"आर्य": अवतरणों में अंतर

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== अरविन्द जी के विचार ==
आर्य लोग जगत की सनातन स्थापना के जानकर थे। उनके अनुसार प्रेम शक्ति (सत्) के विकास के लिए सर्व्यापीसर्वव्यापी नारायण या ईश्वर स्थावर-जंगम मनुष्य-पशु कीट-पतंग साधू-पापी शत्रु-मित्र तथा
देवता और असुर के रूप में प्रकट होकर लीला कर रहे हैं। अरविन्द घोष के अनुसार अार्य लोग मित्र कि रक्षा करते और शत्रु का नाश करते थे किन्तु इसमें उनको आसक्ति नहीं थी। वे सर्वत्र, सब प्राणियों में, सब वस्तुओं में, कर्मों में और फल में ईश्वर को देख कर इष्ट-अनिष्ट शत्रु-मित्र सुख-दुःख तथा सिद्धि-असिद्धि में समभाव रखते थे। इस समभाव का परिणाम यह नहीं था कि सब कुछ उनके लिए सुखदायी और सब कर्म उनके करने योग्य थे।
 
बिना सम्पूर्ण योग के द्वंद्व नहीं मिटता है, और यह अवस्था बहुत कम लोगों को प्राप्त होती है, किन्तु आर्य शिक्षा साधारण आर्यों कि सम्पत्ति है| आर्य इष्ट साधन और अनिष्ट को हटाने में सचेत रहते थे, किन्तु इष्ट साधन से विजय के मद में चूर नहीं होते थे और अनिष्ट समपादन में डरते भी न थे। मित्र कि सहायता और शत्रु कि पराजय उनकी चेष्टा होती थी लेकिन वे शत्रु से द्वेष नहीं करते थे और मित्र का अन्याय भी सहन नहीं करते थे। आर्य लोग तो कर्तव्य के अनुरोध से स्वजनों का संहार भी करते थे और विपक्षियों कि प्राण रक्षा के लिए युद्ध भी करते थे। वे पाप को हटाने वाले और पुण्य का संचय करने वाले थे लेकिन पुण्य कर्म में गर्वित नहीं होते थे और पाप में पतित होने पर रोते नहीं थे वरन् शरीर की शुद्धि करके आत्मोन्नति में सचेष्ट हो जाते थे। आर्य लोग कर्म कि सिद्धि के लिए विपुल प्रयास करते थे और हजारों बार विफल होने पर भी वीरतविरत नहीं होते थे एवं असिद्धि में दुखी होना उनके लिए अधर्म था। <ref>Dharm aur Jatiyata - Jatiya uthhan page 82-83</ref><ref>http://www.new.dli.gov.in/scripts/FullindexDefault.htm?path1=/data3/upload/0086/465&first=1&last=149&barcode=99999990232234</ref>
 
== आर्य-आक्रमण के सिद्धांत में समय के साथ परिवर्तन ==
"https://hi.wikipedia.org/wiki/आर्य" से प्राप्त