"गुण (भारतीय संस्कृति)": अवतरणों में अंतर
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[[सांख्य शास्त्र]] में 'गुण' शब्द प्रकृति के तीन अवयवों के अर्थ में प्रयुक्त होता है। प्रकृति [[सत्व]], [[रजस्]] तथा [[तमस्]] इन तीन गुणोंवाली है। गुणों की साम्यावस्था का ही नाम प्रकृति है। इन तीनों गुणों से अलग प्रकृति कुछ भी नहीं है। प्रकृति के जितने परिणाम हैं सबमें इन तीनो गुणों की स्थिति है परंतु कभी सत्व प्रधान होता है, कभी रजस् और कभी तमस्। सत्व की प्रधानता होने पर ऊर्ध्वगमन, ज्ञान, धर्म, ऐश्वर्य आदि उत्पन्न होते हैं। रजस् चल है, अत: गति का कारण है। तमस् गति को निरोधक तथा अधर्म, अज्ञान आदि का कारण है। इसी कारण प्रकृति को त्रिगुणात्मिका कहते हैं। इन गुणों की प्रधानता के आधार पर व्यक्तियों की प्रकृति, आहार आदि का भी विभाग किया जाता है। परंतु सांख्य के अनुसार [[पुरुष]] या [[आत्मा]] गुणातीत है। [[योग]] के अनुसार ईश्वर भी इन गुणों से परे है। सारे क्लेश, सांसारिक आनंद आदि का अनुभव गुणों के कारण होता है, अत: योग का चरम लक्ष्य निस्त्रैगुण्य अवस्था माना गया है।
सत् रज और तम ये क्रमशः प्रकाश प्रवृत्ति और स्थिर स्वाभाव वाले हैं। इनकी क्रम से सुख, दुख और मोह रूपी वृत्तियाँ हैं।ये तीनो गुण परिणामी हैं। कभी एक गुण दूसरे को दबाकर प्रधान हो जाता है, कभी दूसरा उसको। जब सत्व, रजस् तथा तमस को दबा लेता है तब सुख वृत्ति का उदय होता है। जब रजस्, तमस तथा सत्व को दबा लेता है तब दुख और जब तमस्, रजस् तथा सत्व को दबा लेता है तब तब मोह पैदा होता है। इन तीनों गुणों में परिणाम रहता है। इसी कारण इनकी वृत्तियों में भी परिणाम होना आवश्यक है और सुख के पश्चात दुख और मोह का होना स्वाभाविक है। यह वृत्तियों के विरोध से सुख में दुख की प्रतीति है। जिस प्रकार मकड़ी का जाला भी आख में पड़कर अधिक दुखदायी होता है उसी प्रकार विवेकी योगियों का चित्त अत्यंत शुद्ध होता है उनको लेश मात्र का दुख और क्लेश खटकता है। इस कारण वे संसार के सुखों को भी सदैव त्याज्य और दुख रूप समझते हैं।
== वैशेषिकदर्शन ==
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