"ज्ञान योग": अवतरणों में अंतर

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अब यदि विश्लेषण किया जाये तो वास्तव में ज्ञान योगी मायावाद के असल तत्व को जानकर,अपनी वास्तविकता और वेदांत के अद्वैत मत के अनुरूप आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानकर मुक्ति प्राप्त करता है।
 
जिस प्रकार प्राणशक्ति का हठयोग से, मनःशक्ति का ध्यानयोग से और क्रिया शक्ति का कर्मयोग से, तथा भावना शक्ति का भक्ति योग से सम्बन्ध है उसी प्रकार बुद्धि शक्ति का ज्ञानयोग से सम्बन्ध है। ज्ञानयोग की दृष्टि से संसार असत् , जड़ तथा दुख रूप है। ज्ञान में विवेक मुख्य रहता है, और विवेक में सत्-असत् , नित्य-अनित्य, नाशवान अविनाशी दोनों रहते हैं । विवेकी पुरूष संसार को दुख रूप समझ कर उनका परित्याग करता है। ज्ञानयोग मे संसार के साथ संबंध विच्छेद करने की मुख्यता है। संसार से सम्बन्ध विच्छेद करने में विवेक ही काम आता है । इसलिए यह एक लौकिक साधन है। ज्ञानी संसार के माने हुए संबंध एवं 'मै' और 'मेरे 'का त्याग करता है तथा पदार्थ और क्रिया का भी त्याग करता है तथा इनमें असंग रहता है। यदि साधक अपने ज्ञान का अनादर न करे तो ज्ञानयोग सिद्ध हो जाता है,किन्तु ज्ञानयोग के साधक का स्खलन से बचे रहना दुष्कर है क्योंकि इन मार्गों की किञ्चित त्रुटियाँ भी अक्षम्य हैं। ज्ञान में द्वेत का अद्वैत हो जाता है अर्थात जीव और ब्रह्म एक हो जाते हैं। ज्ञानी सोचते हैं कि हम इसी मुहूर्त में चरम लक्ष्य पर पहुँचना है इसलिए ज्ञान मार्ग में ईश्वर के साक्षात्कार के लिए उनके पास चलकर जाना होता है। ज्ञानयोगी स्वाधीन होता है। अहंकार इसमें बाधक होता है।
जिस प्रकार प्राणशक्ति का हठयोग से, मनःशक्ति का ध्यानयोग से और क्रिया शक्ति का कर्मयोग से, तथा भावना शक्ति का भक्ति योग से सम्बन्ध है उसी प्रकार बुद्धि शक्ति का ज्ञानयोग से सम्बन्ध है।
 
== इन्हें भी देखें ==