"पुरूवास": अवतरणों में अंतर

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पोरस पर उपलब्ध एकमात्र जानकारी यूनानी स्रोतों से है इतिहासकारों ने हालांकि तर्क दिया है कि उनके नाम और उनके डोमेन के स्थान पर आधारित पोरस को ऋगवेद में उल्लेखित पुरू जनजाति के वंशज होने की संभावना थी। इतिहासकार [[ईश्वरी प्रसाद]] ने कहा कि पोरस यदुवंशी शोरसेनी हो सकता था। उन्होंने तर्क दिया कि पोरस के मोहरा सैनिकों ने हेराकल्स का एक बैनर जिसे मेगस्थनीस ने देखा था, जो पोरस के बाद भारत की यात्रा पर चन्द्रगुप्त द्वारा मथुरा के शोरसैनियों के साथ स्पष्ट रूप से पहचाने गए थे। मेगास्थनीस और एरियन के हेराकल्स कुछ विद्वानों द्वारा कृष्ण के रूप में और अन्य लोगों द्वारा उनके बड़े भाई बलदेव के रूप में पहचाने गए हैं, जो शोरसेनीस के पूर्वजों और संरक्षक देवताओं दोनों थे। इशहरी प्रसाद और अन्य, उनकी अगुवाई के बाद, इस निष्कर्ष का अधिक समर्थन इस तथ्य में पाया गया कि शोरसेनियों का एक हिस्सा कृष्णा के निधन के बाद पंजाब और आधुनिक अफगानिस्तान से [[मथुरा]] और [[द्वारका]] के लिए पश्चिम की ओर पलायन कर रहा था और वहां नए राज्य स्थापित किए थे।
 
==अलेक्जेंडर द ग्रेट से लडाई==
सिन्धु और झेलम को पार किए बगैर पोरस के राज्य में पैर रखना मुश्किल था। राजा पोरस अपने क्षेत्र की प्राकृतिक स्थिति, भूगोल और झेलम नदी की प्रकृति से अच्छी तरह वाकिफ थे। महाराजा पोरस सिन्ध-पंजाब सहित एक बहुत बड़े भू-भाग के स्वामी थे। पुरु ने इस बात का पता लगाने की कोशिश नहीं की कि यवन सेना की शक्ति का रहस्य क्या है? यवन सेना का मुख्य बल उसके द्रुतगामी अश्वारोही तथा घोड़ों पर सवार फुर्तीले तीरंदाज थे।
 
इतिहासकार मानते हैं‍ कि पुरु को अपनी वीरता और हस्तिसेना पर विश्वास था लेकिन उसने सिकंदर को झेलम नदी पार करने से नहीं रोका और यही उसकी भूल थी। लेकिन इतिहासकार यह नहीं जानते कि झेलम नदी के इस पार आने के बाद सिकंदर बुरी तरह फंस गया था, क्योंकि नदी पार करने के बाद नदी में बाढ़ आ गई थी।
 
जब [[सिकंदर|अलेक्जेंडर द ग्रेट]] ने आक्रमण किया तो उसका गांधार-तक्षशिला के राजा आम्भी ने स्वागत किया और आम्भी ने सिकंदर की गुप्त रूप से सहायता की। आम्भी राजा पोरस को अपना दुश्मन समझता था। सिकंदर ने पोरस के पास एक संदेश भिजवाया जिसमें उसने पोरस से सिकंदर के समक्ष समर्पण करने की बात लिखी थी, लेकिन पोरस ने तब सिकंदर की अधीनता स्वीकार नहीं। अगले पन्ने पर युद्ध का वर्णन...
 
 
जासूसों और धूर्तताके बल पर [[सिकंदर|अलेक्जेंडर द ग्रेट]] के सरदार युद्ध जीतने के प्रति पूर्णतः विश्वस्त थे। राजा पुरु के शत्रु लालची आम्भी की सेना लेकर सिकंदर ने झेलम पार की। राजा पुरु जिसको स्वयं यवनी 7 फुट से ऊपर का बताते हैं, अपनी शक्तिशाली गजसेना के साथ यवनी सेना पर टूट पड़े। पोरस की हस्ती सेना ने यूनानियों का जिस भयंकर रूप से संहार किया था उससे सिकंदर और उसके सैनिक आतंकित हो उठे थे।
 
भारतीयों के पास विदेशी को मार भगाने की हर नागरिक के हठ, शक्तिशाली गजसेना के अलावा कुछ अनदेखे हथियार भी थे जैसे सातफुटा भाला जिससे एक ही सैनिक कई-कई शत्रु सैनिकों और घोड़े सहित घुड़सवार सैनिकों भी मार गिरा सकता था। इस युद्ध में पहले दिन ही सिकंदर की सेना को जमकर टक्कर मिली। [[सिकंदर|अलेक्जेंडर द ग्रेट]] की सेना के कई वीर सैनिक हताहत हुए। यवनी सरदारों के भयाक्रांत होने के बावजूद सिकंदर अपने हठ पर अड़ा रहा और अपनी विशिष्ट अंगरक्षक एवं अंत: प्रतिरक्षा टुकड़ी को लेकर वो बीच युद्ध क्षेत्र में घुस गया। कोई भी भारतीय सेनापति हाथियों पर होने के कारण उन तक कोई खतरा नहीं हो सकता था, राजा की तो बात बहुत दूर है। राजा पुरु के भाई अमर ने सिकंदर के घोड़े बुकिफाइलस (संस्कृत-भवकपाली) को अपने भाले से मार डाला और सिकंदर को जमीन पर गिरा दिया। ऐसा यूनानी सेना ने अपने सारे युद्धकाल में कभी होते हुए नहीं देखा था।
 
[[सिकंदर|अलेक्जेंडर द ग्रेट]] जमीन परगिरापर गिरा तो सामने राजा पुरु तलवार लिए सामने खड़ा था। [[सिकंदर|अलेक्जेंडर द ग्रेट]] बस पलभर का मेहमान था कि तभी राजा पुरु ठिठक गया। यह डर नहीं था, शायद यह आर्य राजा का क्षात्र धर्म था, बहरहाल तभी सिकंदर के अंगरक्षक उसे तेजी से वहां से भगा ले गए। और इस तरह सिकंदर अपना इकलौता और आखरी युद्ध हार गया| पोरस महान द्वारा सिकंदर को इतनी क्षति पहुंचाई गई की [[सिकंदर|अलेक्जेंडर द ग्रेट]] वापस अपने घर जाते समय बिच बबिलोन में ही मर गया|
 
==लोकप्रिय संस्कृति में==