"काललेखी": अवतरणों में अंतर

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ज्योतिष के कामों में प्रयुक्त किए जानेवाले काललिख अधिकतर निम्नलिखित सिद्धान्त पर बने रहते हैं : एक बेलनाकार ढोल पर कागज लपेट दिया जाता है। ढोल को समगति से केवल इतने वेग से घुमाया जाता है कि वह प्रति मिनट एक या दो पूरे चक्कर लगाए। एक लेखनी इस कागज के ऊपर इस प्रकार लगी रहती है कि ढोल के घूमने से वह कागज पर रेखा खींचती जाती है। लेखनी भी मंद समगति से पेंच द्वारा एक ओर हटती जाती है। इसलिए कागज पर खिंची रेखा सर्पिलाकार होती है। कलम एक [[विद्युत चुम्बक]] से संबद्ध रहती है। इस विद्युच्चुंबक में घड़ी द्वारा प्रति सेकंड एक विद्युत धारा क्षण भर के लिए आती रहती है जिससे लेखनी प्रति सेकण्ड क्षर भर के लिए एक ओर खिंच जाती है। इसलिए कागज पर खिंची रेखा में प्रत्येक सेकंड का चिह्न बन जाता है। जब किसी विशेष घटना के घटने पर बटन दबाने से वह लेखनी हटकर उस घटना के समय को भी अंकित कर देती है। चिह्नों के बीच की दूरी नापने से घटना के समय का पता सेकंड के सौवें भाग तक चल सकता है।
 
कभी-कभी कागज चढ़े बेलनाकार ढोल की जगह कागज के फीते की रील का प्रयोग करते हैं। फीते को समगति से लेखनी के नीचे से ले जाते हैं। इसमें सुविधा यह होती है कि यंत्र छोटा होता है, किंतु असुविधा यह है कि फीते पर के समय के लेखे को सुरक्षित रखना और बाद में प्रयोग करना कठिन होता है। कभी-कभी एक के स्थान पर दो लेखनियों का उपयोग किया जाता है, एक सेकंड अंकित करने के लिए और दूसरी घटना का समय। इसमें दोष यह हाताहोता है कि प्रत्येक लेखनी के किनारे हटने से भिन्न समय लग सकता है और इस कारण नापे हुए समय में थोड़ी त्रुटि पड़ सकती है। यदि भिन्न-भिन्न यंत्रों द्वारा प्राप्त घटनाओं का समय ज्ञात करना है तो दो से अधिक लेखनियों का भी उपयोग किया जा सकता है। प्रत्येक लेखनी का विद्युत चुम्बक एक भिन्न यंत्र द्वारा चालित होता है।
 
बाद में ऐसे भी काललिख बनाये गये जिनमें मिनट, सेकंड और सेकंड के शतांश के चिह्न एक घूमते हुए चक्र द्वारा, जिसमें छापे के टाइप लगे रहते हैं, कागज पर छाप दिए जाते हैं। छापने वाला चक्र एक नियंत्रक द्वारा समान वेग से घूमता है और घड़ी द्वारा इस वेग पर नियंत्रण रखा जाता है। घटना के समय को अंकित करने के लिए छोटी हथौड़ी रहती है जो बटन दबाने पर शीघ्रता से कागज पर चोट मारकर हट जाती है। इससे वह अंक, जो उस क्षण हथौड़ी के सम्मुख रहता है, कागज पर छप जाता है। इस प्रकार घटना का समय बिना किसी नाप के ज्ञात हो जाता है, परंतु लेखनी या हथौड़ी के चिह्नों को अंकित करने में कुछ समय लगता है और नाप में कुछ त्रुटि की संभावना रहती है। अत: बहुत सूक्ष्म नापों के लिए ऐसे काललिख बनाए गए हैं जिनमें विद्युत स्फुलिंग द्वारा घटनाक्रम अंकित किया जाता है।
 
==गति-काललिख==
[[बंदूक]] या [[तोप]] की गोली का वेग नापने के लिए दो पर्दे रखे जाते हैं। गोली के एक पर्दे से दूसरे पर्दे तक पहुँचने के समय को नापकरनाप कर गोली की गति निम्नलिखित सूत्र से जानी जा सकती है :
 
: गोली का वेग = पर्दों के बीच की दूरी / समय
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प्रकाश-वैद्युत पर्दो का भी प्रयोग किया जाता है। टेलिफ़ोटो लेंस (लेंज़) द्वारा गोली (और पृष्ठ भाग में आकाश) का चित्र एक प्रकाश वैद्युत सेल पर डालते हैं। जब लेंस के सामने से गोली जाती रहती है तो प्रकाश के कम हो जाने से सेल में विद्युद्धारा भी कम हो जाती है। और साथ ही विद्युत धारा भी। एकाएक बढ़ती हुई इस विद्युत धारा से संकेत भेजा जा सकता है।
 
गोली का वेग नापने के लिए कागज लपेटे ढोल का प्रयोग भी किया जा सकता है। साधाणरत: ढोल प्रति सेकंड ६० चक्कर लगता है। गोली पर्दे को जब पार करती है तब उस समय के संकेत द्वारा उत्पन्न स्फुल्लिंग कागज को अंकित कर देता है। एक दूसरे प्रकार के काललिख में ढोल पर साधारण कागज न लगा कर फोटोग्राफी का कागज लगाते हैं। ढोल अँधेरे बक्सबक्से में घूमता है और साथ ही धीरे-धीरे एक किनारे हटता जाता है। दोलनलेखी धारामापी के [[दर्पण]] से परावर्तित प्रकाशकिरण एक छिद्र में से जाकर फोटो के कागज पर रेखा खींचती जाती है। जब पर्दे से संकेत आता है तो धारामापी का दर्पण घूम जाता है और परावर्तित प्रकाशकिरण छिद्र की सीध में नहीं रहती। प्रकाश न पहुँचने से रेखा उस स्थान पर कटी सी जान पड़ती है। एक दूसरे धारामापी द्वारा प्रति १/१००० सेकंड एक चिह्न इस रेखा पर बनता जाता है; इससे नापने में सुविधा होती है।
 
[[द्वितीय विश्वयुद्ध|दूसरे महायुद्ध]] में समय नापने के लिए रेडियो वाल्वो के [[विद्युत परिपथ|परिपथों]] का भी प्रयोग हुआ। इन यंत्रों में तीन भाग होते हैं। पहले भाग में एक दोलक होता है जिससे प्रति १/१,००,०००वें सेकंड पर विद्युत स्पंदन भेजा जाता है। दूसरे भाग में यंत्र को चलाने और बंद करने का प्रबंध रहता है। पहले पर्दे से संकेत आने पर यंत्र अपने आप चलने लगता है और दूसरे पर्दे से संकेत आने पर स्वत: बंद हो जाता है। तीसरे भाग में विद्युत्स्पंदों को गिनने का प्रबंध रहता है। इनकी गिनती से पता चल जाता है कि दोनों संकेतों के बीच कितना समय बीता।