"महात्मा गांधी": अवतरणों में अंतर

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=== विदेश में शिक्षा व विदेश में ही वकालत ===
[[चित्र:Gandhi and Kasturbhai 1902.jpg|left|thumb|गान्धी व उनकी पत्नी [[कस्तूरबा गांधी|कस्तूरबा]] (1902 का [[फोटो]])]]
अपने १९वें जन्मदिन से लगभग एक महीने पहले ही ४ सितम्बर [[१८८८]] को गांधी यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में कानून की पढाई करने और बैरिस्टर बनने के लिये [[इंग्लैंड]] चले गये। भारत छोड़ते समय जैन भिक्षु बेचारजी के समक्ष हिन्दुओं को मांस, शराब तथा संकीर्ण विचारधारा को त्यागने के लिए अपनी अपनी माता जी को दिए गये एक वचन ने उनके शाही राजधानी [[लंदन]] में बिताये गये समय को काफी प्रभावित किया। हालांकि गांधी जी ने ''अंग्रेजी'' रीति रिवाजों का अनुभव भी किया जैसे उदाहरण के तौर पर नृत्य कक्षाओं में जाने आदि का। फिर भी वह अपनी मकान मालकिन द्वारा मांस एवं पत्ता गोभी को हजम.नहीं कर सके। उन्होंने कुछ शाकाहारी भोजनालयों की ओर इशारा किया। अपनी माता की इच्छाओं के बारे में जो कुछ उन्होंने पढा था उसे सीधे अपनाने की बजाय उन्होंने बौद्धिकता से [[शाकाहार|शाकाहारी]] भोजन का अपना भोजन स्वीकार किया। उन्होंने [[शाकाहार|शाकाहारी समाज]] की सदस्यता ग्रहण की और इसकी कार्यकारी समिति के लिये उनका चयन भी हो गया जहाँ उन्होंने एक स्थानीय अध्याय की नींव रखी। बाद में उन्होने संस्थाएँ गठित करने में महत्वपूर्ण अनुभव का परिचय देते हुए इसे श्रेय दिया। वे जिन [[शाकाहारी]] लोगों से मिले उनमें से कुछ [[थियोसोफिकल सोसायटी]] के सदस्य भी थे। इस सोसाइटी की स्थापना १८७५ में विश्व बन्धुत्व को प्रबल करने के लिये की गयी थी और इसे [[बौद्ध धर्म]] एवं [[सनातन धर्म]] के साहित्य के अध्ययन के लिये समर्पित किया गया था।
 
उन्हों लोगों ने गांधी जी को [[श्रीमद्भगवद्गीता]] पढ़ने के लिये प्रेरित किया। [[हिन्दू]], [[ईसाई]], [[बौद्ध]], [[इस्लाम]] और अन्य धर्मों .के बारे में पढ़ने से पहले गांधी ने [[धर्म]] में विशेष रुचि नहीं दिखायी। [[इंग्लैंड]] और [[वेल्स]] बार एसोसिएशन में वापस बुलावे पर वे भारत लौट आये किन्तु [[बम्बई]] में वकालत करने में उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली। बाद में एक हाई स्कूल शिक्षक के रूप में अंशकालिक नौकरी का प्रार्थना पत्र अस्वीकार कर दिये जाने पर उन्होंने जरूरतमन्दों के लिये मुकदमे की अर्जियाँ लिखने के लिये राजकोट को ही अपना स्थायी मुकाम बना लिया। परन्तु एक अंग्रेज अधिकारी की मूर्खता के कारण उन्हें यह कारोबार भी छोड़ना पड़ा। अपनी [[आत्मकथा]] में उन्होंने इस घटना का वर्णन अपने बड़े भाई की ओर से परोपकार की असफल कोशिश के रूप में किया है। यही वह कारण था जिस वजह से उन्होंने सन् १८९३ में एक भारतीय फर्म से नेटाल [[दक्षिण अफ्रीका]] में, जो उन दिनों [[ब्रिटिश साम्राज्य]] का भाग होता था, एक वर्ष के करार पर वकालत का कारोवार स्वीकार कर लिया।