द्वार का साधारण रूप आयताकार छिद्र का होता है, किंतु आयत का ऊपरी भाग गोल या लंबी मेहराब वाला, या अन्य किसी रूप का भी हो सकता है। ईटंईंट, या पत्थर की चिनाईवाले भवनों के द्वारों में चौखट लगी होती है, जिसमें ऊपर की ओर लकड़ी का जोता होता है। लकड़ी के मकानों में जोते की क्षैतिज लकड़ी में चूलें बनाकर अगल-बगल की खड़ी लकड़ियों के बीच लगा देते हैं और खड़ी लकड़ियाँ ऊपर छत तक चली जाती हैं। गुफाभवनों, अर्थात् पत्थर या शिला काटकर बनाए हुए भवनों, में अलग से चौखटे की आवश्यकता नहीं होती, किंतु बहुधा ऐसे द्वारों के चतुर्दिक् सजावट के लिए रेखाएँ या अन्य अभिकल्प उत्कीर्ण कर दिए जाते हैं।
[[चित्र:Sadar Manjil Bhopal (5).jpg|thumb|right|300px|किले,महल आदि स्थानों के मुख्य द्वार पर कील लगे दरवाजे लगाए जाते थे जिससे [[हाथी]] उन्हें ना तोड़ सके ]]
विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न समयों पर प्रचलित वास्तुकला के अनुसार द्वारों के ऊपरी भाग का रूप बदलता रहा है। प्राचीन भवनों के अवशेषों में ऐसे सभी रूपों के द्वार मिलते हैं। प्राचीन मिस्र में पर्दे की दीवार में बने द्वार दीवार से भी ऊँचे बनते थे, ताकि झंडे या धार्मिक कार्यें से संबधित अन्य लंबी वस्तुएँ भीतर ले जाने में सुविधा हो। बाजुओं के पत्थर ऊपर की ओर थोड़ा थोड़ा आगे बढ़ाकर रखे जाया करते थे। इस प्रकार द्वार का तत्कालीन रूप अधूरी चोटी का सा होता था। प्राचीन इत्रुरिया (Etruria) तथा ग्रीस में भी द्वार बहुधा चोटी पर छोटे और नीचे बड़े बनाए जाते थे।
यूरोप में रोमन काल के पश्चात्, रोमनेस्क तथा गॉथिक वास्तुकला के काल तक, गिरजाघरों इत्यादि में ऐसे द्वार बनाए जाते थे जिनकी आकृति दीवार में क्रम से एक के बाद एक खोदे हुए, अनेक आलों के समान होती थी। द्वार के ऊपर के तोरण भी इसी प्रकार क्रम से काटे जाते थे। द्वार के छिद्र की क्षैतिज चोटी पर दीवार का एक खड़ा भाग छूटा रहता था।