"केशवदास": अवतरणों में अंतर

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पंक्ति 77:
:''केशवमति भूतनया लोचनं चंचरीकायते।।
 
केशव की भाषा में बुंदेलखंडी भाषा का भी काफ़ी मिश्रण मिलता है। खारक (छोहारा), थोरिला (खूंटी), दुगई (दालान), गौरमदाइन (इन्द्रधनुष) आदि जैसे बुंदेली शब्दों का प्रयोग बराबर उनके काव्य में हुआ। अवधिअवधी भाषा के शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। जैसे - इहां, उहां, दिखाउ, रिझाउ आदि।
 
केशव ने कहीं-कहीं तो शब्दों को गढगढ़ लिया है। जैसे - चाप से चापकीय। अप्रचलित शब्दों के प्रयोग में भी उन्होंने पूरी तरह स्वच्छंदता से काम लिया। जैसे - आलोक (कलंक), लांच (रिश्वत), नारी (समूह) आदि। जल के अर्थ में विष शब्द का प्रयोग केशव की भाषा में ही मिलता है -
 
:विषमय यह गोदावरी, अमृतन को फल देति।
पंक्ति 116:
 
:''जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरस सुवृत्त
:''भूषन विन न विराजहीं कविता बनिता मित्त।।भित्त।।
 
अतः उनकी कविता में विभिन्न अलंकारों का प्रयोग सर्वत्र दिखाई देता है। अलंकारों के बोझ से कविता के भाव दब से गए हैं और पाठक को केवल चमत्कार हाथ लगता है।
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