"अनुवाद": अवतरणों में अंतर

पंक्ति 89:
* The peculiar (विलक्षण) genious of a language appears best in the process of translation. - MARGARET MUNSTERBERG
* Say what one will of the inadequacy of translation, it remains one of the most important and worthiest concerns in the totality of world affaris. - J.W.V. GOETHE
 
== अनुवाद की परिभाषा ==
एक विशिष्ट प्रकार के भाषिक व्यापार के रूप में अनुवाद, भारतीय परम्परा की दृष्टि से, कोई नई बात नहीं । वस्तुतः 'अनुवाद' शब्द और उससे उपलक्षित भाषिक व्यापार भारतीय परम्परा में बहुत पहले से चले आए हैं । अतः 'अनुवाद' शब्द और इसके अंग्रेजी पर्याय ‘ट्रांसलेशन' के व्युत्पत्तिमूलक और प्रवृत्तिमूलक अर्थों की सहायता से अनुवाद की परिभाषा और उसके स्वरूप को श्रेष्ठतर रूप से जाना जा सकता है।
 
=== व्यत्पत्तिमूलक अर्थ ===
'अनुवाद' का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है - पुनः कथन; एक बार कही हुई बात को दोबारा कहना । इसमें 'अर्थ की पुनरावृत्ति होती हैं, शब्द (शब्द रूप) की नहीं । 'ट्रांसलेशन' शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है 'पारवहन' अर्थात् एक स्थान-बिन्दु से दूसरे स्थान-बिन्दु पर ले जाना । यह स्थान-बिन्दु भाषिक पाठ है। इसमें भी ले जाई जाने वाली वस्तु अर्थ होता है, शब्द नहीं । उपर्युक्त दोनों शब्दों में अन्तर व्युत्पत्तिमूलक अर्थ की दृष्टि से है, अतः सतही है । वास्तविक व्यवहार में दोनों की समानता स्पष्ट है । अर्थ की पुनरावृत्ति को ही दूसरे शब्दों में और प्रकारान्तर से, अर्थ का भाषान्तरण कहा जाता है, जिसमें कई बार मूल भाषा की रूपात्मक-गठनात्मक विशेषताएँ लक्ष्यभाषा में संक्रान्त हो जाती है।
 
वस्तुतः 'अनुवाद' शब्द का भारतीय परम्परा वाला अर्थ आधुनिक सन्दर्भ में भी मान्य है और इसी को केन्द्र बिन्दु बनाकर अनुवाद की प्रकृति को अंशशः समझा जाता है। तदनुसार, '''अनुवाद कार्य के तीन सन्दर्भ हैं - समभाषिक, अन्यभाषिक और अन्तरसंकेतपरक।'''
 
==== समभाषिक अनुवाद ====
समभाषिक सन्दर्भ में अर्थ की पुनरावृत्ति एक ही भाषा की सीमा के अन्तर्गत होती है, परन्तु इसके आयाम भिन्न-भिन्न हो जाते हैं। मुख्य आयाम दो हैं -'''कालक्रमिक और समकालिक'''। कालक्रमिक आयाम पर समभाषिक अनुवाद एक ही भाषा के ऐतिहासिक विकास की दो निकटस्थ अवस्थाओं में होता है, जैसे, पुरानी हिन्दी से आधुनिक हिन्दी में अनुवाद। समकालिक आयाम पर समभाषिक अनुवाद मुख्य रूप से तीन स्तरों पर होता है - '''बोली, शैली और माध्यम'''।
 
बोली स्तर पर समभाषिक अनुवाद के चार उपस्तर हो सकते हैं :
 
(क) एक भौगोलिक बोली से दूसरी भौगोलिक बोली में; जैसे [[ब्रजभाषा|ब्रज]] से [[अवधी]] में ।
 
(ख) अमानक बोली से मानक बोली में; जैसे [[गंजाम जिला|गंजाम ओड़िया]] से [[पुरी जिला|पुरी की ओड़िया]] में अथवा [[नागपुरी भाषा|नागपुर मराठी]] से [[पुणे जिला|पुणे मराठी]] में।
 
(ग) बोली रूप से भाषा रूप में, जैसे ब्रज या अवधी से [[हिन्दी]] में
 
(घ) एक सामाजिक बोली से दूसरी सामाजिक बोली में, जैसे अशिक्षितों या अल्पशिक्षितों की भाषा से शिक्षितों की भाषा में या एक धर्म में दीक्षित लोगों की भाषा से अन्य धर्म में दीक्षित लोगों की भाषा में ।
 
शैली स्तर पर समभाषिक अनुवाद को शैली-विकल्पन के रूप में भी देखा जा सकता है। इसका एक अच्छा उदाहरण है औपचारिक शैली से अनौपचारिक शैली में अनुवाद; जैसे ‘धूम्रपान वर्जित है' (औपचारिक शैली) → ‘बीड़ी सिगरेट पीना मना है' (अनौपचारिक शैली) । इसी प्रकार ‘ट्यूबीय वायु आधान में सममिति नहीं रह गई। है' (तकनीकी शैली) -> 'टायर की हवा निकल गई है' (गैरतकनीकी शैली)।
 
माध्यम की दृष्टि से समभाषिक अनुवाद की स्थिति वहाँ होती है जहाँ मौखिक माध्यम में प्रस्तुत सन्देश की लिखित माध्यम में या इसके विपरीत पुनरावृत्ति की जाए; जैसे, मौखिक माध्यम का का एक वाक्य है : "समय की सीमा के कारण मैं अपने श्रोताओं को अधिक विस्तार से इस विषय में नहीं बता पाऊँगा ।" इसी को लिखित माध्यम में इस प्रकार से कहना सम्भवतः उचित माना जाता है : "स्थान की सीमा के कारण मैं अपने पाठकों को अधिक विस्तार से इस विषय का स्पष्टीकरण नहीं कर सकुंगा ।" ('समय' → 'स्थान', 'श्रोता' → 'पाठक'; 'विषय में बता पाना' > 'का स्पष्टीकरण कर सकना') ।
 
समभाषिक अनुवाद के उपर्युक्त उदाहरणों से दो बातें स्पष्ट होती हैं ।
 
(क) अर्थान्तरण या अर्थ की पुनरावृत्ति की प्रक्रिया में शब्दचयन तथा वाक्य-विन्यास दोनों प्रभावित होते हैं । माध्यम अनुवाद में [[स्वनप्रक्रिया]] की विशेषताएँ (बलाघात, अनुतान आदि) लिखित व्यवस्था की विशेषताओं (विराम-चिह्न आदि) का रूप ले लेती हैं या इसके विपरीत होता है।
 
(ख) बोली, शैली, और माध्यम के आयामों के मध्य कठोर विभाजन रेखा नहीं, अपि तु इनमें आंशिक अतिव्याप्ति पाई जाती है, जिसकी सम्भावना भाषा प्रयोग की प्रवृत्ति में ही निहित है । जैसे, शैलीगत अनुवाद की आंशिक सत्ता माध्यम अनुवाद में दिखाई देती है, और तदनुसार 'के विषय में बता पाना' जैसा मौखिक माध्यम का, अत एव अनौपचारिक, चयन, लिखित माध्यम में औपचारिकता का स्पर्श लेता हुआ 'का स्पष्टीकरण कर सकना' हो जाता है। इसी प्रकार शैलीगत अनुवाद में समाजिक बोलीगत अनुवाद भी कभी-कभी समाविष्ट हो जाता है । जैसे, शिक्षितों की बोली में, औपचारिक शैली की प्रधानता की प्रवृत्ति हो सकती है और अल्पशिक्षितों या अशिक्षितों की बोली में अनौपचारिक शैली की।
 
समभाषिक अनुवाद की समस्याएँ न केवल रोचक हैं अपि तु अन्यभाषिक अनुवाद की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण भी हैं । अनुवाद को भाषाप्रयोग की एक विधा के रूप में देखने पर समभाषिक अनुवाद का महत्त्व और भी स्पष्ट हो जाता है । इसके अतिरिक्त अन्यभाषिक अनुवाद की प्रकृति को समझने की दृष्टि से समभाषिक अनुवाद की प्रकृति को समझना न केवल सहायक है, अपि तु आवश्यक भी है । ये कहा जा सकता है कि '''अनुवाद व्युत्पन्न भाषाप्रयोग है,''' जिसके दो सन्दर्भ हैं - समभाषिक और अन्यभाषिक । इस सन्दर्भ भेद से अनुवाद व्यवहार में अन्तर आ जाता है, परन्तु दोनों ही स्थितियों में अनुवाद की प्रकृति वही रहती है।
 
==== अन्यभाषिक अनुवाद ====
अन्यभाषिक अनुवाद दो भाषाओं के बीच में होता है । ये दो भाषाएँ ऐतिहासिकता और क्षेत्रीयता के समन्वित मानदण्ड पर स्वतन्त्र भाषाओं के रूप में पहचानी जाती हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से एक ही धारा में आने वाली भाषाओं को सामान्यतः उस स्थिति में स्वतन्त्र भाषा के रूप में देखते हैं यदि वह कालक्रम में एक दूसरे के निकट सन्निहित न हों, जैसे संस्कृत और हिन्दी; इन दोनों के मध्य प्राकृत भाषाएँ आ जाती हैं । इसी प्रकार क्षेत्रीयता की दृष्टि से प्रतिवेशी भाषाओं में अत्यधिक आदन-प्रदान होने पर भी उन्हें भिन्न भाषाएँ ही मानना होगा, जैसे हिन्दी और [[पंजाबी]] । अन्यभाषिक अनुवाद के सन्दर्भ में सम्बन्धित भाषाओं का स्वतन्त्र अस्तित्व महत्त्व की बात होती है । समभाषिक अनुवाद की तुलना में अन्यभाषिक अनुवाद सामाजिक और व्यावहारिक दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण है। भाषाप्रयोग की दृष्टि से अन्यभाषिक अनुवाद की समस्याओं में समभाषिक अनुवाद की समस्याओं से गुणात्मक अन्तर दिखाई पड़ता है । इस प्रकार समभाषिक अनुवाद से सम्बन्धित होते हुए भी अन्यभाषिक अनुवाद, अपेक्षाकृत स्वनिष्ठ व्यापार है ।
 
==== अन्तरसङ्केतभाषिक अनुवाद ====
अनुवाद शब्द के उपर्युक्त दोनों सन्दर्भ अपेक्षाकृत सीमित हैं । इनमें अनुवाद को भाषा-सङ्केतों का व्यापार माना गया है । वस्तुतः भाषा-सङ्केत, सङ्केतों की एक विशिष्ट श्रेणी है, जिनके द्वारा सम्प्रेषण कार्य सम्पन्न होता है । सम्प्रेषण के लिए विभिन्न कोटियों के सङ्केतों को काम में लिया जाता है। इन्हें सामान्य सङ्केत कहा जाता है । इस दृष्टि से भी अनुवाद शब्द की परिभाषा की जाती है। इसके अनुसार एक संकेतों द्वारा कही गई बात को दुसरी कोटि के संकेतों द्वारा पुनः कहना इस प्रकार के अनुवाद को अन्तरसंकेतपरक अनुवाद कहा जाता है। यह सामान्य संकेत विज्ञान के अन्तर्गत है । भाषिक संकेतों को प्रवर्तन बिन्दु मानकर संकेतों को भाषिक और भाषेतर में विभक्त किया जाता है। भाषेतर में दो भाग हैं - बाह्य (बाह्य ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ग्राह्य) और आन्तरिक (अन्तरिन्द्रिय द्वारा ग्राह्य)।
 
अनुवाद की दृष्टि से संकेत-परिवर्तन के व्यापार की निम्नलिखित कोटियाँ बन सकती हैं :
 
'''१. बाह्य संकेत का बाह्य संकेत में अनुवाद''' - इसके अनुसार किसी देश का मानचित्र उस देश का अनुवाद है; किसी प्राणी का चित्र उस प्राणी का अनुवाद है ।
 
'''२. बाह्य संकेत का भाषिक संकेत में अनुवाद -''' इसके अनुसार किसी प्राणी के लिये किसी भाषा में प्रयुक्त कोई शब्द उस प्राणी का अनुवाद है । इस दृष्टि से वस्तुतः यहा भाषा दर्शन की समस्या है जिसकी व्याख्या अर्थ के संकेत सिद्धान्त में की गई है।
 
'''३. आन्तरिक संकेत से आन्तरिक संकेत में अनुवाद -''' इसके अनुसार किसी एक घटना को उसकी समशील संवेदना में परिवर्तित करना इस श्रेणी का अनुवाद है । स्पष्ट है कि इस स्थिति की वास्तविक सत्ता नहीं हो सकती । अतः केवल सैद्धान्तिकता की दष्टि से ही यह कोटि निर्धारित की जाती है।
 
'''४. आन्तरिक संकेत से भाषिक संकेत में अनुवाद -''' इसके अनुसार किसी आन्तरिक संवेदना के लिए किसी शब्द का प्रयोग करना इस कोटि का अनुवाद है। इसको अधिक स्पष्टता से कहा जाता है कि, किसी भौतिक स्थिति के साथ सम्पर्क होने पर - जैसे, किसी दुर्घटना को देखकर, प्रकृति के किसी दृश्य को देखकर, किसी वस्तु को हाथ लगाकर, कुछ सँघकर; दूसरे शब्दों में इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष होने पर - मन में जिस संवेदना का उदय होता है वह एक प्रकार का संकेत है । उसके लिये भाषा के किसी शब्द का प्रयोग करना या भाषिक संकेत द्वारा उसकी पुनरावृत्ति करना इस कोटि का अनुवाद कहलाएगा । उदाहरण के लिए, एक विशिष्ट प्रकार की वेदना का संकेत करने के लिए हिन्दी में ‘शोक' शब्द का प्रयोग किया जाता है और दूसरी के लिए 'प्रेम' का । समझा जाता है कि एक संवेदना का अनुवाद ‘शोक' शब्द द्वारा किया जाता है और दूसरी का 'प्रेम' द्वारा । इस दृष्टि से यह कहा जाता है कि समस्त मौलिक अभिव्यक्ति अनुवाद है।<ref>स० ही वात्स्यायन कहते हैं, "समस्त अभिव्यक्ति अनुवाद है क्योंकि वह अव्यक्त (या अदृश्य आदि) को भाषा (या रेखा या रंग) में प्रस्तुत करती है।" ('अनुवाद : कला और समस्याएँ' 1961, पृ० 4)। यह भी द्रष्टव्य है कि संस्कृत परम्परा में 'अनुवाद' शब्द का एक अर्थ है वाणी का प्रयोग = वाचारंभनमात्रम् (शब्दकल्पद्रुम), जो मौलिक अभिव्यक्ति का पर्याय है ।</ref> वक्ता या लेखक अपने संवेदना रूपी संकेतों की भाषिक संकेतों में पुनरावृत्ति कर देता है । इस दृष्टि से यह भाषा मनोविज्ञान की समस्या है, जिसकी व्याख्या [[उद्दीपक (मनोविज्ञान)|उद्दीपन-अनुक्रिया]] सिद्धान्त में की गई है।
 
इस प्रकार, अनुवाद शब्द की व्यापक परिधि में तीनों सन्दर्भों के अनुवादों का स्थान है -समभाषिक अनुवाद, अन्यभाषिक अनुवाद, और अन्तरसंकेतपरक अनुवाद । तीनों का अपना-अपना सैद्धान्तिक आधार है । इन तीनों के मध्य का भेद जानना महत्त्वपूर्ण है। अनुवादक को यह स्थिर करना है कि इन तीनों में केन्द्रीय स्थिति किसकी है तथा शेष दो का उनके साथ कैसा सम्बन्ध है।
 
सैद्धान्तिक औचित्य की दृष्टि से अन्यभाषिक अनुवाद की स्थिति केन्द्रीय है । केवल ‘अनुवाद' शब्द (विशेषणरहित पद) से अन्यभाषिक अनुवाद का अर्थ ग्रहण किया जाता है । इसका मूल है द्विभाषाबद्धता । अनुवादक का बोधन तथा अभिव्यक्ति दोनों स्थितियों में ही भाषा से बँधे रहते हैं और ये भाषाएँ भी भेद (काल, स्थान या प्रयोग सन्दर्भ पर आधारित भेद) की दृष्टि से नहीं, अपि तु कोड की दृष्टि से भिन्न-भिन्न होती हैं; जैसे हिन्दी और अंग्रेजी, हिन्दी और सिन्धी आदि ।
 
इस केन्द्रीय स्थिति के दो छोर हैं । प्रथम छोर पर दोनों स्थितियों में भाषाबद्धता रहती है, परन्तु भाषा वही रहती है । स्थितियों को अन्तर उसी भाषा के भेदों के अन्तर पर आधारित होता है । यह समभाषिक अनुवाद है । पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग की स्पष्टता के लिए इसे 'अन्वयान्तर' या 'शब्दान्तरण' कहा जाता है । दूसर छोर पर भाषेतर संकेत का भाषिक संकेत में परिवर्तन होता है । संकेत पद्धति का यह परिवर्तन भाषा प्रयोग की सामान्य स्थिति को जन्म देता है । पारिभाषिक शब्दावली में इसे 'भाषा व्यवहार' कहा जाता है। इन तीनों (समभाषिक अनुवाद, अन्यभाषिक अनुवाद, और अन्तरसंकेतपरक अनुवाद) में सम्बन्ध तथा अन्तर दोनों हैं। यह सम्बन्ध उभयनिष्ठ है ।
 
अनुवाद (अन्यभाषिक अनुवाद) की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वास्तविक अनुवाद कार्य में तथा अनुदित पाठ के मूल्यांकन में अनुवादकों को समभाषिक अनुवाद तथा अन्तरसंकेतपरक अनुवाद की संकल्पनाओं से सहायता मिलती है । यह आवश्यकता तभी मुखर रूप से सामने आती है, जब अनुवाद करते-करते अनुवादक कभी अटक जाते हैं -मूल पाठ का सम्यक् बोधन नहीं हो पातें, लक्ष्यभाषा में शुद्ध और उपयुक्त अनुवाद का पर्याप्ततया अन्वेषण करने में कठिनाई होती है, अनुवादक को यह जाँचना होता है कि अनुवाद कितना सफल है, इत्यादि।
 
=== प्रवृत्तिमूलक अर्थ ===
प्रवृत्तिमूलक में (व्यवहार में) 'अनुवाद' शब्द से अन्यभाषिक अनुवाद का ही अर्थ लिया जाता है। और इसी कारण शनैः शनैः यह बात सिद्धान्त का भी अङ्ग बन गई है कि अनुवाद दो भाषाओं के मध्य होने वाली प्रक्रिया है । इस स्थिति का स्वीकार किया जाता है। संस्कृत परम्परा का 'छाया' शब्द इसी स्थिति का सङ्केत करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
 
=== परिभाषा के दृष्टीकोण ===
अनुवाद के स्वरूप को समझने के लिए अनुवाद की परिभाषा विशेष रूप से सहायक है । अनुवाद की बहुपक्षीयता को देखते हुए अनुवाद की परिभाषा विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रस्तुत की गई है । मुख्य दृष्टिकोण तीन प्रकार के हैं - (१) अनुवाद एक प्रक्रिया है। (२) अनुवाद एक प्रक्रिया अथवा/और उसका परिणाम है। (३) अनुवाद एक सम्बन्ध का नाम है।
 
==== अनुवाद एक प्रक्रिया है ====
इस दृष्टिकोण के अन्तर्गत निम्नलिखित परिभाषाएँ उद्धृत की जाती हैं :
 
(क) "मूलभाषा के सन्देश के सममूल्य सन्देश को लक्ष्यभाषा में प्रस्तुत करने की क्रिया को अनुवाद कहते हैं । सन्देशों की यह मूल्यसमता पहले अर्थ और फिर शैली की दृष्टि से, तथा निकटतम एवं स्वाभाविक होती है ।" (नाइडा तथा टेबर)<ref>नाइडा तथा टेबर १९६९ : १२</ref>
 
(ख) "अनुवाद वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा सार्थक अनुभव (अर्थपूर्ण सन्देश या देश का अर्थ) एक भाषा-समुदाय से दूसरे भाषा-समुदाय को सम्प्रेषित किया जाता है।" (पट्टनायक)<ref>पट्टनायक १९६८ : ५७</ref>
 
(ग) "एक भाषा की पाठ्यसामग्री को दूसरी भाषा की समानार्थक पाठ्यसामग्री द्वारा प्रस्थापित करना अनुवाद कहलाता है ।" (कैटफोर्ड)<ref>कैटफोर्ड १९६५ : २०</ref>
 
(घ) "अनुवाद एक शिल्प है जिसमें एक भाषा में लिखित सन्देश के स्थान पर दूसरी भाषा के उसी सन्देश को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया जाता है।" (न्यूमार्क)<ref>न्यूमार्क १९७६ : ९</ref>
 
==== अनुवाद एक प्रक्रिया या उसका परिणाम है ====
इसके अन्तर्गत निम्न लिखित परिभाषा को उद्धृत किया जाता है :
 
(क) "एक भाषा या भाषाभेद से दूसरी भाषा या भाषाभेद में प्रतिपाद्य को स्थानान्तरित करने की प्रक्रिया या उसके परिणाम को अनुवाद कहते हैं।" (हार्टमन तथा स्टार्क)<ref>हार्टमन तथा स्टार्क १९७२: २४२</ref>
 
==== अनुवाद एक सम्बन्ध का नाम है ====
इसके अन्तर्गत निम्नलिखित परिभाषा आती है :
 
(क) "अनुवाद एक सम्बन्ध है, जो दो या दो से अधिक पाठों के बीच होता है; ये पाठ समान स्थिति में समान प्रकार्य सम्पादित करते हैं (दोनों पाठों का सन्दर्भ समान होता है और उनसे व्यंजित होने वाला सन्देश भी समान होता है) ।" (हैलिडे)<ref>हैलिडे १९६४ : १२४</ref>
 
अनुवाद की परिभाषाओं का यह वर्गीकरण जहाँ अनुवाद की प्रकृति की बहुपक्षीयता को स्पष्ट करता है, वहाँ इससे यह संकेत भी मिलता है कि, विभिन्न उद्देश्यों के अनुसार अनुवाद की परिभाषाएँ भी भिन्न-भन्न हो सकती हैं। इस प्रकार ये सभी परिभाषाएँ मान्य हैं। इन परिभाषाओं के आधार पर अनुवाद के दो पक्ष माने जाते हैं।
 
=== अनुवाद के पक्ष ===
अनुवाद के दो पक्ष हैं - पहला '''संक्रियात्मक पक्ष''' अत एव गतिशील और दूसरा '''सैद्धान्तिक पक्ष''' अत एव स्थितिशील ।
 
==== संक्रियात्मक पक्ष ====
संक्रियात्मक दृष्टि से अनुवाद एक प्रक्रिया है । अनुवाद के पक्ष का सम्बन्ध अनुवाद करने के कार्य से है जिसके लिए 'अनुवाद कार्य' शब्द का प्रयोग करना उचित माना जाता है।
 
==== सैद्धान्तिक पक्ष ====
सैद्धान्तिक दृष्टि से अनुवाद एक सम्बन्ध है जो दो या दो से अधिक, परन्तु विभिन्न भाषाओं के पाठों के मध्य होता है; परन्तु वे समानार्थक होने चाहिये।
 
इस सम्बन्ध का उद्घाटन तुलनात्मक पद्धति के अध्ययन से किया जाता है । इन दोनों का समन्वित रूप इस धारणा में मिलता है कि अनुवाद एक निष्पत्ति है - कार्य का परिणाम अनुवाद है - जो अपने मूल पाठ से पर्यायता के सम्बन्ध से जुड़ा है । निष्पत्ति के रूप में अनुवाद को 'अनुदित पाठ' कहा जाता है । इस दृष्टि से एक मूल पाठ के अनेक अनुवाद हो सकते हैं । इस प्रकार संक्रियात्मक दृष्टि से अनुवाद को जहाँ भाषा प्रयोग की एक विधा के रूप में जाना जाता है, वहाँ सैद्धान्तिक दृष्टि से इसका सम्बन्ध भाषा पाठ तुलना तथा व्यतिरेकी विश्लेषण की तकनीकों पर आधारित भाषा सम्बन्धों के प्रश्न से (तुलनात्मक-व्यतिरेकी पाठ भाषाविज्ञान यही है) जोड़ा जाता है ।
 
अनुवाद को अनुप्रयुक्त [[भाषाविज्ञान]] की शाखा कहा गया है । वस्तुतः, अपने इस रूप में यह अपने प्रक्रिया रूप तथा सम्बन्ध रूप परिभाषाओं की योजक कड़ी है, जिसका संक्रियात्मक आधार अनुदित पाठ है, जिसके मूल में 'अनुवाद एक निष्पत्ति है' की धारणा निहित है। इन परिभाषाओं से अनुवाद के विषय में जो अन्य जानकारी मिलती है, वें बन्दुवार निम्न प्रकार से हैं -
 
(१) अनुवाद एक भाषा या भाषाभेद से दूसरी भाषा या भाषा भेद में होता है ।
 
(२) यह प्रक्रिया, परिवर्तन, स्थानान्तरण, प्रतिस्थापन, या पुनरावृत्ति की प्रकृति की होती है ।
 
(३) स्थानान्तरित होने वाली वस्तु को विभिन्न नामों से इङ्गित कर सकते हैं, जैसे पाठ्यसामग्री, सार्थक अनुभव, सूचना, सन्देश । ये विभिन्न नाम अनुवाद की सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि के विभिन्न आयोमों तथा अनुवाद कार्य के उद्देश्यों में अन्तर से जुड़े हैं । जैसे, भाषागत 'पाठ्यसामग्री' नाम से व्यक्त होने वाली सुनिश्चितता अनुवाद के भाषावैज्ञानिक आधार की विशेषता है, जिसका विशेष उपयोग मशीन अनुवाद में होता है । 'सूचना' और 'सार्थक अनुभव' अनुवाद के समाजभाषागत आधार का संकेत करते हैं; और ‘सन्देश' से अनुवाद की पाठसंकेतपरक पृष्ठभूमि उपलक्षित होती है ।
 
(४) उपर्युक्त की विशेषता यह होती है कि इसका दोनों भाषाओं में समान अर्थ होता है । यह अर्थ की समानता व्यापक दृष्टि से होती है और भाषिक अर्थ से लेकर सन्दर्भमूलक अर्थ तक व्याप्त रहती है ।
 
संक्षेप में, एक भाषा के विशिष्ट भाषाभेद के विशिष्ट पाठ को दूसरी भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत करना अनुवाद है, जिसमें वह मूल के भाषिक अर्थ, प्रयोग के वैशिष्ट्य से निष्पन्न अर्थ, प्रयुक्ति और शैली की विशेषता, विषयवस्तु, तथा सम्बद्ध सांस्कृतिक वैशष्ट्यि को यथासम्भव संरक्षित रखते हुए दूसरी भाषा के पाठक को स्वाभाविक रूप से ग्राह्य प्रतीत हो।
 
== अनुवाद का महत्त्व ==