"अनुवाद": अवतरणों में अंतर

बाथगेट
बाथगेट
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== बाथगेट का चिन्तन ==
 
बाथगेट (१९८०) अपने प्रारूप को संक्रियात्मक प्रारूप कहते हैं, जो अनुवाद कार्य की व्यावहारिक प्रकृति से विशेष मेल खाने के साथ-साथ नाइडा और न्यूमार्क के प्रारूपों से अधिक व्यापक माना जाता है । इसे लेखक ने निम्नलिखित चित्र के माध्यम से प्रस्तुत किया है -
 
[[चित्र:बाथगेट का आलेख.jpg|केंद्र|500x500पिक्सेल]]
 
इसमें सात सोपानों की कल्पना की गई है, जिनमें से पर्यालोचन के सोपान के अतिरिक्त शेष सर्व में अतिव्याप्ति का अवकाश माना जाता है (जो असंगत नहीं) परन्तु सैद्धान्तिक स्तर पर इनके अपेक्षाकृत स्वतन्त्र अस्तित्व को मान्यता प्रदान की गई है । मूलभाषा पाठ का मूल जानना और तदनुसार अपनी मानसिकता का मूलपाठ से तालमेल बैठाना समन्वयन है । यह सोपान मूलपाठ के सब पक्षों के धूमिल से अवबोधन पर आधारित मानसिक सज्जता का सोपान है, जो अनुवाद कार्य में प्रयुक्त होने की अभिप्रेरणा की व्याख्या करता है तथा अनुवाद की कार्यनीति के निर्धारण के लिए आवश्यक भूमिका निर्माण का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करता है ।
 
विश्लेषण और बोधन के सोपान (नाइडा और न्यूमार्क-वत्) पूर्ववत् हैं । पारिभाषिक अभिव्यक्तियों के अन्तर्गत बाथगेट उन अंशों को लेते हैं, जो मूलपाठ के सन्देश की निष्पत्ति में अन्य अंशों की तुलना में विशेष महत्त्व के हैं और जिनके अनुवाद पर्यायों के निर्धारण में विशेष ध्यान देने की आवश्यकता वो मानते है । पुनर्गठन भी पहले के ही समान है । पुनरीक्षण के अन्तर्गत अनूदित पाठ का सम्पूर्ण अन्वेषण आता है । हस्तलेखन या टङ्कण की त्रुटियों को दूर करने के अतिरिक्त अभिव्यक्ति में व्याकरणनिष्ठता, परिष्करण, श्रुतिमधुरता, स्पष्टता, स्वाभाविकता, उपयुक्तता, सुरुचि, तथा आधुनिक प्रयोग रूढि की दृष्टि से अनूदित पाठ का आवश्यक संशोधन पुनरीक्षण है । यह कार्य प्रायः अनुवादक से भिन्न व्यक्ति, अनुवादक से यथोचित् सहायता लेते हुए, करता है । यदि स्वयं अनुवादक को यह कार्य करना हो तो अनुवाद कार्य तथा पुनरीक्षण कार्य में समय का इतना व्यवधान अवश्य हो कि अनुवादक अनुवाद कार्य कालीन स्मृति के पाश से मुक्तप्राय होकर अनूदित पाठ के प्रति तटस्थ और आलोचनात्मक दृष्टि अपना सके तथा इस प्रकार अनुवादक से भिन्न पुनरीक्षक के दायित्व का वहन कर सके । पर्यालोचन के सोपान में विषय विशेषज्ञ और अनुवादक के मध्य संवाद के द्वारा अनूदित पाठ की प्रामाणिकता की पुष्टि का प्रावधान है । जिन पाठों की विषयवस्तु प्रामाणिकता की अपेक्षा रखती है - जैसे [[विधि]], प्रकृतिविज्ञान, समाज विज्ञान, [[प्रौद्योगिकी]], आदि - उनमें पर्यलोचन की उपयोगिता स्पष्ट होती है।
 
एक उदाहरण के द्वारा बाथगेट के प्रारूप को स्पष्ट किया जाता है। मूलभाषा पाठ है किसी ट्रक पर लिखा हुआ सूचना वाक्यांश Public Carrier. इसके अनुवाद की मानसिक सज्जता करते समय अनुवादक को यह स्पष्ट होता है कि, इस वाक्यांश का उद्देश्य जनता को ट्रक की उपलब्धता के विषय में एक विशिष्ट सूचना देना है । इस वाक्यांश के सन्देश में जहाँ प्रभावपरक या सम्बोधनात्मक (श्रोता केन्द्रित) प्रकार्य की सत्ता है, वहाँ सूचनात्मक प्रकार्य भी इस दृष्टि से उपस्थित है कि, उसका [[विधिशास्त्र|विधि]]<nowiki/>क्षेत्रीय और प्रशासनिक पक्ष है - इन दोनों दृष्टियों से ऐसे ट्रक पर कुछ प्रतिबन्ध लागू होते हैं । अतः कुल मिलाकर यह वाक्यांश सम्प्रेषण केन्द्रित प्रणाली के द्वारा अनूदित होने योग्य है। विश्लेषण के सोपान पर अनुगामी रूपान्तरण के द्वारा अनुवादक इसका बोधनात्मक अनुवाद करते हुए बीजवाक्य या वाक्यांश निर्धारित करते हैं : It carries goods of the public = Carrier of public goods. बोधन के सोपान पर अनुवादक को यह स्पष्ट होता है कि, It can be hired = "इसे भाडे पर लिया जा सकता है ।" पारिभाषिक अभिव्यक्ति के सोपान पर अनुवादक इसे विधि-प्रशासनिक अभिव्यक्ति के रूप में पहचानते हैं, जिसके सन्देश के अनुवाद को सम्प्रेषणीय बनाते हुए अनुवादक को उसकी विशुद्धता को भी यथोचित् रूप से सुरक्षित रखना है । पुनर्गठन के सोपान पर अनुवादक के सामने इस वाक्यांश के दो अनुवाद हैं : 'लोकवाहन' (उत्तर प्रदेश में प्रचलित) और 'भाडे का ट्रक' (बिहार में प्रचलित) । पिछले सोपानों की भूमिका पर अनुवादक के सामने यह स्पष्ट हो जाता है कि - ‘लोकवाहन' में सन्देश का वैधानिक पक्ष भले सुरक्षित हो परन्तु यह सम्प्रेषण के उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाता । इस अभिव्यक्ति से साधारण पढ़े-लिखे को यह तुरन्त पता नहीं चलता कि लोकवाहन का उसके लिए क्या उपयोग है । इसको सम्प्रेषणीय बनाने के लिए इसका पुनरभिव्यक्तिमूलक (समभाषिक) अनुवाद अपेक्षित है - 'भाड़े का ट्रक' – जिससे जनता को यह स्पष्ट हो जाता है कि, इस ट्रक का उसके लिए क्या उपयोग है । मूल अभिव्यक्ति इतनी छोटी तथा उसकी स्वीकृत अनुवाद 'भाड़े का ट्रक' इतना स्पष्ट है कि, इसके सम्बन्ध में पुनरीक्षण तथा पर्यालोचन के सोपान अपेक्षित नहीं, ऐसा कहा जाता है।
 
=== निष्कर्ष ===
 
अनुवाद प्रक्रिया के विभिन्न प्रारूपों के विवेचन से निष्कर्षस्वरूप दो बातें स्पष्टतः मानी जाती हैं । पहली, अनुवाद प्रक्रिया एक क्रमिक प्रक्रिया है, जिसमें तीन स्थितियाँ बनती हैं -
 
'''(क) अनुवादपूर्व स्थिति -''' अनुवाद कार्य के सन्दर्भ को समझना । किस पाठसामग्री का, किस उद्देश्य से, किस कोटि के पाठक के लिए, किस माध्यम में, अनुवाद करना है, आदि इसके अन्तर्गत है ।
 
'''(ख) अनुवाद कार्य की स्थिति -''' मूलभाषा पाठ का बोधन, सङ्क्रमण, लक्ष्य भाषा में अभिव्यक्ति ।
 
'''(ग) अनुवादोत्तर स्थिति -''' अनूदित पाठ का पुनरीक्षण-सम्पादन तथा इस प्रकार अन्ततः ‘सुरचित' पाठ की निष्पत्ति।
 
दूसरी बात यह है कि अनुवाद, मूलपाठ के बोधन तथा लक्ष्यभाषा में अभिव्यक्ति, इन दो ध्रुवों के मध्य निरन्तर होते रहने वाली प्रक्रिया है, जो सीधी और प्रत्यक्ष न होकर घुमावदार तथा परोक्ष है । वह मध्यवर्ती स्थिति जिसके जरिए यह प्रक्रिया सम्पन्न होती है, एक वैचारिक संज्ञानात्मक संरचना है, जो मूलपाठ के बोधन (जिसके लिए आवश्यकतानुसार विश्लेषण की सहायता लेनी होती है) से निष्पन्न होती है तथा जिसमें लक्ष्यभाषागत अभिव्यक्ति के भी बीज निहित रहते हैं । यह भाषा विशेष सापेक्ष शब्दों के बन्धन से मुक्त शुद्ध अर्थमयी सत्ता है । इस मध्यवर्ती संरचना का अधिष्ठान अनुवादक का मस्तिष्क होता है ।
 
सांस्कृतिक-संरचनात्मक दृष्टि से अपेक्षाकृत निकट भाषाओं में इस वैचारिक संरचना की सत्ता की चेतना अपेक्षाकृत स्पष्ट होती है । वैचारिक स्तर पर स्थित होने के कारण इसकी भौतिक सत्ता नहीं होती - भाषिक अभिव्यक्ति के स्तर पर यह यथातथ रूप में एक यथार्थ का रूप ग्रहण नहीं करती; यदि अनुवादक भाषिक स्तर पर इसे अभिव्यक्त भी करते हैं, तो केवल सैद्धान्तिक आवश्यकता की दृष्टि से, जिसमें विश्लेषण के रूप में कुछ वाक्यों तथा वाक्यांशों का पुनर्लेखन अन्तर्भूत होता है । परन्तु यह भी सत्य है कि यही वह संरचना है, जो अनूदित होकर लक्ष्यभाषा पाठ में परिणत होती है । इस बात को अन्य शब्दो में भी कहा जाता है कि, अनुवादक मूलभाषापाठ की वैचारिक संरचना का अनुवाद करता है परन्तु अनुवाद की प्रक्रिया की यह आन्तरिक विशेषता है कि जो सरंचना अन्ततोगत्वा लक्ष्य भाषा में अनूदित होती है, वह है मध्यवर्ती वैचारिक संरचना जो मूलपाठ की वैचारिक संरचना के अनुवादक कृत बोध से निष्पन्न है !
 
अनुवाद प्रक्रिया के इस निरूपण से सैद्धान्तिक स्तर पर दो बातों का स्पष्टीकरण होता है । एक, मूलभाषापाठ के अनुवादकीय बोध से निष्पन्न वैचारिक संरचना ही क्योंकि लक्ष्यभाषापाठ का रूप ग्रहण करती है, अतः अनुवादक भेद से अनुवाद भेद दिखाई पड़ता है । दूसरे, उपर्युक्त वैचारिक संरचना विशिष्ट भाषा निरपेक्ष (या उभय भाषा सापेक्ष) होती है - उसमें दोनों भाषाओं (मूल तथा लक्ष्य) के माध्यम से यथासम्भव समान तथा निकटतम रूप में अभिव्यक्त होने की संभाव्यता होती है । मूलभाषापाठ का सन्देश जो अनूदित हो जाता है उसकी यह व्याख्या है ।
 
[[श्रेणी:अनुवाद सिद्धान्त]]