"द्वार": अवतरणों में अंतर
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== द्वारकपाट (किवाड़) ==
अति प्राचीन काल के आदिवासी भी वर्तमान आदिवासियों की भाँति किवाड़ का काम वृक्ष की डालियों से बने टट्टर या चमड़े, चटाई, टाट, या किसी प्रकार के परदे से लेते थे। आवश्यकता न रहने पर चटाई इत्यादि लपेटकर बाँध दी जाती थी। मिस्र के ताई नामक मकबरे की दीवारों पर बनाए चित्रों में द्वारों पर लटकती हुईं ऐसी चटाइयाँ चित्रित हैं। आधुनिक भवनों में भी द्वारों पर लटकते
दृढ़ पदार्थों से बने किवाड़ का प्रयोग भी प्राचीन है। ये किवाड़ प्राय: किसी भी काठ के मोटे, भारी तख्तों के बने होते थे। किवाड़ की एक बगल में ऊपर और नीचे की ओर चूलें या कीलियाँ निकली रहती थीं। ये चूलें द्वार के ऊपर और नीचे की ओर बने हुए गड्ढों में बैठा दी जाती थीं। इन्हीं चूलों पर घुमाकर किवाड़ खोला या बंद किया जाता था। यदि द्वार कम चौड़ा होता था तो एक पल्ले का, नहीं तो दो पल्ले के किवाड़ लगाए जाते थे। इस प्रकार के किवाड़ भारत के पुराने भवनों में और अभी भी देहातों में सर्वत्र पाए जाते हैं।
जिन देशों में आर्द्र जलवायु के कारण लकड़ी के तख्ते के बने पल्लों के टेढ़े हो जाने की आशंका रहती है, वहाँ लकड़ी के खड़े या
जिन देशों में काठ दुर्लभ है, वहाँ पत्थर के दिल्लेदार कपाट बनाए जाते थे। ईसा पूर्व ज्वालामुखी विस्फोट में ध्वस्त पोंपियाईं नगर के अवशेषों में संगमरमर के
द्वारकपाट प्राय: लकड़ी के दिल्लेदार होते थे। इनकी बनावट बहुत कुछ आधुनिक द्वारों सी ही होती थी। कभी
मुस्लिम देशों के कपाटों में प्राय: तारों सदृश, षट्कोणीय या अन्य जटिल आकृतियों के दिल्ले होते हैं। अधिक सजावट के लिए धातु की चद्दरों में विविध आकृतियाँ काटकर लकड़ी के कपाटों पर जड़ दी जाती हैं। चीन, जापान तथा भारत में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। कभी कभी कपाट के
आजकल भी दिल्लेदार किवाड़ बनते हैं, किंतु समतल किवाड़ों का चलन बढ़ रहा है। अग्नि से बचाव के लिए धातु का भी प्रयोग होता है। ऐसे किवाड़ दो प्रकार के होते हैं : एक में भीतरी भाग तो लकड़ी का ही होता है किंतु ऊपर धातु की चद्दर चढ़ाकर झाल दी जाती है, या अन्य प्रकार से जोड़ दी जाती है। दूसरे में धातु के ढाँचे पर चद्दरें जड़ दी जाती हैं। विशेष प्रकार के काम के लिए विशेष प्रकार के दरवाजे बनाए जाते हैं।
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