"अकबर": अवतरणों में अंतर

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[[चित्र:AgraFort.jpg|thumb|left|120px|अमर सिंह द्वार, [[आगरा का किला]] ]]
[[आगरा]] शहर का नया नाम दिया गया अकबराबाद जो साम्राज्य की सबसे बड़ा शहर बना। शहर का मुख्य भाग [[यमुना नदी]] के पश्चिमी तट पर बसा था। यहां बरसात के पानी की निकासी की अच्छी नालियां-नालों से परिपूर्ण वयवस्थाव्यवस्था बनायी गई। लोधी साम्राज्य द्वारा बनवायी गई गारे-मिट्टी से बनी नगर की पुरानी चहारदीवारीचारदीवारी को तोड़कर १५६५ में नयी [[बलुआ पत्थर]] की दीवार बनवायी गई। अंग्रेज़ इतिहासकार युगल ब्लेयर एवं ब्लूम के अनुसार इस लाल दीवार के कारण ही इसका नाम [[लाल किला, आगरा|लाल किला]] पड़ा। वे आगे लिखते हैं कि यह किला पिछले किले के नक्शे पर ही कुछ अर्धवृत्ताकार बना था। शहर की ओर से इसे एक दोहरी सुरक्षा दीवार घेरे है, जिसके बाहर गहरी खाई बनी है। इस दोहरी दीवार में उत्तर में दिल्ली गेट व दक्षिण में अमर सिंह द्वार बने हैं। ये दोनों द्वार अपने धनुषाकार [[मेहराब]]-रूपी आलों व बुर्जों तथा लाल व सफ़ेद संगमर्मर पर नीली ग्लेज़्ड टाइलों द्वारा अलंकरण से ही पहचाने जाते हैं। वर्तमान किला अकबर के पौत्र [[शाहजहां]] द्वारा बनवाया हुआ है। इसमें दक्षिणी ओर जहांगीरी महल और अकबर महल हैं।<ref name="आर्ट">[http://islamicart.com/library/empires/india/akbar.html द रेन ऑफ अकबर]। इस्लामिक आर्ट।{{अंग्रेज़ी चिह्न}}</ref>
 
== नीतियां ==
=== विवाह संबंध ===
[[चित्र:RajaRaviVarma MaharanaPratap.jpg|thumb|upright|[[महाराणा प्रताप]]]]
[[आंबेर]] के [[कछवाहा]] [[राजपूत]] राज भारमल ने अकबर के दरबार में अपने राज्य संभालने के कुछ समय बाद ही प्रवेश पाया था। इन्होंने अपनी राजकुमारी हरखा बाई का विवाह अकबर से करवाना स्वीकार किया।<ref>{{Harvnb|सरकार|१९८४|p=३६}}</ref><ref>{{Harvnb|चंद्रा|२००७|pp=२४२-२४३}}</ref> जोधाबाई shehzadeशहजादे Salimसलीम keके janmजन्म keके pashchaatपश्चात् मरियम-उज़-ज़मानी कहलायी। उसकी मृत्यु १६२३ में हुई थी। उसके पुत्र [[जहांगीर]] द्वारा उसके सम्मान में [[लाहौर]] में एक मस्जिद बनवायी गई थी।<ref>{{harvnb|नाथ|१९८२|p=५२}}</ref> भारमल को अकबर के दरबार में ऊंचा स्थान मिला था और उसके बाद उसके पुत्र भगवंत दास और पौत्र [[मानसिंह]] भी दरबार के ऊंचे सामंत बने रहे।<ref name="Chandra 243">{{Harvnb|चंद्रा|२००७|p=२४३}}</ref>
हिन्दू राजकुमारियों को मुस्लिम राजाओं से विवाह में संबंध बनाने के प्रकरण अकबर के समय से पूर्व काफी हुए थे, किन्तु अधिकांश विवाहों के बाद दोनों परिवारों के आपसी संबंध अच्छे नहीं रहे और न ही राजकुमारियां कभी वापस लौट कर घर आयीं।<ref name="Chandra 243"/><ref name="Sarkar 37">{{harvnb|सरकार|१९८४|p=३७}}</ref> हालांकि अकबर ने इस मामले को पिछले प्रकरणों से अलग रूप दिया, जहां उन रानियों के भाइयों या पिताओं को पुत्रियों या बहनों के विवाहोपरांत अकबर के मुस्लिम ससुराल वालों जैसा ही सम्मान मिला करता था, सिवाय उनके संग खाना खाने और प्रार्थना करने के। उन राजपूतों को अकबर के दरबार में अच्छे स्थान मिले थे। सभी ने उन्हें वैसे ही अपनाया था सिवाय कुछ रूढ़िवादी परिवारों को छोड़कर, जिन्होंने इसे अपमान के रूप में देखा था।<ref name="Sarkar 37"/>
अन्य राजपूर रजवाड़ों ने भी अकबर के संग वैवाहिक संबंध बनाये थे, किन्तु विवाह संबंध बनाने की कोई शर्त नहीं थी। ''दो प्रमुख राजपूत वंश, मेवाढ़[[मेवाड़|मेवाड़]] के [[सिसोदिया (राजपूत)|शिशोदिया]] और रणथंभोर[[रणथम्भोर दुर्ग|रणथंभौर]] के [[हाढ़ा वंश]] इन संबंधों से सदा ही हटते रहे।'' अकबर के एक प्रसिद्ध दरबारी [[राजा मानसिंह]] ने अकबर की ओर से एक हाढ़ा राजा सुर्जन हाढ़ा के पास एक संबंध प्रस्ताव भी लेकर गये, जिसे सुर्जन सिंह ने इस शर्त पर स्वीकार्य किया कि वे अपनी किसी पुत्री का विवाह अकबर के संग नहीं करेंगे। अन्ततः कोई वैवाहिक संबंध नहीं हुए किन्तु सुर्जन को गढ़-कटंग का अधिभार सौंप कर सम्मानित किया गया।<ref name="Chandra 243"/> अन्य कई राजपूत सामंतों को भी अपने राजाओं का पुत्रियों को मुगलों को विवाह के नाम पर देना अच्छा नहीं लगता था। ''गढ़ सिवान के राठौर कल्याणदास ने मोटा राजा राव उदयसिंह और [[जहांगीर]] को मारने की धमकी भी दी थी, क्योंकि उदयसिंह ने अपनी पुत्री जोधाबाई का विवाह अकबर के पुत्र जहांगीर से करने का निश्चय किया था।था''। अकबर ने ये ज्ञान होने पर शाही फौजों को कल्याणदास पर आक्रमण हेतु भेज दिया। कल्याणदास उस सेना के संग युद्ध में काम आया और उसकी स्त्रियों ने जौहर कर लिया।<ref>{{cite book|author=[[w:Muzaffar Alam|आलम, मुज़फ़्फ़र]]; [[w:Sanjay Subrahmanyam|सुब्रह्मण्यम, संजय]]|page=१७७|title=द मुगल स्टेट, १५२६-१७५०|year=१९९८|publisher=[[ऑक्स्फोर्ड विश्वविद्यालय प्रेस]]|isbn=9780195639056}}</ref>
इन संबंधों का राजनीतिक प्रभाव महत्त्वपूर्ण था। हालांकि कुछ राजपूत स्त्रियों ने अकबर के हरम में प्रवेश लेने पर इस्लाम स्वीकार किया, फिर भी उन्हें पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता थी, साथ ही उनके सगे-संबंधियों को जो हिन्दू ही थे; दरबार में उच्च-स्थान भी मिले थे। इनके द्वारा जनसाधारण की ध्वनि अकबर के दरबार तक पहुंचा करती थी।<ref name="Chandra 243"/> दरबार के हिन्दू और मुस्लिम दरबारियों के बीच संपर्क बढ़ने से आपसी विचारों का आदान-प्रदान हुआ और दोनों धर्मों में संभाव की प्रगति हुई। इससे अगली पीढ़ी में दोनों रक्तों का संगम था जिसने दोनों संप्रदायों के बीच सौहार्द को भी बढ़ावा दिया। परिणामस्वरूप राजपूत मुगलों के सर्वाधिक शक्तिशाली सहायक बने, राजपूत सैन्याधिकारियों ने मुगल सेना में रहकर अनेक युद्ध किये तथा जीते। इनमें गुजरात का १५७२ का अभियान भी था।<ref>{{Harvnb|सरकार|१९८४|pp=३८-४०}}</ref> अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति ने शाही प्रशासन में सभी के लिये नौकरियों और रोजगार के अवसर खोल दिये थे। इसके कारण प्रशासन और भी दृढ़ होता चला गया।<ref>{{Harvnb|सरकार|१९८४|p=३८}}</ref>
 
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हिन्दुओं पर लगे [[जज़िया]] १५६२ में अकबर ने हटा दिया, किंतु १५७५ में मुस्लिम नेताओं के विरोध के कारण वापस लगाना पड़ा,<ref>{{cite book|author=डे, उपेन्द्र नाथ|year=१९७२|publisher=[[मुंशीराम मनोहरलाल]] |title=द मुगल गवर्न्मेंट, ए.डी. १५५६-१७०७|page=१३४}}</ref> हालांकि उसने बाद में नीतिपूर्वक वापस हटा लिया। जज़िया कर गरीब हिन्दुओं को गरीबी से विवश होकर इस्लाम की शरण लेने के लिए लगाया जाता था। यह मुस्लिम लोगों पर नहीं लगाया जाता था।<ref>{{cite book|author=दासगुप्ता, अजीत कुमार|year=१९९३|publisher=[[:en:Routledge|राउटलेज]]| isbn=0415061954|title=हिस्ट्री ऑफ इंडियन इकॉनोमिक थॉट|page=४५}}</ref> इस कर के कारण बहुत सी गरीब हिन्दू जनसंख्या पर बोझ पड़ता था, जिससे विवश हो कर वे इस्लाम कबूल कर लिया करते थे। [[फिरोज़ शाह तुगलक]] ने बताया है, कि कैसे जज़िया द्वारा इस्लाम का प्रसार हुआ था।<ref>[[:en:Akbar the Great#Taxation on Hindus|हिन्दुओं पर लगे कर, अकबर काल में]]</ref>
 
अकबर द्वारा जज़िया और हिन्दू तीर्थों पर लगे कर हटाने के सामयिक निर्णयों का हिन्दुओं पर कुछ खास प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि इससे उन्हें कुछ खास लाभ नहीं हुआ, क्योंकि ये कुछ अंतराल बाद वापस लगा दिए गए।<ref>{{cite book|author=खान, इक्तिदार आलम|year=१९६८|title=जर्नल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी १९६८ सं.१|page=२९-३६}}</ref> अकबर ने बहुत से हिन्दुओं को उनकी इच्छा के विरुद्ध भी इस्लाम ग्रहण करवाया था<ref>{{harvnb|Habib|1997|p= 84}}</ref> ''इसके अलावा उसने बहुत से हिन्दू तीर्थ स्थानों के नाम भी इस्लामी किए, जैसे १५८३ में [[प्रयागइलाहाबाद|प्रयागराज]] को [[इलाहाबाद]]<ref>{{cite book|author=कॉन्डर, जोसियाह|page=२८२|title=द मॉडर्न ट्रैवलर: ए पॉपुलर डिस्क्रिप्शन|year=१८२८|publisher=[[:en:R.H.Tims|आर एच टिम्स]]}}</ref> किया गया।''<ref>{{cite book|author=डीफहोल्ट्स, मार्गारेट; डीफ़होल्ट्स, ग्लेन; आचार्य, क्वेन्टाइन|page=८७|title=द वे वी वर: एन्ग्लो-इण्डियन क्रॉनिकल्स|year=२००६|publisher=कैल्कटा तिलजल्लाह रिलीफ़ इंका.isbn=0975463934}}</ref> अकबर के शासनकाल में ही उसके एक सिपहसालार हुसैन खान तुक्रिया ने हिन्दुओं को बलपूर्वक भेदभाव दर्शक बिल्ले<ref>{{cite book|author=[[:en:Harbans Mukhia|हरबंस मुखिया]]|title=द मुगल्स ऑफ इण्डिया|publisher=[[:en:Blackwell Publishing|ब्लैकवेल प्रकाशन]]|isbn=9780631185550|page=१५३|year=२००४}}</ref> उनके कंधों और बांहों पर लगाने को विवश किया था।<ref>{{cite book|author= निज्जर, बख्शीश सिंह|page=१२८|title=पंजाब- अंडर द ग्रेट मुगल्स, १५२६-१७०७|year= १९६८|publisher=थाकर}}</ref>
 
ज्वालामुखी मंदिर के संबंध में एक कथा काफी प्रचलित है। यह १५४२ से १६०५ के मध्य का ही होगा तभी अकबर दिल्ली का राजा था। ध्यानुभक्त माता जोतावाली का परम भक्त था। एक बार देवी के दर्शन के लिए वह अपने गांववासियो के साथ ज्वालाजी के लिए निकला। जब उसका काफिला दिल्ली से गुजरा तो मुगल बादशाह अकबर के सिपाहियों ने उसे रोक लिया और राजा अकबर के दरबार में पेश किया। अकबर ने जब ध्यानु से पूछा कि वह अपने गांववासियों के साथ कहां जा रहा है तो उत्तर में ध्यानु ने कहा वह जोतावाली के दर्शनो के लिए जा रहे है। अकबर ने कहा तेरी मां में क्या शक्ति है ? और वह क्या-क्या कर सकती है ? तब ध्यानु ने कहा वह तो पूरे संसार की रक्षा करने वाली हैं। ऐसा कोई भी कार्य नही है जो वह नहीं कर सकती है। अकबर ने ध्यानु के घोड़े का सर कटवा दिया और कहा कि अगर तेरी मां में शक्ति है तो घोड़े के सर को जोड़कर उसे जीवित कर दें। यह वचन सुनकर ध्यानु देवी की स्तुति करने लगा और अपना सिर काट कर माता को भेट के रूप में प्रदान किया। माता की शक्ति से घोड़े का सर जुड गया। इस प्रकार अकबर को देवी की शक्ति का एहसास हुआ। बादशाह अकबर ने देवी के मंदिर में सोने का छत्र भी चढाया। किन्तु उसके मन मे अभिमान हो गया कि वो सोने का छत्र चढाने लाया है, तो माता ने उसके हाथ से छत्र को गिरवा दिया और उसे एक अजीब (नई) धातु का बना दिया जो आज तक एक रहस्य है। यह छत्र आज भी मंदिर में मौजूद है।
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