"समाधि": अवतरणों में अंतर
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जब योगी इन सिद्धियों मे न फंस कर इनसे उपराम हो जाता है तब निर्विचार या निर्वीज समाधि होती है।निर्वीज समाधि मे अहम् न होने के कारण शरीर से सर्वदा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है, और योगी अपने सहज स्वभाव मे स्थित हो जाता है। चार सम्प्रज्ञात समाधि के ही विषयां में देश-काल, धर्म इत्यादि सम्बन्ध के बिना ही, मात्र धर्मी के, स्वरूप का ज्ञान प्रदान कराने वाली भावना निर्विचार समाधि कही जाती है। (3) आनन्दानुगतय सम्प्रज्ञात समाधि :- विचारानुगत सम्प्रज्ञात समाधि के निरन्तर अभ्यास करते रहने पर सत्वगुण की अधिकता से आनन्द स्वरूप अहंकार की प्रतीति होने लगती है, यही अवस्था आनन्दानुगत सम्प्रज्ञात समाधि कही जाती है। इस समाधि में मात्र आनन्द ही विषय होता है और ‘‘मैं सुखी हुँ’’ ‘‘मैं सुखी हुँ’’ ऐसा अनुभव होता है। इस समय कोई भी विचार अथवा ग्रहय विषय उसका विषय नहीं रहता। इसे ग्रहण समाधि कहते हैं। जो साधक ‘सानन्द समाधि’ को ही सर्वस्व मानकर आगे नहीं बढते, उनका देह से अभ्यास छूट जाता है परन्तु स्वरूपावस्थिति नहीं होती। देह से आत्माभिमान निवृत्त हो जाने के कारण इस अवस्था को प्राप्त हुए योगी ‘विदेह’ कहलाते हैं। (4) अस्मितानुगत सम्प्रज्ञानुगत समाधि :- आनन्दानुगत सम्प्रज्ञात समाधि के अभ्यास के कारण जिस समय अर्न्तमुखी रूप से विषयां से विमुख प्रवृत्ति होने से, बुद्धि का अपने कारण प्रकृति में विलीन होती है वह अस्मितानुगत समाधि है। इन समाधियां आलम्बन रहता है। अतः इन्हें सालम्बन समाधि कहते हैं। इसी अस्मितानुगत समाधि से ही सूक्ष्म होने पर पुरूष एवं चित्त में भिन्नता उत्पन्न कराने वाली वृत्ति उत्पन्न होती है। यह समाधि- अपर वैराग्य द्वारा साध्य है। असम्प्रज्ञात समाधि :- ‘सम्प्रज्ञात समाधि’ की पराकाष्ठा में उत्पन्न विवेकख्याति में भी आत्मस्थिति का निषेध करने वाली ‘परवैराग्यवृत्ति’ नेति-नेति यह स्वरूपावस्थिति नहीं है, के अभ्यास पूर्वक असम्प्रज्ञात समाधि सिद्ध होती है। ‘योग-सूत्र’ में ‘असम्प्रज्ञात समाधि’ का लक्षण इस प्रकार विहित है- ‘‘विरामप्रत्याभ्यासपूर्व : संस्कारशेषोऽन्यः।।’’69 अर्थात् सभी वृत्तियों के निरोध का कारण (पर वैराग्य के अभ्यास पूर्वक, निरोध) संस्कार मात्र शेष सम्प्रज्ञात समाधि से भिन्न असम्प्रज्ञात समाधि है। साधक का जब पर-वैराग्य की प्राप्ति हो जाती है, उस समय स्वभाव से ही चित्त संसार के पदार्थों की ओर नहीं जाता। वह उनसे अपने-आप उपरत हो जाता है उस उपरत-अवस्था की प्रतीति का नाम ही या विराम प्रत्यय है। इस उपरति की प्रतीति का अभ्यास-क्रम भी जब बन्द हो जाता है, उस समय चित्त की वृत्तियों का सर्वधा अभाव हो जाता है। केवल मात्र अन्तिम उपरत-अवस्था के संस्कारों से युक्त चित्त रहता है, फिर निरोध संस्कारों में क्रम की समाप्ति होने से वह चित्त भी अपने कारण में लीन हो जाता है। अतः प्रकृति के संयोग का अभाव हो जाने पर द्रष्टा की अपने स्वयं में स्थिति हो जाती है। इसी सम्प्रज्ञात समाधि या निर्बीज समाधि कहते हैं। इसी अवस्था को कैवल्य-अवस्था के नाम से भी जाना जाता है।
जिस प्रकार पानी में नमक मिलाने से घुल मिल जाता है उसी प्रकार मन का आत्मा मे विलीन हो जाना समाधि है।जब प्राणायाम के अभ्यास से प्राणवायु सम्यक् रूप से क्षीण होकर कुम्भक मे स्थिर हो जाता है और मानसिक वृत्तियां विलीन हो जाती हैं उस समय तैल धारावत चित्त का आत्मा के साथ एकीभाव समाधि कहलाता है। जीव आत्मा और परमात्मा का समत्व होने पर जब सारे संकल्प नष्ट हो जाते हैं,उस स्थिति को समाधि कहते हैं।प्रज्ञा अर्थात् जागतित वोध से शून्य जिस स्थिति मे मन और बुद्धि पूर्णतः विलीन हो जाते हैं। जिसमें कुछ आभासित नही होता,सर्वशून्याकार प्रतीत होता है। वह निर्वयामय अवस्था समाधि कहलाती है। शरीर के इधर-उधर चलने पर भी जीवात्मा जब निश्चल, नित्य स्वयं प्रकाश स्वरूप मे स्थिर रहता है उस अवस्था को समाधि कहते हैं। उस समय साधक का मन जहाँ-जहाँ जाता है वहाँ-वहाँ परमपद की प्राप्ति होती है। उसके लिये सर्वत्र परब्रह्म समरूप मे स्थित होता है। परमात्मा और जीवात्मा की एकता के विषय में निश्चयात्मक बुद्धि का उदय होना ही समाधि है।
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