"चार्वाक दर्शन": अवतरणों में अंतर

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== परिचय ==
चार्वाक का नाम सुनते ही आपको ‘यदा‘यावत् जीवेत सुखं जीवेत, ऋण कृत्वा, घृतं पीवेत’पीवेत। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।(जब तक जीवो सुख से जीवो, उधार लो और घी पीयोपीयो।एक बार देह के नष्ट हो जाने पर वह पुनः कहाँ से आएगा।) की याद आएगी. ‘चार्वाक’ नाम को ही घृणास्पद गाली की तरह बदल दिया गया है। मानों इस सिद्धांत को मानने वाले सिर्फ कर्जखोर, भोगवादी और पतित लोग थे। प्रचलित धारणा यही है कि चार्वाक शब्द की उत्पति ‘चारु’+’वाक्’ (मीठी बोली बोलने वाले) से हुई है। ज़ाहिर है कि यह नामकरण इस सिद्धांत के उन विरोधियों द्वारा किया गया है कि जिनका मानना था कि यह लोग मीठी-मीठी बातों से भोले-भले लोगों को बहकाते थे। चार्वाक सिद्धांतों के लिए बौद्ध पिटकों तक में ‘लोकायत’ शब्द का प्रयोग किया जाता है जिसका मतलब ‘दर्शन की वह प्रणाली है जो जो इस लोक में विश्वास करती है और स्वर्ग, नरक अथवा मुक्ति की अवधारणा में विश्वास नहीं रखती’. चार्वाक या लोकायत दर्शन का ज़िक्र तो महाभारत में भी मिलता है लेकिन इसका कोई भी मूल ग्रन्थ उपलब्ध नहीं। ज़ाहिर है कि चूंकि यह अपने समय की सत्ताधारी ताकतों के खिलाफ बात करता था, तो इसके ग्रंथों को नष्ट कर दिया गया और प्रचलित कथाओं में चार्वाकों को खलनायकों की तरह पेश किया गया।
 
[[सर्वदर्शनसंग्रह]] में चार्वाक का मत दिया हुआ मिलता है। [[पद्मपुराण]] में लिखा है कि असुरों को बहकाने के लिये बृहस्पति ने वेदविरुद्ध मत प्रकट किया था। नास्तिक मत के संबध में [[विष्णुपुराण]] में लिखा है कि जब धर्मबल से दैत्य बहुत प्रबल हुए तब देवताओं ने [[विष्णु]] के यहाँ पुकार की। विष्णु ने अपने शरीर से मायामोह नामक एक पुरुष उत्पन्न किया जिसने [[नर्मदा]] तट पर दिगबंर रूप में जाकर तप करते हुए असुरों को बहकाकर धर्ममार्ग में भ्रष्ट किया। मायामोह ने असुरों को जो उपदेश किया वह सर्वदर्शनसंग्रह में दिए हुए चार्वाक मत के श्लोकों से बिलकुल मिलता है। जैसे, - मायामोह ने कहा है कि यदि यज्ञ में मारा हुआ पशु [[स्वर्ग]] जाता है तो यजमान अपने पिता को क्यों नहीं मार डालता, इत्यादि। [[लिंगपुराण]] में त्रिपुरविनाश के प्रसंग में भी शिवप्रेरित एक दिगंबर मुनि द्वारा असुरों के इसी प्रकार बहकाए जाने की कथा लिखी है जिसका लक्ष्य [[जैन धर्म|जैनों]] पर जान पड़ता है। [[वाल्मीकि रामायण]] अयोध्या कांडमें महर्षि जावालि ने रामचंद्र को बनबास छोड़ अयोध्या लौट जाने के लिये जो उपदेश दिया है वह भी चार्वाक के मत से बिलकुल मिलता है। इन सब बातों से सिद्ध होता है कि नास्तिक मत बहुत प्राचीन है। इसका अविर्भाव उसी समय में समझना चाहिए जव वैदिक कर्मकांड़ों की अधिकता लोगों को कुछ खटकने लगी थी।