्र समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण के भूभाग को समेटता है, जिसकी प्रजा या संतति को भारती की संज्ञा मिली हुई है - उत्तरैण समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणे। वर्षं तद्भारतं नाम भारती यत्रा संततिः।।(ब्रह्मपुराण)
विष्णु पुराण (20/3/24) तो इसे स्वर्ग से भी बेहतर ठहराता है - ‘‘गायन्ति देवाः किल गीतिकानि धन्यास्तु ते भारतभूमि भागे। स्वर्गापर्गास्पद हेतुभूते भवन्ति भूयः पुरुषः सुरत्वात्।।’’
अर्थात् भारत में जन्म लेना सौभाग्य की बात है, तभी देवगण स्वर्ग का सुख भोगते हुए भी मोक्ष साधना के लिए कर्मभूमि भारत में जन्म लेने की कामना करते हैं।
 
राष्ट्र-निर्माण के लिए जरूरी घटकों में देश, जाति, धर्म, संस्कृति और भाषा को मान्यता दी जाती है। देश से आशय उसके अपने भूगोल से है, जाति वहाँ रहने वाले जनसमुदाय की बोधक है और फिर सबको धारण करने वाले धर्म का होना भी जरूरी है। यहाँ धर्म संकीर्ण अर्थ का वाचक नहीं है। संस्कृति उस राष्ट्र के जन-समुदाय की आत्मा होती है। संस्कृति यदि उच्चतम चिंतन का मूर्त रूप है तो है तो भाषा उसका माध्यम है। जाहिर है किसी भी राष्ट्र की एकता इन सभी घटकों के प्रति गहरी आत्मीयता पर निर्भर करती है। राष्ट्रीयता के लिए बेहद जरूरी है बाहरी तौर पर दिखाई देने वाले अंतर के बावजूद आंतरिक समभावना और संगठन।
 
== राष्ट्रीयता और नागरिकता में अंतर ==
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